भारत का बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार

फॉरेक्स एकत्र करने का आरबीआइ का फैसला सही है. यह बड़ी उपलब्धि है, लेकिन ज्यादा उत्साहित होना ठीक नहीं. लद्दाख की छाया अभी स्पष्ट नहीं है.

By अजीत रानाडे | June 24, 2020 1:17 AM
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डॉ अजित रानाडे, अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन

editor@thebillionpress.org

पूर्वी लद्दाख में सीमा विवाद के कारण 20 बहादुर सैनिक शहीद हो गये. भारत-चीन सीमा पर पिछले 50 सालों में यह सबसे दुखद वाकया है. सामान्य दिनों में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव की स्थिति रहती है, आमने-सामने का टकराव होता रहता है. लेकिन, जब युद्ध की स्थिति उत्पन्न होती है, तो राजनीतिक आका सीमा पर तापमान कम करने और एड्रेनलिन लेवल (हार्मोन) को नीचे लाने के लिए राजनयिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. यह असहज शांति होती है और इसे दोनों तरफ जीत के तौर पर देखा जाता है. बीते दो दशकों में भारत-चीन व्यापार और निवेश अविश्वसनीय तरीके से बढ़ा है.

हालांकि यह असंतुलित रहा है, लेकिन इससे भारतीय ग्राहकों को कम कीमत वाले इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों, उपभोक्ता वस्तुओं और यहां तक कि सस्ते फार्मास्युटिकल्स इनपुट (जिसे एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इंटरमीडिएट्स यानी एपीआइ कहा जाता है) का लाभ मिला है. भारत का चीन को निर्यात 2017-18 में तेजी से बढ़कर 12 बिलियन से 16 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया, लेकिन उसके बाद ठहराव आ गया. चीन का भारत में पूंजी निवेश, खासकर उद्यमिता निधीयन (वेंचर फंडिंग) और नव उद्यमिता के क्षेत्र में तेजी से बढ़ा है. पिछले ही हफ्ते एक बड़े चीनी ऑटो निर्माता ने महाराष्ट्र में एक बिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की है.

गलवान घाटी में हिंसा का बुरा असर भारत-चीन संबंधों के सभी आयामों पर पड़ेगा. सोशल मीडिया पर उन्मादी भीड़ चीनी सामानों के आयात पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रही है, साथ ही सैन्य बदला लेने की भी मांग जोर पकड़ रही है. प्रधानमंत्री ने कहा कि भारतीय क्षेत्र में चीनी सैनिकों द्वारा कोई घुसपैठ नहीं हुई है. ऐसे में गलवान में हुई मुठभेड़ और मौतों का विवरण आना अभी बाकी है. लद्दाख घटना के बीच में ही भारत ने एक बड़ा आर्थिक मील का पत्थर पार कर लिया है.

देश का विदेशी मुद्रा भंडार आधा ट्रिलियन डॉलर से अधिक का हो गया है. देश अब दुनिया के शीर्ष पांच देशों में शामिल हो गया है. आज से 30 साल पहले 1991 के ऐतिहासिक सुधार के समय देश का विदेशी मुद्रा भंडार सिमटकर एक बिलियन डॉलर रह गया था. आपात स्थिति में लंदन में सोना गिरवी रखने का फैसला करना पड़ा था. रिजर्व कम होने से कोई ऋणदाता भारत को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं था. इसी वजह से अर्थव्यवस्था को मुक्त करने के लिए ऐतिहासिक सुधार की पहल हुई और उद्योग, व्यापार एवं बैंकिंग को नियमन से मुक्त किया गया.

लेकिन हाल में विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि की कहानी अलग है. मार्च से इसमें तेजी आयी. उसी महीने में 16 बिलियन डॉलर निकाल लिया गया. विदेशी संस्थागत निवेशक शेयर बेचकर निकल गये. यह एक महीने में उच्चतम बर्हिगमन था. अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने रेटिंग गिरा दी. स्टैंडर्ड एंड पुअर्स और फिच ने भी भारत के सॉवरेन आउटलुक को घटाते हुए ‘स्थिर’ से ‘नकारात्मक’ कर दिया.

