प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ्रांस दौरे में हुए महत्वपूर्ण समझौतों से पहले वायुसेना को फ्रांस से 36 रफाल विमान ऐसे समय मिले, जब हमें इनकी सख्त जरूरत थी. तीन साल पहले पूर्वी लद्दाख में चीन की हरकतों के बाद रफाल के आने से उसे समझ आ गया कि भारत की सैन्य शक्ति बढ़ गयी है. इसी तरह अभी तीन और स्कॉर्पीन पनडुब्बियों की खरीद का जो समझौता हुआ है, उससे भी चीन को एक संदेश गया है.
चीन दक्षिण-चीन सागर और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश करता रहा है. दक्षिण-चीन सागर के लगभग 90 फीसदी हिस्से पर उन्होंने नियंत्रण कर लिया है. वहीं हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फिलीपींस, वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देश चीन की बढ़ती ताकत देख उसके खिलाफ कुछ बोलने से बचते हैं. ऐसी स्थिति में भारत के लिए समुद्री जल क्षेत्र में भी क्षमता बढ़ाना जरूरी है. भारत को अभी 30 पनडुब्बियों की जरूरत है.
फ्रांस के साथ हुए सौदे के बाद भारत के पास 16 से 18 पनडुब्बियां हो जायेंगी. इनसे भारत की रक्षात्मक शक्ति बढ़ेगी. ऐसे में, फ्रांस से पहले मिले 36 रफाल और अब तीन और स्कॉर्पीन पनडुब्बियों का सौदा काफी महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री के फ्रांस के दौरे से पहले 26 और रफाल विमानों के सौदे की चर्चा थी. हालांकि, संभवतः कीमत को लेकर मोल-तोल की वजह से उस पर अंतिम मुहर नहीं लगी है, मगर बातचीत चल रही है और सौदे को डीएसी यानी रक्षा अधिग्रहण परिषद से मंजूरी मिल गयी है. साथ ही, फ्रांस ने अपने ऐसे दो-तीन रफाल ट्रेनिंग के लिए देने का प्रस्ताव रखा है, जिससे उम्मीद है कि ये विमान भारत को जरूर मिलेंगे.
ये 26 नये विमान मरीन रफाल हैं, यानी नौसेना के लिए हैं, जो विमानवाहक युद्धपोत विक्रांत के लिए आयेंगे. ये खास जहाज बहुत छोटी हवाई पट्टी से उड़ान भर सकते हैं. ये हल्के भी हैं और मजबूत भी. इनके विंग्स फोल्डेबल हैं. ये केवल 10 मीटर जगह घेरते हैं. इनकी तुलना में, अभी जिन मिग-29 विमानों का इस्तेमाल होता है, वे 13 मीटर जगह लेते हैं. ऐसे में, विक्रांत पर ज्यादा संख्या में युद्धक विमानों को तैनात किया जा सकेगा.
वायुसेना के एक स्क्वाड्रन में 18 विमान होते हैं. नये 26 विमानों में 18 विमान विक्रांत पर तैनात रहेंगे. अन्य विमान गोवा में रहेंगे, जिन पर ट्रेनिंग दी जायेगी. इनसे स्थल और समुद्री मोर्चे पर भारत की सैन्य क्षमता बढ़ेगी. फ्रांस और भारत के बीच पांच साल पहले समुद्री मोर्चे से संबंधित एक रणनीतिक साझेदारी हुई थी. इनके तहत हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में मौजूदगी बढ़ायी जानी है, क्योंकि चीन वहां अंतरराष्ट्रीय नियमों को लगातार तोड़ता रहा है.
इसी संधि के तहत भारत को स्कॉर्पीन पनडुब्बियां मिली हैं, जो काफी गहराई में हफ्ते-दस दिन तक रह सकती हैं. ये जहाजों और टॉरपीडो को नष्ट कर सकती हैं. ऐसे में जब ये पनडुब्बियां भारत के आस-पास हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में गश्त लगाती हैं, तो चीन के भारत को समुद्र में घेरने की रणनीति के खिलाफ एक सुरक्षा कवच तैयार होता है.
चीन एक ओर श्रीलंका के हंबनटोटा में, तो दूसरी ओर पाकिस्तान के ग्वादर में या फिर म्यांमार के पास कोको द्वीप पर पैर जमाकर भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. दरअसल, किसी भी तरह की सुरक्षा के लिए आंख और कान खुला रखना बहुत जरूरी है. मगर, समुद्र का क्षेत्र बहुत बड़ा होता है. इस काम में स्कॉर्पीन पनडुब्बियों और रफाल के मरीन युद्धक विमानों से बहुत मदद मिलेगी.
स्कॉर्पीन सौदे का एक और लाभ यह है कि इन्हें हम खुद बनायेंगे. मझगांव डॉक शिपयार्ड लिमिटेड में पहले से ही कई सालों से छह पनडुब्बियां बन रही हैं और उनके बनने के बाद वहां तीन और पनडुब्बियों को बनाया जायेगा. इससे उनका कौशल और क्षमता बढ़ेगी, जिसका फायदा होगा, क्योंकि भारत को 30 पनडुब्बियों की जरूरत है और अभी हमारे पास 16-18 पनडुब्बियां ही हैं.
साथ ही, भारत ने फ्रांस की एक बड़ी विमान इंजन निर्माता कंपनी साफरान के साथ साझा-उत्पादन का एक समझौता किया है. इसके तहत डबल इंजन वाले एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट या एएएमसीए और इंडियन मल्टीरोल हेलिकॉप्टर या आइएमआरएच के इंजन भारत में बनाये जायेंगे. ये पांचवीं और छठी जेनरेशन के अत्याधुनिक इंजन हैं यानी ये पूरी इक्कीसवीं सदी तक सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं.
पिछले महीने प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान अमेरिकी कंपनी जीई के साथ तेजस विमानों के जी-413 इंजन के भारत में ही साझा-निर्माण के लिए समझौता हुआ था. उसमें तकनीक के 80 फीसदी ट्रांसफर पर सहमति हुई थी, मगर फ्रांसीसी कंपनी के साथ समझौते में 100 प्रतिशत तकनीक ट्रांसफर होगी, यानी इंजन बनाने की पूरी तकनीक भारत के साथ साझा की जाएगी.
तकनीक ट्रांसफर का विषय काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि एक बार विमान या सैन्य साजो-सामान मिल गये, तो उनके नियमित रखरखाव और मरम्मत की आवश्यकता होती है. अभी रफाल और अन्य साजो-सामान देने वाली कंपनियां भारत में ही प्लांट लगायेंगी, जिससे भारत की आत्मनिर्भरता बढ़ेगी. सह-उत्पादन का मतलब है कि ये विमान और इंजन भारत में ही बनेंगे. ऐसे में, भारत रक्षा-उत्पादों का निर्यातक भी बन सकेगा. (बातचीत पर आधारित).
(ये लेखक के निजी विचार हैं)