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रूस-यूक्रेन युद्ध के अहम सबक

युद्ध की स्थिति में पानी पैर से ऊपर न जाए, इसके लिए तो आपको कुछ करना पड़ेगा. तब आपको पारंपरिक हथियारों और रणनीति की जरूरत होगी.

भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल एमएम नरवणे का यह बयान बेहद गौरतलब है कि रूस-यूक्रेन युद्ध से भारत कई सबक ले सकता है. सबसे अहम तो यह है कि इस मसले से फिर यह बात साबित होती है कि युद्ध कभी भी हो सकते हैं और हमें ऐसी स्थिति के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए. सेनाप्रमुख के बयान के कुछ खास पहलुओं को रेखांकित किया जाना चाहिए.

अक्सर कहा जाता था कि नये युद्धों में मुख्य रूप से साइबर और अन्य आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल होगा. युद्ध से पहले बिजली संयत्रों और वितरण प्रणाली को तकनीक के सहारे निशाना बनाया जायेगा, विभिन्न प्रतिष्ठानों के कंप्यूटर सिस्टम को हैक करने की कोशिश होगी, संचार, बैंकिंग और सैटेलाइट संरचना को नाकाम करने का प्रयास होगा. जब यह सब होने से शत्रु देश लाचार हो चुका होगा, तब सेनाएं उस देश के भीतर दाखिल होंगी. यह सब हमने यूक्रेन में होते हुए नहीं देखा.

दूसरा पहलू यह हो सकता है कि युद्ध से पहले सेनाएं संभावित स्थितियों का अनुमान लगाकर योजनाएं बनाती हैं, लेकिन युद्ध भूमि की वास्तविक स्थिति उससे अलग होती है. वहां सेना को पारंपरिक और उप-पारंपरिक रणनीति से आगे बढ़ना होता है. असमान युद्ध शैली में आप टैंक को टैंक से नहीं लड़ाते और अगर शत्रु देश के पास बहुत अधिक टैंक हैं, तो आप किसी और तरीके, जैसे- छापामार लड़ाई, घात लगाकर हमला करना, हल्के हथियारों से निशाना बनाना आदि, से उसे कमजोर करने की कोशिश करते हैं.

यूक्रेन में यह होता हुआ देखा जा सकता है और यह रणनीति यूक्रेनी सेना के लिए अच्छी साबित हुई है. यह भी कहा जा रहा था कि जब परमाणु हथियार आपके पास हैं, तो फिर सेना, खासकर सैनिकों और इंफैंटरी, पर बहुत अधिक खर्च करने की क्या जरूरत है. यूक्रेन युद्ध से एक बात यह सामने आती है कि शायद रूस ने पूरी तैयारी नहीं की थी. दूसरी बात यह है कि उसने पूरी तरह से पारंपरिक शैली में हमला किया था, जिसमें फौजें यूक्रेन के भीतर भेजी गयीं. इस तरह के हमलों की संभावना को खारिज कर दिया गया था. मेरा ख्याल है कि इन पहलुओं पर सोच-विचार कर सेना प्रमुख ने यह बयान दिया है.

ऐसा कहने का मतलब यह नहीं है कि गैर-पारंपरिक ढंग के हमलों की आशंका अब नहीं रही. तैयारी करते हुए और रणनीति बनाते समय उसको भी ध्यान में रखना चाहिए, पर पारंपरिक तैयारियों से हमारा ध्यान नहीं हटना चाहिए. जहां तक परमाणु हथियारों के कारण सैन्य खर्च में कटौती का तर्क है, तो हमें यह समझना चाहिए कि परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने की नौबत तो तब आयेगी, जब अन्य विकल्प समाप्त हो चुके होंगे.

आप ऐसे हथियार तब चलायेंगे, जब पानी सर से ऊपर जाने लगेगा. अगर पानी के पैर के पास रहते हुए परमाणु हथियार चलायेंगे, तो उसके साथ आप भी तबाह हो जायेंगे. पानी पैर से ऊपर न जाए, इसके लिए तो आपको कुछ करना पड़ेगा. तब आपको पारंपरिक हथियारों और रणनीति की जरूरत होगी.

