विपक्षी एकता की परीक्षा लेते कठिन मुद्दे
लोकसभा चुनाव में ज्यादा टकराव न भी हो, पर विधानसभा चुनाव में सीट शेयरिंग बहुत बड़ी चुनौती साबित होगी. कहीं ‘एक देश- एक चुनाव’ की सोच ‘इंडिया’ में ऐसे टकराव को बढ़ावा देने की मंशा से भी तो प्रेरित नहीं?
मुंबई में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की दो दिवसीय बैठक के निष्कर्षों पर भाजपा के कटाक्ष और सवाल समझे जा सकते हैं, पर वहां जो कुछ हुआ, अपेक्षित ही था. समान विचारवाले दलों में गठबंधन की राजनीति के दिन कब के हवा हो चुके. अब तो महज सत्ता प्राप्ति के साझा उद्देश्य से ही गठबंधन बनते हैं- चाहे वह एनडीए हो या फिर ‘इंडिया’. हां, मुंबई बैठक में बिना संयोजक ही सही, समन्वय समिति की घोषणा एक जरूरी कदम के रूप में सामने आयी है. परस्पर दलगत हितों के टकराव के मद्देनजर ‘इंडिया’ के घटक दल फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे हैं.
संयोजक को चुनावी चेहरे के रूप में देखा-दिखाया जा सकता है. इसलिए उसकी घोषणा के साथ ही खींचतान बढ़ भी सकती है. आखिर चार राज्यों में अपनी और तीन राज्यों में गठबंधन सरकार वाली कांग्रेस विपक्ष का सबसे बड़ा दल है, तो मात्र एक लोकसभा सांसदवाली आप की भी दो राज्यों में सरकार है. उधर नीतीश कुमार इस विपक्षी एकता के सूत्रधार रहे हैं, तो 42 लोकसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बेहद जुझारू नेता हैं.
फिर नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 18 सितंबर से संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र बुलाने तथा ‘एक देश-एक चुनाव’ के मुद्दे पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति की घोषणा से समय पूर्व लोकसभा चुनाव की आशंका भी गहरायी है. इसलिए भी, विपक्ष की कोशिश है कि टकराव वाले मुद्दों से किनारा करते हुए अपने गठबंधन को चुनाव के लिए तैयार किया जाए. सीटों का बंटवारा बड़ा मुद्दा है, जिस पर सब कुछ निर्भर करेगा. इसलिए मुंबई बैठक में प्रचार अभियान और सोशल मीडिया संबंधी समितियां गठित करते हुए ‘इंडिया’ ने जल्दी ही सीट शेयरिंग फॉर्मूला खोजने की बात भी कही है, पर यह कर पाना कहने जितना आसान नहीं.
कई राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल चुनावों में परस्पर टकराते ही रहे हैं. अच्छी बात यह है कि विपक्षी दलों के बड़े नेताओं को इस जटिलता का अहसास है और कहा जा रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए वे त्याग करने को तैयार हैं, लेकिन अगर ‘इंडिया’, मोदी सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताता है, तो उसे वैकल्पिक दृष्टिकोण के साथ अपना कार्यक्रम देश के समक्ष पेश करना ही होगा.
मुंबई बैठक में पारित प्रस्ताव में बड़ी सावधानी से कहा गया है कि जहां तक संभव होगा, हम अगला चुनाव मिल कर लड़ेंगे. संकेत हैं कि टीमएमसी-लेफ्ट के बीच तल्ख टकराव वाले पश्चिम बंगाल तथा कांग्रेस-लेफ्ट के सत्ता संघर्ष वाले केरल में ‘इंडिया’ के घटक दलों में परस्पर चुनावी मुकाबला देखने को मिल सकता है. केरल में भाजपा का कोई प्रभाव नहीं है, इसलिए कांग्रेस या लेफ्ट में से जो भी जीते, ‘इंडिया’ की ही जीत होगी, लेकिन पश्चिम बंगाल में विपक्षी गठबंधन को इससे नुकसान हो सकता है. कांग्रेस और आप नेतृत्व अभी तक परस्पर समझदारी का संकेत दे रहे हैं, पर दिल्ली और पंजाब में उनके बीच भी सीट बंटवारा आसान नहीं होगा.
लोकसभा चुनाव में ज्यादा टकराव न भी हो, पर विधानसभा चुनाव में सीट शेयरिंग बहुत बड़ी चुनौती साबित होगी. कहीं ‘एक देश-एक चुनाव’ की सोच ‘इंडिया’ में ऐसे टकराव को बढ़ावा देने की मंशा से भी तो प्रेरित नहीं? मोदी सरकार का यह अकेला दांव नहीं है, जिससे ‘इंडिया’ में बौखलाहट है. जी-20 शिखर सम्मेलन के मेहमानों को रात्रिभोज के निमंत्रण पत्र पर ‘प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ की जगह ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ लिखे जाने से भी विपक्ष बौखलाया हुआ है कि कहीं विशेष संसद सत्र में देश का नाम बदलने का इरादा तो नहीं है? ‘इंडिया’ की आंतरिक मुश्किलें भी कम नहीं.
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का आरोप तो विपक्ष पर हमेशा रहा है, अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे उदयनिधि ने, तमिल राजनीति के समीकरण साधने के लिए ही सही, सनातन धर्म के विरुद्ध जैसा विष वमन किया है, उससे हो रहे राजनीतिक नुकसान की भरपाई आसान नहीं. साफ है कि लोकसभा चुनाव जब भी हों, राजनीतिक मोर्चाबंदी तेज होगी और दलों-नेताओं के बीच जुबानी जंग लगातार तल्ख.
यह भी साफ है कि अगला लोकसभा चुनाव पिछले दो चुनावों से अलग होगा. पहली बार विपक्ष में यह विश्वास दिख रहा है कि वह एकजुट हो कर भाजपा को हरा सकता है. वहीं अचानक एनडीए की सक्रियता से भाजपा की चुनावी चिंताएं भी पहली बार ही उजागर हो रही हैं. लोकतंत्र संख्या का खेल भी है. इसीलिए 26 दलों वाले ‘इंडिया’ पर मनोवैज्ञानिक बढ़त के लिए एनडीए ने 38 दलों का कुनबा इकठ्ठा किया, पर मुंबई बैठक में ‘इंडिया’ का कुनबा भी 28 तक पहुंच गया है.
यह सक्रियता और सेंधमारी चुनाव के बाद भी चल सकती है. यदि लोकसभा चुनाव समय पर ही हुए तो उनसे पहले इसी साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें से तीन- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होगा. इन राज्यों के चुनाव परिणाम का असर दोनों गठबंधनों की मोर्चेबंदी पर ही नहीं, बल्कि ‘इंडिया’ के आंतरिक समीकरणों पर भी पड़ेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं)