परिवर्तन को अपनाना जरूरी

व्यवहार में भी परिवर्तन लाने की कोशिश करें. तभी चित्त प्रसन्न रहेगा और आनंद की अनुभूति होगी. किसी व्यक्ति या वस्तु से आसक्ति पालना सब दुखों का मूल है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 19, 2024 9:17 AM
an image

डॉ कविता विकास, लेखिका

काट-छांट केवल पेड़-पौधों के सही विकास के लिए ही जरूरी नहीं है, जीवन को सही आकार देने के लिए भी जरूरी है. जीवन का नाम केवल जोड़ना नहीं है. नये के लिए पुराने को हटाना भी आवश्यक है. घर में लगे पौधों को ही देख लीजिए, बेजान पत्ते, सूखी डालियां और खर-पतवार को नहीं छाटेंगे, तो पौधों की उर्वरता क्षीण हो जायेगी और वे मर जायेंगे. उसी तरह ईर्ष्या, वैमनस्य या दुख-तकलीफ से जुड़े अनुभव आदि अधिक बढ़ जायेंगे, तो एक दिन व्यक्ति मानसिक व शारीरिक रोगों से पीड़ित हो असमय ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर बैठेगा.

स्वामी विवेकानंद की जीवन यात्रा में एक प्रसंग आया है जब वे कहते हैं, किसी काम से हमें हानि हो रही है, फिर भी उससे हम चिपके हुए हैं तो यह ठीक वैसा ही है जैसे मधुमक्खी आयी तो शहद पीने थी, परंतु उसके पैर ही शहद में धंस गये और फिर वह वहां से निकल नहीं सकी. यही हमारे अस्तित्व का संपूर्ण रहस्य है.

जीवन से उन अवांछित पलों को बिसार दें जो तकलीफ देते हैं. कोई किसी के लिए जीता नहीं है. अपनी जगह दुनिया में खुद बनानी होती है और आपके बाद वह जगह खाली भी नहीं रहेगी. इस जीवन को संवारने का काम हमें ही करना है. इसमें से अनुपयोगी और निरर्थक चीजों को हटाना हमारा दायित्व है. यह काम आसान नहीं है. जानकार होने के लिए ज्ञान बढ़ाना जरूरी है, परंतु बुद्धिमान होने के लिए अनुपयोगी तत्वों को घटाना जरूरी है. व्यवहार में भी परिवर्तन लाने की कोशिश करें. तभी चित्त प्रसन्न रहेगा और आनंद की अनुभूति होगी. किसी व्यक्ति या वस्तु से आसक्ति पालना सब दुखों का मूल है, इसलिए उनके नहीं रहने या खो जाने पर हम रोते हैं या अवसाद में डूब जीवन के आनंद से वंचित रह जाते हैं. गीता में कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु से अपने को स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित रखो. कोई वस्तु कितनी भी प्यारी क्यों न हो, उसे पाने के लिए मन जितना लालायित रहता है, उसे छोड़ने में भी उतनी ही तत्परता रखनी चाहिए. दुर्बलता से मनुष्य दास बनता है और दुख का भागी होता है. हालांकि आसक्ति हमारे सुखों की जननी भी है.

हम यदि अपने बौद्धिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कार्यों में आसक्त रहते हैं, तो केवल इसलिए कि उनसे सुख मिले. परंतु जिस पल इन कार्यों में लगी ऊर्जा के अनुरूप फल नहीं मिले और ये साधन हमारी असंतुष्टि का कारण बनने लगे, हमें उन्हें छोड़ने के लिए भी उद्यत हो जाना चाहिए. स्वामी विवेकानंद की जीवन यात्रा में एक प्रसंग आया है जब वे कहते हैं, किसी काम से हमें हानि हो रही है, फिर भी उससे हम चिपके हुए हैं तो यह ठीक वैसा ही है जैसे मधुमक्खी आयी तो शहद पीने थी, परंतु उसके पैर ही शहद में धंस गये और फिर वह वहां से निकल नहीं सकी. यही हमारे अस्तित्व का संपूर्ण रहस्य है. स्वभाव और व्यवहार में लचीलापन जड़ता से बाहर निकाल परिवर्तन की गुंजाइश पैदा करता है. इसलिए परिवर्तन को अपनाने से पीछे न हटें.

Exit mobile version