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खेलों की दुनिया में आगे बढ़ता भारत

नीरज चोपड़ा और विश्वनाथन आनंद ने क्रमश: एथलेटिक्स और शतरंज की शक्ल बदल दी है. नीरज के पिछले ओलंपिक में जेवेलिन थ्रो का स्वर्ण पदक जीतने का ही कमाल है कि बुडापेस्ट में विश्व एथलेटिक्स की जेवेलिन स्पर्धा के फाइनल में भारत के तीन खिलाड़ियों ने जगह बनायी.

मनोज चतुर्वेदी

टिप्पणीकार

chaturvedi.manoj23@gmail.com

हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद का जन्मदिन 29 अगस्त देश में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. ध्यानचंद के खेल हॉकी में दशकों रसातल में रहने के बाद हम फिर से अपनी पुरानी पहचान मजबूत करने में सफल हो गए हैं. यह 2020 के टोक्यो ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने से संभवन हुआ, जब भारत ने 41 सालों बाद हॉकी में पदक जीता था. भारतीय खिलाड़ियों के डेढ़-दो दशकों के प्रदर्शनों पर नजर डालें तो अब राष्ट्र को एथलेटिक्स, निशानेबाजी, मुक्केबाजी, कुश्ती, शतरंज और तीरंदाजी जैसे खेलों में सफलता मिलने लगी है.

पिछले दिनों भारतीय शटलर एचएस प्रणय ने विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता. पिछले सालों में पीवी सिंधु, सायना नेहवाल, लक्ष्य सेन जैसे कई खिलाड़ी भी बैडमिंटन में पदक जीतते रहे हैं. निशानेबाजी की पिछले दिनों बाकू में हुई आइएसएसएफ विश्व चैंपियनशिप में भी भारत ने छह स्वर्ण पदक सहित 14 पदकों पर कब्जा जमाया. इसी तरह शतरंज, कुश्ती, मुक्केबाजी और तीरंदाजी में भी भारत का झंडा नजर आता रहा है. पर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सफलता का परचम लहराने वाले भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक जैसे बड़े खेलों में क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं.

इसलिए नीरज चोपड़ा के टोक्यो ओलंपिक में जेवेलिन थ्रो में गोल्ड मेडल जीतने पर देश में जश्न का माहौल बन जाता है. स्वतंत्रता पाने के बाद यह एथलेटिक्स में भारत का पहला स्वर्ण पदक था. इससे पहले देशवासियों को मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा के मामूली अंतर से पदक पाने से रह जाने से ही तसल्ली करनी पड़ती थी.

पिछले ओलंपिक में भारत के एक स्वर्ण और दो रजत सहित कुल सात पदक जीतने पर देश में बहुत ही उत्साह का माहौल बना था. पर सोचने की जरूरत यह है कि क्या 140 करोड़ की आबादी वाले देश को इस तरह के प्रदर्शन से संतुष्ट हो जाना चाहिए. अच्छा तो यह हो कि भारतीय खेलों के संचालक पहले ओलंपिक में टॉप दस में शामिल होने का लक्ष्य बनाएं. इसके लिए बहुत कवायद करने की जरूरत नहीं होगी. भारत यदि 10 गोल्ड सहित तीन दर्जन पदक जीतने का लक्ष्य बनाए तो इसे हासिल किया जा सकता है. भारतीय निशानेबाज, मुक्केबाज, तीरंदाज और पहलवान यदि अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन कर सकें तो यह लक्ष्य पाना मुश्किल नहीं है.

भारत के खेल महाशक्ति नहीं बन पाने के पीछे एक वजह यह भी है कि हमारे यहां एक समग्र खेल संस्कृति का अभाव रहा है. लेकिन पिछले एक दशक से बदलाव आता दिख रहा है. असल में हमारे यहां स्कूल और कॉलेज स्तर पर खेल जमाने से होते रहे हैं. लेकिन इस स्तर पर चमक बिखेरने वाले खिलाड़ियों को आगे तैयार करने का ढांचा ही नहीं था. हालांकि, अब पिछले कुछ सालों से ‘खेलो इंडिया’ जैसी योजनाओं के माध्यम से इन प्रतिभाओं को विकसित किया जा रहा है.

इन खेलों में प्रतिभा प्रदर्शित करने वाले 1000 खिलाड़ियों को पांच लाख रुपये प्रति वर्ष देने की व्यवस्था की गयी है और यह सिलसिला आठ सालों तक चलेगा. इस तरह से प्रतिभाओं को विकसित करने में आसानी होगी. यह अभी शुरुआत भर है, मगर इसे सही दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है. युवाओं को आमतौर पर कुछ कर गुजरने के लिए किसी की प्रेरणा मिलना जरूरी होता है. अब आप क्रिकेट को ही लें तो 1983 में कपिल देव की अगुआई में आइसीसी विश्व कप जीतने से पहले अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट जगत में भारत की कोई खास अहमियत नहीं थी.

लेकिन इस सफलता से भारतीय क्रिकेट का एकदम से कायाकल्प हो गया और आज यह हालत है कि बिना भारत की मर्जी के क्रिकेट में पत्ता भी नहीं हिलता है. इसी तरह नीरज चोपड़ा और विश्वनाथन आनंद ने क्रमश: एथलेटिक्स और शतरंज की शक्ल बदल दी है. नीरज के पिछले ओलंपिक में जेवेलिन थ्रो का स्वर्ण पदक जीतने का ही कमाल है कि बुडापेस्ट में विश्व एथलेटिक्स की जेवेलिन स्पर्धा के फाइनल में भारत के तीन खिलाड़ियों ने जगह बनायी.

ओलंपिक का कारनामा दोहराते हुए नीरज वहां स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने हैं. वहीं आनंद की सफलताओं से देश की शतरंज की शक्ल बदल गई. पिछले दिनों विश्व कप में प्रज्ञाननंदा ने फाइनल तक चुनौती पेश की, और उनके अलावा गुकेश और इरगेसी क्वार्टर फाइनल तक चुनौती पेश करने में सफल रहे.

भारतीय खिलाड़ी व्यक्तिगत खेलों में तो सालों से चमक बिखेरते रहे हैं, जैसे टेनिस में सानिया मिर्जा, लिएंडर पेस और महेश भूपति, बैडमिंटन में प्रकाश पादुकोन, पुलेला गोपीचंद, सायना नेहवाल, शूटिंग में अभिनव बिंद्रा और पहलवानी में सुशील कुमार जैसे ढेरों खिलाड़ी हैं, जिन्होंने राष्ट्र का मान बढ़ाया है. लेकिन टीम खेलों में इस तरह का प्रदर्शन कम ही देखने को मिला है. हॉकी में जरूर भारत फिर से विश्व स्तर पर आ गया है.

पर फुटबॉल, वॉलीबॉल और बास्केटबॉल जैसे खेलों में हम एशियाई स्तर पर भी कहीं नहीं ठहरते हैं. लेकिन, देश में पिछले कुछ सालों में सुविधाओं में इजाफा हुआ है. टीमों को आसानी से विदेशी कोच मुहैया हो जाते हैं और अनुभव के लिए विदेशी दौरों पर जाना भी आसान हो गया है. इन प्रयासों का परिणाम आने वाले सालों में दिख सकता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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