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लाभप्रद होगा भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर

भारत के मध्य पूर्व और यूरोप के देशों के साथ उत्कृष्ट व्यापारिक संबंध हैं. यह तीनों क्षेत्रों के लिए लाभप्रद स्थिति हो सकती है. यह व्यापार को बढ़ायेगा और रोजगार के अवसर प्रदान करेगा.

By डॉ राजन | September 13, 2023 8:11 AM
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दिल्ली में जी-20 के शिखर सम्मेलन के मौके पर कई बड़ी घोषणाएं हुईं. इनमें एक महत्वपूर्ण घोषणा थी- भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर का विकास. यह भारत को मध्य पूर्व के देशों के रास्ते यूरोप से जोड़ने के लिए एक बहुउद्देशीय परिवहन गलियारा होगा जिसका उद्देश्य आधारभूत ढांचे का विकास करना होगा. इस परियोजना पर काम करने के लिए भारत, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, जर्मनी, फ्रांस, इटली, अमेरिका और यूरोपीय संघ ने समझौते किये हैं.

इस परियोजना को चीन की बहुचर्चित बीआरआई या बॉर्डर रोड इनिशिएटिव परियोजना और उसके जरिये भू-राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने की चीन की कोशिश का मुकाबला करने के लिए एक मास्टर स्ट्रोक के रूप में देखा जा रहा है. परिवहन नेटवर्कों के माध्यम से महाद्वीपों को जोड़ना 21वीं सदी की भू-रणनीतिक विशेषता बन गयी है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2013 में कजाकिस्तान में बीआरआइ परियोजना की घोषणा की थी, जो मूल रूप से पूर्वी एशिया और यूरोप को जोड़ने का प्रयास था. चीन के इस कदम के बाद से ही अन्य देशों ने भी वैकल्पिक मार्गों और रणनीतियों की खोज शुरू कर दी है.

पहले वन बेल्ट वन रोड के नाम से जानी जाने वाली बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, शी जिनपिंग की विदेश नीति की पसंदीदा परियोजना है. योजना के दो पहलू थे- भूमि आधारित सिल्क रोड आर्थिक बेल्ट और समुद्री सिल्क रोड. बीआरआइ में शामिल होने के लिए अब तक करीब 147 देशों ने एमओयू या सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये हैं. चीन अब तक इस परियोजना पर एक ट्रिलियन डॉलर खर्च कर चुका है. इसमें सबसे बड़ा निवेश चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर हुआ है, जिसका अनुमानित निवेश 62 अरब डॉलर है.

भारत ने बीआरआइ में शामिल होने से इनकार कर दिया क्योंकि यह गलियारा पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय क्षेत्रों से होकर गुजरता है. बीआरआइ को तीन मुख्य कारणों से कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है. पहला, अनेक देशों के शामिल होने के बावजूद यह एक एकपक्षीय परियोजना है, जिसमें चीन मुख्य निवेशक है जबकि अन्य देश प्राप्तकर्ता हैं. दूसरा, यह चीन की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने वाली परियोजना है.

तीसरा, इसने उन गरीब देशों के लिए ‘ऋण का जाल’ बिछा दिया है, जो कर्ज तो ले लेते हैं लेकिन उसे चुकाने में असमर्थ हैं. पाकिस्तान, श्रीलंका, केन्या, जाम्बिया, लाओस जैसे देश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का तर्क रहा है कि इन देशों ने चीन से ऋण इसलिए लिया क्योंकि पश्चिम ने उन्हें ऋण देने से इनकार कर दिया.

चीन के बढ़ते वाणिज्यिक और भू-राजनीतिक प्रभाव ने उन देशों की चिंताएं बढ़ा दी हैं, जो चीन को प्रतिद्वंद्वी या प्रतिस्पर्धी के रूप में देखते हैं. इटली को छोड़कर, जी-7 का कोई भी देश बीआरआइ में शामिल नहीं हुआ है. इसलिए, ये देश लंबे समय से अन्य परियोजनाओं को विकसित करने की योजना बना रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने वर्ष 2021 में जी-7 के सहयोग से बीआरआइ का मुकाबला करने के लिए बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड इनिशिएटिव (बी3डब्ल्यू) लॉन्च किया. लेकिन पर्याप्त धन की कमी के कारण इस परियोजना की प्रगति में देर हुई है.

इसी तरह, जापान ने एशिया में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 300 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया था. वर्ष 2017 में इसने एशिया-अफ्रीका विकास गलियारे को विकसित करने के लिए भारत के साथ एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किया, लेकिन उस पर अभी तक कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है. बीआरआइ को लेकर यूरोप बंटा हुआ है. यूरोपीय संघ के कुल 27 सदस्यों में से 18 देश बीआरआइ में शामिल हो गये हैं. इसलिए यूरोपीय संघ चीन के बीआरआइ के खिलाफ कोई सख्त रुख अपनाने की स्थिति में नहीं है.

बहरहाल, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप गलियारा भारत के दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी परियोजना है. पाकिस्तान द्वारा पैदा की गयी बाधा के कारण भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के साथ आर्थिक गलियारा विकसित करने में असमर्थ रहा है. अमेरिकी समर्थन के बावजूद तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (टीएपीआइ) पाइपलाइन सफल नहीं हो पायी है.

भारत ने इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (आइएनएसटीसी) पर कड़ी मेहनत की है, जो ईरान और मध्य एशिया में बंदरगाहों के माध्यम से भारत को रूस से जोड़ने का एक वैकल्पिक मार्ग है. भारत ने ईरान में चाबहार बंदरगाह के विकास पर लगभग 500 मिलियन डॉलर का निवेश किया, और यह चाहता था कि इसे आइएनएसटीसी में शामिल किया जाए. लेकिन तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने और ईरान पर पश्चिमी प्रतिबंधों ने इस परियोजना को बाधित कर दिया है.

नया भारत-मध्य पूर्व-यूरोप गलियारा भारत के लिए एक महत्वपूर्ण पहल बन गया है. इसका एक बड़ा लाभ यह है कि इसमें सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और यूरोपीय संघ शामिल हैं, जिनके पास निवेश करने के लिए अतिरिक्त राशि है. आइएनएसटीसी की तरह, यह स्वेज नहर मार्ग की तुलना में पारगमन समय को 40 प्रतिशत और माल ढुलाई लागत को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है.

भारत के पूर्वी तट से माल जहाज के माध्यम से अरब प्रायद्वीप तक पहुंचेगा, जहां से इसे सड़क और रेल नेटवर्क के माध्यम से यूरोप तक पहुंचाया जायेगा. भारत के मध्य पूर्व और यूरोप के देशों के साथ उत्कृष्ट व्यापारिक संबंध हैं. यह तीनों क्षेत्रों के लिए लाभप्रद स्थिति हो सकती है. यह व्यापार को बढ़ायेगा और रोजगार के अवसर प्रदान करेगा. भू-राजनीति के संदर्भ में, यह छोटे देशों को आकर्षित कर सकता है जो बीआरआइ पर बहुत अधिक निर्भर हो गये हैं.

हालांकि, चीन के बीआरआइ का मुकाबला करने की दिशा में यह एक छोटा कदम है. चीन ने पूरी दुनिया में अपना जाल फैला रखा है. भारत को अभी ऐसी कई अन्य परियोजनाओं की आवश्यकता है, और इनमें सबसे महत्वपूर्ण बात उनका त्वरित क्रियान्वयन करने की होगी. पश्चिम और भारत परियोजनाओं को क्रियान्वित करने में धीमे रहे हैं, जिससे दुनिया में गलत संकेत जाता है.

भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर से तीन क्षेत्रों में अत्यंत आवश्यक भू-रणनीतिक सामंजस्य और भू-आर्थिक गतिशीलता की शुरुआत हो सकती है. इससे बहुत सारे देशों को चीन के प्रभाव में आने से बचाया जा सकता है. इससे छोटे देशों के पास ऐसे विकल्प होंगे जो पहले मौजूद नहीं थे. भारत को इन परियोजनाओं में तेजी लानी चाहिए और नीति निर्माताओं को इनमें निवेश को रणनीतिक प्राथमिकता के रूप में देखना चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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