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साहित्य संवर्द्धन में साहित्य अकादमी का महत्वपूर्ण योगदान

साहित्य अकादमी नयी पीढ़ी के रचनाकारों को स्थान देने के लिए प्रयासरत है. उदाहरण के लिए, अकादमी में हिंदी भाषा का संयोजक होने के नाते मैंने यह तय किया है कि जहां भी कार्यक्रम हों, उनमें युवा पीढ़ी के साहित्यकारों को रचना पाठ या वक्तव्य के लिए आमंत्रित किया जाए.

गोविंद मिश्रा

भारत सरकार ने स्वायत्त साहित्यिक संथा के रूप में साहित्य अकादमी (नेशनल एकेडमी ऑफ लेटर्स) की स्थापना का आधिकारिक निर्णय दिसंबर 1952 में लिया था और 12 मार्च, 1954 को इसका उद्घाटन तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था. इस वर्ष हम इस महत्वपूर्ण संस्था की 70वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. साहित्य अकादमी को आधिकारिक रूप से इस प्रकार परिभाषित किया गया है- ‘भारतीय साहित्य के सक्रिय विकास के लिए कार्य करनेवाली एक राष्ट्रीय संस्था, जिसका उद्देश्य उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना, भारतीय भाषाओं में साहित्यिक गतिविधियों को समन्वित करना एवं उनका पोषण करना तथा उनके माध्‍यम से देश की सांस्कृतिक एकता का उन्नयन करना होगा.’ इस संस्थान की प्रमुख विशिष्टता यह है कि इसका प्रबंधन और संचालन लोकतांत्रिक ढंग से साहित्यकारों द्वारा किया जाता है. भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जितनी भाषाएं शामिल हैं, उनसे संबंधित रचनाओं का पाठ होता है, सेमिनार होते हैं तथा पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है. बिना किसी भेदभाव के सभी भाषाओं के लिए पुरस्कार दिये जाते हैं. अगर हिंदी के लिए पुरस्कार की राशि एक लाख रुपये है, तो कोंकणी के लिए भी इतनी ही राशि दी जाती है.
साहित्य अकादमी में कई श्रेणियां हैं, जिनमें लेखकों को शामिल किया जाता है. सामान्य परिषद सबसे शक्तिशाली इकाई है, जिसमें लगभग सौ सदस्य होते हैं. ये सदस्य सभी प्रांतों से आते हैं. राज्य सरकारें तीन नाम भेजती हैं, जिनमें से एक को पिछली सामान्य परिषद द्वारा अगले पांच वर्षों के लिए चुना जाता है. इसके अलावा विश्वविद्यालयों, भाषाओं की सेवी संस्थाओं, प्रकाशकों, केंद्र सरकार और विभिन्न अकादमियों आदि के प्रतिनिधि भी सामान्य परिषद में होते हैं. साथ ही, एक प्रतिष्ठित साहित्यकार को भी चुना जाता है. सामान्य परिषद से ही कार्यकारी मंडल को बनाया जाता है. यह मंडल मुख्य रूप से संस्थान को संचालित करता है. पुरस्कारों की विभिन्न श्रेणियां हैं. प्रतिष्ठित साहित्यकारों को सीनियर फेलोशिप दी जाती है. ऐसे साहित्यकार समय-समय संस्थान को सलाह देते हैं. इस प्रकार बिना किसी नौकरशाही के साहित्यकार ही भारतीय साहित्य के संवर्द्धन का कार्य करते हैं. कोई भी स्वायत्त संस्था हो, चाहे निर्वाचन आयोग हो या सर्वोच्च न्यायालय हो, कार्यपालिका यानी शासन द्वारा उसमें हस्तक्षेप करने का प्रयास हमेशा होता है. उन्हें लगता है कि पैसा सरकार का लग रहा है, तो निर्णय भी उन्हीं को करना चाहिए. साहित्य अकादमी संसद द्वारा पारित अपने संविधान से मार्गदर्शन लेती है. विभिन्न पद चुनाव द्वारा निर्धारित होते हैं. ऐसे में हस्तक्षेप की कोशिशें अभी तक काफी हद तक कामयाब नहीं हो पायी हैं. मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि पूरी स्वायत्तता रहती है, पर बहुत स्वतंत्रता से काम होता है. दखल यह होता है कि संस्कृति मंत्रालय के बहाने सरकार कभी कभी कुछ काम सौंप देती है, जो अकादमी कर देती है.
साहित्य अकादमी नयी पीढ़ी के रचनाकारों को स्थान देने के लिए प्रयासरत है. उदाहरण के लिए, अकादमी में हिंदी भाषा का संयोजक होने के नाते मैंने यह तय किया है कि जहां भी कार्यक्रम हों, उनमें युवा पीढ़ी के साहित्यकारों को रचना पाठ या वक्तव्य के लिए आमंत्रित किया जाए. अभी इंदौर में उपन्यासों पर कार्यक्रम होना है, जिसमें सेमिनार के साथ-साथ रचना पाठ भी होगा. अकादमी की 70वीं वर्षगांठ के अवसर पर दिल्ली में जो एक सप्ताह का साहित्योत्सव आयोजित किया जा रहा है, उसमें भी युवा पीढ़ी की साहित्यकार अच्छी संख्या में भाग ले रहे हैं. यह अकाद.मी की नीति का हिस्सा है कि जिन रचनाकारों को पहले नहीं बुलाया जा सका है, उन्हें आमंत्रित किया जाए. इस आयोजन में हर भाषा में रचना पाठ के कार्यक्रम हैं. प्रादेशिक भाषाओं को समझने में श्रोताओं की परेशानी को देखते हुए यह भी छूट दी गयी है कि उन भाषाओं के रचनाकार अपनी रचना का कुछ हिस्सा मूल भाषा में सुना दें और फिर उनका अनुवाद हिंदी या अंग्रेजी में प्रस्तुत कर दिया जाए. अकादमी युवा साहित्यकारों को पुरस्कृत भी करती है. बाल साहित्य के लिए भी पुरस्कार हैं.

यदि साहित्य में नयी पीढ़ी आगे नहीं बढ़ेगी और प्रतिभाशाली रचनाकारों को प्रोत्साहित नहीं किया जायेगा, तो भारतीय साहित्य के लिए यह बहुत दुखद होगा. उनके आगे आने के लिए समुचित वातावरण और अवसर मिले, यह अकादेमी का प्रयास रहता है. इस बात को लेखक ही समझ सकते हैं, न कि राजनेता या ब्यूरोक्रेसी, कि किन रचनाकारों में प्रतिभा है, सृजन क्षमता है और किनको आगे बढ़ाने की आवश्यकता है. साहित्यकारों में अपने बाद की पीढ़ी के लिए एक स्वाभाविक स्नेह भी होता है, जिसकी वजह से वे संपर्क में रहते हैं. मेरी आयु 84 वर्ष की है, पर मैं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले नये लेखकों और लेखिकाओं की रचनाओं से परिचित हूं. मेरी कोशिश होती है कि उनमें से अच्छा रचने वालों को अकादेमी की ओर से अवसर मिले. अकादमी ने सात दशकों की अपनी यात्रा में भारतीय भाषाओं के साहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है और आशा है कि यह प्रयास दीर्घकाल तक चलता रहेगा.

(बातचीत पर आधारित)

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