चार्ल्स डिकेंस की एक पंक्ति है- ‘यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे बुरा समय था.’ भारतीय गणतंत्र के सफर को देखें, तो कुछ ऐसी ही तस्वीर बनती है. हमने गणतंत्र बनने के बाद बीते सात दशक में कई तरह की बाधाओं को पार किया, लेकिन अब भी कई कठिनाइयों से जूझ रहे हैं. अगर सिर्फ महिलाओं की पिछले सत्तर वर्षों की यात्रा पर नजर डालें, तो यह एक शानदार समय रहा, पर कठिन भी.
कुछ कठिनाइयां आज भी समाज और सत्ता में बरकरार हैं. यह समय खुशनसीब इन अर्थों में रहा कि महिलाओं ने सदियों के अंधेरे को पार किया. पर्दा प्रथा, बाल विवाह, दुखदायी वैधव्य जैसी कुप्रथाओं से उबर कर महिलाओं ने पढ़ने-लिखने, नौकरी करने की आजादी हासिल की. आज स्त्री की पहचान मां, पत्नी, बहन और बेटी के दायरे से बाहर निकल कर स्वतंत्र, आर्थिक रूप से सक्षम और अपने फैसले खुद करने वाली सशक्त स्त्री की है.
इस अवधि ने इंदिरा गांधी को देखा, मदर टेरेसा को देखा, मृणाल गोरे और मेधा पाटकर को देखा. पुरुष केंद्रित समाज में महिलाओं ने लगातार विभिन्न क्षेत्रों में अपनी जगह बनायी. अंतत: 2020 में सेना में भी महिलाओं को स्थायी कमीशन मिला. मोबाइल और इंटरनेट क्रांति से महिलाओं को दुनिया से संवाद करने, अपने विचार रखने, मुद्दे उठाने के लिए एक प्लेटफार्म मिला. लेकिन इन दशकों ने महिलाओं पर गजब के कहर भी ढाये हैं. देश ने निर्भया कांड देखा, हाथरस की घटना देखी, सोनी सोरी के साथ हुई अमानवीयता देखी.
महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा की अनगिनत घटनाएं हैं. आज भी ग्रामीण इलाकों की महिलाएं संषर्घ कर रही हैं, जहां उनकी आमदनी और स्वास्थ्य का संकट कायम है. मनुष्य विरोधी विकास और बाजारवाद की आंधी ने उन छोटे-मोटे कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया है, जिसे पहले महिलाएं चलाती थीं. जो महिलाएं पहले एक हुनरमंद बुनकर थीं या खेतिहर थीं, वे आज मजदूरी कर रही हैं या फिर फेरीवाली बन गयी हैं या देह व्यापार में चली गयी हैं. एक बड़ा क्रूर सच यह है कि देह व्यापार में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है.
महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के कठिन जीवन को मैंने नजदीक से देखा है. आदिवासी इलाकों में कई आदिवासी महिलाएं ऐसी मिलेंगी, जिनकी पीठ पर बच्चा और हाथ में कुदाल है. बीते सत्तर सालों में वह बच्चा पीठ से गोदी पर नहीं आया, इससे ज्यादा बदनसीबी और क्या होगी! आप मछुआरों की बस्ती में जाकर देखें, जो मछुआरने सुबह से शाम तक जाल लिये खड़ी रहती हैं, उनके हाथ में दिन-भर में महज दो से तीन सौ रुपये आते हैं. मजदूर महिलाओं को मिलने वाले मेहनताने का भी यही हाल है. यह डरावना सच है.
इसी समय का चमकता सच है कि देश ने हरित क्रांति, संचार क्रांति देखी, पोस्ट कार्ड से ईमेल के युग में पहुंचा. आइआइटी, आइआइएम, जेएनयू, डीयू जैसे उत्कृष्ट संस्थानों का विकास और विस्तार हुआ. मेडिकल साइंस ने भारतीयों की औसत आयु बढ़ा दी. हाशिये के लोगों का शिक्षा और राजनीति में प्रतिनिधित्व बढ़ा. बड़े-बड़े बांध बने, हाईवे बने, स्मार्ट सिटी बनी.
लेकिन दर्दनाक सत्य यह भी है कि तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की, लाखों आदिवासी विस्थापित हुए. विकास और उदारीकरण की आंधी में उनके कृषि आधारित परंपरागत उद्योग धंधे चौपट हुए, वे छोटे मजदूर बन गये एटॉमिक पावर बन गये. भारत की एक बड़ी आबादी फुटपाथ पर सोती है और किसी रईसजादे की महंगी गाड़ी उन्हें कुचलकर आगे बढ़ जाती है और उस रईसजादे पर खरोंच तक नहीं आती. इसी समय का एक सच ये भी कि अस्सी करोड़ भारतीय जनता आज भी सरकारी सहायता से पेट भर रही है.
स्त्री मजबूत बने, ताकतवर बने, इसके लिए देखना होगा कि स्त्री समस्या की जड़ें कहां हैं. स्त्री की आधी समस्या खत्म हो जायेगी, यदि पुरुष और समाज अपनी सामंती व मर्दवादी सोच से मुक्त हो जाएं. अब सवाल यह है कि इस सोच को दाना-पानी कहां से मिलता है. कोई भी धर्म स्त्री और पुरुष को समान नहीं मानता है. इसलिए एक सांस्कृतिक क्रांति की जरूरत है, जो समाज को धर्म के वर्चस्व से मुक्त कर सके.
दूसरी बात यह है कि स्त्री का आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनना जरूरी है. प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता इला भट्ट ने कहा था कि स्त्री तब तक ताकतवर नहीं हो सकती, जब तक कि उसके नाम की पासबुक नहीं होगी. स्त्री सशक्तीकरण पुरुषों की नकल करने में नहीं, बल्कि अपने भीतर की उस तरंग को पहचानने में है, जिसके लिए स्त्री आयी है इस धरती पर. पूंजीवादी बाजार स्त्री को लगातार एक व्यक्ति से एक वस्तु में तब्दील कर रहा है.
अब यह जरूरी है कि स्त्री बाजार की इस चाल को समझे और उसके प्रशंसा-पत्र को अस्वीकार करे, जिसमें सिर्फ उसकी देह की सुंदरता को सम्मानित किया गया हो, उसकी बुद्धि और प्रतिभा को नहीं. वह लोकतंत्र की ओर देखे, घर के भीतर भी और घर के बाहर भी.