यहां एक सवाल उठाना स्वाभाविक है कि जो हमारे प्रतिद्वंद्वी देश हैं, जिनसे भविष्य में युद्ध होने की आशंका है, उनकी क्षमता को देखते हुए हमारी रणनीति क्या है. क्या हम टैंक का सामना टैंक से करेंगे या कुछ और तरीके से शत्रु की टैंक क्षमता को नष्ट करने का प्रयास करेंगे? संभवत: पाकिस्तान के साथ हमें पहली रणनीति अपनानी होगी और चीन के साथ दूसरी नीति का अनुसरण करना होगा.

तो, हमें उसी हिसाब से रणनीति बनाने और रणनीति के अनुरूप तैयारी करने की जरूरत है. समुचित तैयारी का एक आयाम सैन्य क्षमता का आधुनिकीकरण करना पर्याप्त मात्रा में गोला-बारूद की उपलब्धता सुनिश्चित करना है. कुछ साल पहले हमने देखा था कि हमारे अनेक साजो-सामान इस्तेमाल के लायक नहीं रहे थे. यदि गोला-बारूद बहुत लंबे समय तक पड़ा रहेगा, तो उसका असर कमजोर होता जाता है.

अगर अचानक युद्ध की नौबत आ जाए, तो वैसे गोला-बारूद का क्या होगा, यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है. इस मामले में हमारे यहां कुछ गफलत रही है, जिसे लगातार सुधारते रहना चाहिए. इस संबंध में दूसरी बात यह है कि हर देश यह अनुमान लगाकर चलता है कि अगर जंग हो जाती है, तो वह कितने दिन चल सकती है.

उसी के हिसाब से कुछ हफ्तों की लड़ाई के लिए गोला-बारूद और अन्य साजो-सामान जुटाकर रखा जाता है. युद्ध के मैदान में आप यह गणित नहीं लागू कर सकते कि आज दस गोले दागना है और कल पांच. लड़ाई छिड़ जाती है, तो आपको घंटे भर में सौ गोले दागने पड़ सकते हैं. पूरी तरह से युद्ध होने की स्थिति में अभी हमारे पास लगभग 10 दिन के लिए गोला-बारूद होता है.

कुछ समय पहले ऐसी खबरें आयी थीं कि इस क्षमता को बढ़ाकर 40 दिन करने की कोशिश हो रही है. जब आकलन किया गया था, तो केवल एक मोर्चे के हिसाब से किया गया था. अगर हमें दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने की नौबत आ जाए, तो गोला-बारूद के भंडार की जरूरत और अधिक बढ़ जायेगी.

यह भी देखना होता है कि फौज की जरूरत पूरी करने के लिए देश के पास क्षमता कितनी है. मान लें कि नौसेना को दो युद्धपोत चाहिए, पर हमारे पास अभी उन्हें मुहैया कराने की स्थिति नहीं है. ऐसे में हमें वैकल्पिक क्षमताओं को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए, जैसे एक युद्धपोत के साथ हम कुछ ऐसी पनडुब्बियां हासिल करें, जो शत्रु देश की नौसैनिक क्षमता को नुकसान पहुंचा सकें. युद्ध में सैनिकों की आमने-सामने भिड़ंत भी होती है और गुरिल्ला लड़ाई भी होती है. यूक्रेन में भी यह हो रहा है.

मान लीजिए कि भारतीय सेना पाकिस्तान में दाखिल हो जाती है. कुछ किलोमीटर के बाद लाहौर शहर शुरू हो जाता है. आपने शहर की घेराबंदी कर ली, पर जब आप भीतर घुसने की कोशिश करेंगे, तो शहरी गुरिल्ला युद्ध करना होगा. यूक्रेन में कीव और कुछ इलाकों में यही हो रहा है. रूस को समझ आ गया है कि उसके पास अच्छी-खासी संख्या में सैनिक नहीं हैं. ऐसे में वे शहर पर भारी बमबारी करने या घेराबंदी कर लड़ाकों को रसद आदि की कमी कर हराने की योजना पर विचार कर रहे हैं. यह भी परंपरागत युद्ध का ही एक भाग है. बहरहाल, कोशिश यही रहे कि लड़ाई की नौबत न आये और कूटनीति, दबाव या धौंस से बात बन जाए. लड़ाई वही लड़नी चाहिए, जो आप लड़ने से पहले जीत चुके हों.

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