बीते दो सप्ताह में भारतीय अर्थव्यवस्था पर कई रिपोर्टों और लेखों का प्रकाशन हुआ है. इनमें सबसे अहम सरकार द्वारा जारी किया गया आर्थिक आंकड़ा है, जिसमें चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) की आर्थिक वृद्धि का आकलन है. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय आम तौर पर दो माह की देरी से यह आंकड़ा देता है, जो यह नवंबर के आखिर में जारी हुआ. दूसरी बड़ी रिपोर्ट भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति से आयी.
समिति ने इस वर्ष की वृद्धि के अनुमान के साथ मुद्रास्फीति की संभावित स्थिति के बारे में बताया है. इस रिपोर्ट के आने से एक दिन पहले विश्व बैंक ने इस साल और अगले साल की भारत की वृद्धि का अनुमान जारी किया था. वैश्विक बैंक मॉर्गन स्टैनली ने आगामी एक दशक में भारत की संभावनाओं पर रिपोर्ट दी है, जिसे बहुत चर्चा मिली है. इनके अलावा भी कई विश्लेषण आये हैं, जिनमें शेयर बाजार, कर संग्रहण, यातायात, ढुलाई, कॉरपोरेट लाभ आदि के आंकड़ों के आधार पर विचार किया गया है. क्या सभी बड़ी रिपोर्टों में परस्पर सहमति दिखती है, यह विचारणीय है.
रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर को सात से घटाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया है. उसमें वैश्विक सुस्ती, भारतीय निर्यात पर नकारात्मक असर और भू-राजनीतिक तनावों पर चिंता जतायी गयी है. इन कारकों में उच्च ब्याज दरें और शायद भारत जैसे उभरते बाजारों में कम पूंजी प्रभाव जैसी वैश्विक वित्तीय स्थितियां भी योगदान कर रही हैं. समिति ने कहा है कि शेष दो तिमाहियों में वृद्धि दर में और कमी आयेगी तथा इनके क्रमशः 4.3 और 4.2 प्रतिशत रहने के आसार हैं.
इसमें कुछ भी अजूबा नहीं है. आप समिति पर अनावश्यक ढंग से आशंकित होने का आरोप नहीं लगा सकते हैं. दूसरी ओर देखें, तो विश्व बैंक ने अपने आकलन में सुधार कर अनुमानित दर के 6.5 की जगह 6.9 प्रतिशत रहने की बात कही है. इसका आधार घरेलू अर्थव्यवस्था में संभावित बेहतरी है. इनकी आशंका और आशावाद विरोधाभासी लग सकते हैं, पर उनका अनुमानित आंकड़ा लगभग समान है.
ऐसे में कहा जा सकता है कि विश्व बैंक पहले अधिक आशंकित था, इसलिए बाद में उसने अनुमान बढ़ाया है. मॉर्गन स्टैनली की रिपोर्ट तो असाधारण रूप से उत्साहित है. उसने भावी एक दशक का आकलन कर भविष्यवाणी की है कि हमारी अर्थव्यवस्था का आकार दोगुना होकर 8.5 ट्रिलियन डॉलर हो जायेगा तथा प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ेगी.
यह रिपोर्ट स्टॉक मार्केट के वैश्विक निवेशकों को लक्षित है और उन्हें यह बताती है कि भारत के स्टॉक मार्केट की वृद्धि निवेशकों और कंपनियों के लिए बड़ा अवसर है. हालांकि इससे अभी असहमत होने की वजह नहीं है, पर लंदन के फाइनेंशियल टाइम्स ने इस पर टिप्पणी करते हुए निवेशकों से सचेत रहने को कहा है. उसने ब्राजील और चीन का हवाला दिया है, जहां अच्छी वृद्धि के बावजूद स्टॉक निवेशकों को नुकसान उठाना पड़ा है.
अब सरकार द्वारा तैयार आंकड़ों को देखा जाए. दूसरी तिमाही में पिछले साल इसी अवधि की तुलना में वृद्धि दर 6.3 प्रतिशत रही है, जबकि पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में यह दर 13.5 प्रतिशत रही थी. इस तरह सुस्ती स्पष्ट है और अगली तिमाहियों में दरें और कम हो सकती हैं. अर्थव्यवस्था का आकार 2019 की तुलना में 7.5 प्रतिशत ही अधिक है, जिसका अर्थ है कि बीते तीन वर्षों में औसत सालाना वृद्धि दर मात्र 2.5 प्रतिशत रही है. यह महामारी के दौरान लगे आघात का परिणाम है.