सभी तीनों प्रमुख अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेंटिंग को निवेश ग्रेड में निचले स्तर पर ला दिया. वास्तव में विदेशी मुद्रा (जैसे-डॉलर) में देश सॉवरेन ऋण नहीं लेता है. इसका पूरा ऋण घरेलू स्तर पर होता है. इसका सॉवरेन ऋण कार्यक्रम पर असर नहीं होगा. हालांकि, यह निजी क्षेत्र के उन कर्जदारों के लिए चिंताजनक है, जो बाहर से वित्त लेना चाह रहे होंगे, उन्हें ऋण के लिए अधिक किस्त का भुगतान करना होगा.

जून में हालात कुछ बदल गये. विदेशी संस्थागत खरीदार लौट रहे हैं. वे चुनिंदा स्टॉक खरीद रहे हैं, फिर भी तीन बिलियन डॉलर से अधिक वापस आ गये हैं. शेयर बाजार सूचकांक अप्रमाणिक होता है, क्योंकि कुछ ही बड़ी कंपनियां सूचकांक में शामिल होती हैं. यहां गौर करनेवाली बात शेयर बाजार का उतार-चढ़ाव नहीं है, बल्कि तेजी से बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार है. इस संग्रहण का स्रोत क्या है? ऐसा नहीं है कि भारत में बड़े पैमाने पर डॉलर आ रहे हैं. मार्च में खत्म हुए वित्त वर्ष 2019-20 में देश ने जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) आकर्षित किया, वह 50 बिलियन डॉलर था. यह 2018-19 में 44 बिलियन से बड़ा उछाल था. लेकिन हाल में उछाल की प्रमुख वजह निकासी में आयी गिरावट है.

महामारी की वजह से भारत का आयात-निर्यात मार्च, अप्रैल और मई में तेजी से गिरा है. अप्रैल में 60 प्रतिशत की कमी आने के बाद निर्यात मई में भी 36 प्रतिशत गिरा और आयात में 51 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी. इन आंकड़ों की तुलना बीते वर्ष के समरूप महीनों से की गयी है. बड़ी गिरावट की वजह से मासिक व्यापार संतुलन संकरा हो गया. मई में व्यापार घाटा मात्र तीन बिलियन (ऋणात्मक) डॉलर रहा, जो पिछले साल इसी अवधि में 15 बिलियन था. इसका मतलब देश को अनुमानतः 12 बिलियन के फॉरेक्स का ‘फायदा’ हुआ. आयात हेतु भुगतान करने में डॉलर बाहर नहीं गया, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में तेजी आयी. इस साल कुछ महत्वपूर्ण एफडीआइ, विशेषकर रिलायंस के उपक्रम जियो में निवेश के तौर पर आ रही है.

अचानक काल्पनिक ‘आमद’ होने के कारण भारतीय रिजर्व बैंक ने बाजार पर संतुलन निर्धारण को छोड़ने के बजाय मुद्रा एकत्र करने का विकल्प चुना है. अगर आरबीआइ अधिशेष डॉलर को अपने पास नहीं रखेगा, तो इसकी आपूर्ति बढ़ जायेगी, जिससे अमेरिकी डॉलर के साथ ही रुपये का मूल्य गिर जायेगा. अतः विनियमय दर में बदलाव आयेगा और यह 76 से 74 या 72 हो सकता है.

लेकिन, यह अस्थायी और भ्रामक होगा. मार्च की तरह एक बार फिर अगर विदेशी संस्थागत निवेशकों ने स्टॉक और बॉन्ड बेचना शुरू किया, तो हालात फिर विपरीत हो सकते हैं. यह वैश्विक डॉलर की कमी का साल है, क्योंकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को बड़ा ऋण चुकाना है. अतः फॉरेक्स एकत्र करने का आरबीआइ का फैसला सही है. यह बड़ी उपलब्धि है, लेकिन ज्यादा उत्साहित होना ठीक नहीं. लद्दाख की छाया अभी स्पष्ट नहीं है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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