बढ़ाया जाये जन वितरण प्रणाली का दायरा
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम पर ज्यादा खर्च करना जरूरी है. मध्याह्न भोजन और समेकित बाल विकास योजना के लिए भी पिछले आठ वर्षों में राशि की भयंकर कमी रही है
एक जनवरी 2023 से हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) कार्डधारकों के अधिकारों के बदलाव को लेकर बहुत भ्रम है. यह बदलाव दो कदमों में लाया जा रहा है. पहले कदम में मामूली दर लेने की जगह एनएफएसए का अनाज मुफ्त बांटने की बात है. दूसरा कदम प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाइ) की समाप्ति है. पहले कदम में कोई दम नहीं है.
याद रखें, एनएफएसए कार्डधारकों को आम तौर पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत प्रति व्यक्ति प्रतिमाह पांच किलोग्राम अनाज दिया जाता है. अभी तक दो रुपये किलो गेहूं और तीन रुपये किलो चावल दिया जा रहा था. वर्ष 2023 में उन्हें यही अनाज मुफ्त में मिलेगा और प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 10 से 15 रुपये की बचत होगी. इससे बहुत मदद नहीं मिलने वाली है, न ही इससे केंद्र सरकार का ज्यादा खर्च होने वाला है- शायद 15,000 करोड़ रुपये.
हालांकि, राजनीतिक रूप से यह छोटा सा कदम सरकार के दृष्टिकोण से स्मार्ट है. यह दूसरे चरण की कड़वी गोली को मीठा कर देगा और मोदी सरकार को खाद्य सब्सिडी के लिए संपूर्ण क्रेडिट का दावा करने में भी मदद करेगा. लोग अपने मुफ्त राशन के लिए प्रधानमंत्री मोदी को श्रेय देंगे, जबकि वास्तव में, वे सिर्फ एनएफएसए को लागू कर रहे हैं और अपनी ओर से एक छोटी सी सब्सिडी जोड़ रहे हैं.
आर्थिक दृष्टि से दूसरा कदम ही मायने रखता है. अप्रैल, 2020 में शुरू की गयी पीएमजीकेएवाइ के तहत, सभी एनएफएसए कार्डधारकों को प्रति व्यक्ति प्रतिमाह पांच किलोग्राम अनाज मुफ्त में दिया जाता था. गरीब परिवारों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आर्थिक पूरक था तथा सरकार के लिए यह एक बड़ा वित्तीय बोझ था. दोनों अब खत्म हो जायेंगे. पीएमजीकेएवाइ के अल्प जीवन को अनाज खरीद और वितरण के रुझानों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
एनएफएसए की वितरण आवश्यकता लगभग 600 लाख टन है, जिसमें से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए करीब 480 लाख टन और शेष विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए भी शामिल हैं. साल 2013 में एनएफएसए के लागू होने के बाद से खरीदारी का स्तर इससे काफी अधिक रहा है.
यही कारण है कि दो साल पहले तक अनाज भंडार में बेतहाशा वृद्धि हो रही थी. पीएमजीकेएवाइ ने इस असंतुलन को उलट दिया. जन वितरण प्रणाली का उठाव मोटे तौर पर दोगुना हो गया, वितरण खरीद से अधिक होने लगा और स्टॉक तेजी से नीचे आ गया. पीएमजीकेएवाइ को जारी रखने से स्टॉक में निरंतर कमी होती.
लेकिन किसी अन्य विकल्प के बिना पीएमजीकेएवाइ को अचानक बंद करना उचित नहीं है. गरीब परिवार अभी भी कोविड-19 संकट के परिणामों से जूझ रहे हैं. पीएमजीकेएवाइ इस कठिन समय में एक महत्वपूर्ण राहत था. यदि इसे बंद करना है, तो संबंधित बचत (प्रतिवर्ष लगभग 1.8 लाख करोड़ रुपये) को अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में खर्च किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, बचत का उपयोग जन वितरण प्रणाली के दायरे को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है.
याद रखें, 10 करोड़ से अधिक व्यक्तियों को एनएफएसए में गलत तरीके से बाहर रखा गया है क्योंकि केंद्र सरकार खाद्यान्न आवंटन निर्धारित करने के लिए 2011 की आबादी के पुराने आंकड़ों का उपयोग कर रही है. आज 40 फीसदी से अधिक आबादी एनएफएसए के दायरे से बाहर है, जिसमें कई गरीब परिवार भी हैं.
पांच किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिमाह की मानक एनएफएसए दरों पर 10 करोड़ व्यक्तियों को जोड़ने के लिए प्रतिवर्ष केवल 60 लाख टन अनाज की आवश्यकता होगी. यह पूरी तरह से संभव है. दरअसल, पीएमजीकेएवाइ के बंद होने से अनाज भंडार फिर से बढ़ने वाले हैं.
अन्य सामाजिक सुरक्षा पहल भी संभव थी. उदाहरण के लिए, जैसा कि 51 अर्थशास्त्रियों ने हाल में वित्तमंत्री को लिखे पत्र में तर्क दिया, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम पर ज्यादा खर्च करना जरूरी है. मध्याह्न भोजन और समेकित बाल विकास योजना के लिए भी पिछले आठ वर्षों में राशि की भयंकर कमी रही है.
मातृत्व लाभ एनएफएसए के अनुसार लागू करना भी बाकी है और 6,000 रुपये प्रति बच्चे के पुराने मानदंड से ऊपर लाभ बढ़ाना जरूरी है. आगामी बजट पीएमजीकेएवाइ की जगह इन उपायों को लागू करने के लिए एक अच्छा अवसर है. अधिक संभावना यह है कि सरकार यह कहेगी कि संकट खत्म हो गया है और राहत के उपाय अब अनावश्यक हैं.
सामाजिक सुरक्षा का ढांचा समझना जरूरी है, जो मोदी सरकार द्वारा ब्रेक लगाने से पहले आकार लेना शुरू कर दिया था. बहुत कम विकासशील देशों के पास खाद्य सब्सिडी, वृद्धावस्था पेंशन, मातृत्व लाभ, मध्याह्न भोजन और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार गारंटी के लगभग सार्वभौमिक अधिकार हैं (लाभ प्रत्येक मामले में कम हैं, लेकिन उन्हें बढ़ाया जा सकता है).
यह ढांचा इस सोच पर बना है कि सामाजिक सुरक्षा सभी नागरिकों का अधिकार है, न कि केवल संगठित श्रमिक वर्ग का. दुख की बात है कि आजकल नागरिकों से कहा जाता है कि वे अपने अधिकारों को भूल जाएं और केवल अपने कर्तव्यों का पालन करें. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)