लेकिन इसी अवधि में अमेरिकी और चीनी अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि हुई है. अमेरिका में महामारी से पांच लाख मौतें हुईं थीं, जबकि चीन में मौतें तो बहुत कम हुईं, पर वहां कड़े लॉकडाउन लगाये जाते रहे. यह सही है कि 6.8 या 6.9 प्रतिशत की दर के साथ भी भारत सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बना रहेगा. ध्यान रहे, वैश्विक अर्थव्यवस्था में चीन और अमेरिका की हिस्सेदारी 45 प्रतिशत है, जबकि भारत का हिस्सा 3.5 प्रतिशत है. इसलिए घरेलू जीवन स्तर में सुधार के लिए भारत की वृद्धि दर बहुत अधिक होनी चाहिए.
उपभोक्ता खर्च, नयी परियोजनाओं में निवेश, सरकार का वित्त मुहैया कराना तथा निर्यात आर्थिक वृद्धि के संचालक होते हैं. निर्यात में अक्टूबर में गिरावट आयी है और इस पर वैश्विक मंदी का बुरा असर पड़ा है. कीमती पत्थर, आभूषण और इंजीनियरिंग में बीते साल अक्टूबर की तुलना में 20 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आयी है. अमेरिका में तकनीकी क्षेत्र में भारी छंटनी के कारण सॉफ्टवेयर निर्यात भी प्रभावित होगा.
जहां तक सरकारी सहयोग की बात है, तो चूंकि घाटे को और बढ़ाने की वित्तीय गुंजाइश नहीं है, इसलिए अगले साल के लिए उम्मीद नहीं रखी जा सकती है. केंद्र और राज्यों का सकल वित्तीय घाटा कुल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के 10 फीसदी से भी अधिक है. जीडीपी की तुलना में कर्ज का अनुपात भी 90 प्रतिशत के उच्च स्तर पर है. वित्तमंत्री ने निजी क्षेत्र से निवेश बढ़ाने का आह्वान किया है. हालांकि ये शुरुआती संकेत हैं, पर आंकड़े बहुत सुस्त हैं.
हाल में बैंक कर्ज में हुई प्रभावी वृद्धि को लेकर हमें सतर्क रहना होगा क्योंकि अधिकांश वृद्धि आवास, वाहन कर्ज और खुदरा कर्ज पर आधारित है. यह उपभोक्ताओं के बहुत छोटे हिस्से से आया है. असली वृद्धि औद्योगिक एवं व्यावसायिक परियोजनाओं के कर्ज से होनी चाहिए. उपभोक्ता खर्च पर दो चीजों का असर पड़ा है- मुद्रास्फीति और महंगाई.
लगभग तीन साल से मुद्रास्फीति छह फीसदी से अधिक रही है. इसका उपभोक्ताओं पर असर होता है और वे मनचाही चीजों की खरीद में कटौती करने की कोशिश करने लगते हैं. थोक मूल्य मुद्रास्फीति, जो उत्पादकों और छोटे उद्यमियों को प्रभावित करती है, दो अंकों में है. बेरोजगारी अब आधिकारिक रूप से आठ फीसदी हो चुकी है.
इस प्रकार, सभी चार संचालक तत्व- उपभोक्ता, निवेशक, सरकार और निर्यात- चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. इसलिए 2023 में कमतर वृद्धि दर अपेक्षित है. साथ ही, विनिमय दर से भी चुनौतियां हैं क्योंकि व्यापार घाटा बड़ा है. ब्याज दरों में बढ़ोतरी से कर्ज और पूंजी का खर्च भी बढ़ता जा रहा है. भारत इससे सांत्वना ले सकता है कि दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से उसकी वृद्धि दर अधिक है. लेकिन अगले साल मजबूती बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि कमतर वृद्धि देश के गरीबों के लिए अधिक मुसीबत न लाये.