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सबके लिए आदर भारत की जरूरत

भारत के लिए मानवीय समान नागरिक आचार संहिता आवश्यक है. सबके लिए आदर और किसी के लिए घृणा नहीं भारत के लिए एकमात्र आधार होना चाहिए.

रबींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था, ‘अगर ईश्वर की इच्छा होती, तो वह सभी भारतीयों के लिए एक भाषा बनाता. भारत की एकता हमेशा विविधता में एकता रही है और रहेगी.’ भारत विश्व का ऊंकार है. हर चीज, जो है और होगी, की अभिव्यक्ति इसकी प्राचीन व्यापकता में गुंजित होती है, जैसे वह इसके एकत्व में व्यक्त होती है. यह एकत्व के साथ एक अरब पहचानों को एकताबद्ध करती है.

एकरूपता के माध्यम से एकता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है, बल्कि एकरंगी पहचान को थोपने से वह नष्ट हो सकती है. भारत सार्वभौमिक चेतना है, जहां अलग-अलग तत्व एक होकर बढ़ते-पनपते हैं. यह अधिकतम भाषाओं और न्यूनतम संघर्षों का देश है. क्षेत्र के हिसाब से खान-पान बदलता रहता है. देशभर में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च हैं. आस्था का यह विस्तार राष्ट्र के बहु-धार्मिक रंगों को प्रतिबिंबित करता है, जहां 75 प्रतिशत से अधिक आबादी हिंदुओं की है.

पहचान की नयी राजनीति के उभार से समरूपता गंभीर खतरे में है. भारतीय रामनवमी और रमजान, दोनों मना रहे हैं, पर कुछ तत्व अपनी हानिकारक प्रासंगिकता बनाना चाह रहे हैं. हाल में कुछ राजनेता मांस की बिक्री पर यह गलत दावा कर रोक की मांग कर रहे हैं कि इस दौरान अधिकतर हिंदू शाकाहार करते हैं. रामनवमी में बड़ी संख्या में हिंदू नौ दिन उपवास करते हैं. पहली बार रामनवमी नहीं मनाया जा रहा है.

यह उतना ही पुराना है, जितने कि भगवान राम, लेकिन पहले कभी किसी नेता ने ऐसी मांग नहीं की. दिल्ली के नगर निगमों के मेयरों ने मांस की दुकानें बंद करने के आदेश तो दिये, पर विडंबना रही है कि बूचड़खानों को पूरी तरह बंद नहीं किया गया. मांस बिक्री पर अस्थायी रोक जितनी मूर्खतापूर्ण थी, उतना ही इसका विरोध भी था. मूर्खता की हद पार करते हुए विरोधियों ने तर्क दिया कि प्याज, लहसुन और शराब पर भी रोक लगे, क्योंकि नौ दिनों तक इनके सेवन को भी अपवित्र माना जाता है.

कई हिंदू अनुदारवादियों ने दावा किया कि वे बीफ खाते हैं और मांस पर रोक का विरोध करते हैं. कुछ मुफ्तखोर भी थे, जिन्होंने भारत को बदनाम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों का इस्तेमाल किया और दावा किया कि मुस्लिम खतरे में हैं. मांस पर रोक के दौरान रमजान भी जारी था, जिसमें उपवास के बाद मुस्लिम मांसाहार करते हैं. सामाजिक तौर पर यह निराशाजनक प्रकरण भारत के लिए पहला ऐसा मौका था.

दूसरी चीज जो पहली बार हो रही है, वह यह कि हिंदुओं का एक मुखर वर्ग अपनी व्यक्तिगत आस्थाओं को दूसरों पर थोप रहा है. इसी तरह के आक्रामक मुस्लिम समूहों ने कर्नाटक में शिक्षा पर अपनी मान्यताओं को थोपने की कोशिश की. कुछ दशक पहले हिजाब मुस्लिम महिलाओं के पहनावे का हिस्सा बना, पर यह पहले कभी मुद्दा नहीं बना. रूढ़िवादी लोगों ने फैसला कर लिया कि उनकी बेटियां पढ़ाई छोड़ देंगी, पर स्कूल के ड्रेस कोड को नहीं मानेंगी. शायद ही कोई स्कूल होगा, जो छात्रों के लिए समान पोशाक पर जोर नहीं देता होगा.

ऐसे लोगों ने अदालत के फैसले को खारिज कर दिया है, लेकिन इस पर उग्र हिंदू प्रतिक्रिया भी मूर्खतापूर्ण और आश्चर्यजनक है. एक अन्य प्रकरण में कई मंदिरों के आसपास मुस्लिमों के कारोबार पर रोक लगा दी, जबकि वे दशकों से अपनी दुकानें लगा रहे थे. दैवीय उपस्थिति के अहसास के लिए हंगामा करना राजनीतिक अवसरवाद का असभ्य नियम है, जिसे आस्था के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.

कई भाजपा-शासित राज्यों ने गीता के पाठन को स्कूलों में अनिवार्य कर दिया है. गीता धार्मिक पुस्तक नहीं है, बल्कि भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद है, जो अच्छाई से बुराई से लड़ने का आंतरिक ज्ञान की नियमावली है. यह शाश्वत भारत की आत्मा है. लेकिन धर्मनिरपेक्षवादी इस पहल को अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकवाद को थोपना मानते हैं. योग का भी विरोध हुआ था, लेकिन उसकी अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता के बाद वे पीछे हट गये थे.

शहरों के नाम बदलना, पहनावे पर रोक-टोक करना और खान-पान पर पाबंदी थोपना समरूपता द्वारा एकता स्थापित करने के शायद पथभ्रष्ट प्रयास हैं. जो लोग राजनीतिक रूप से गलत प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, उनका दावा है कि तुष्टीकरण की ऐतिहासिक गलती को ठीक कर रहे हैं. मुस्लिम उपदेशक अजान की आवाज सीमित करने के अदालती आदेशों का शायद ही पालन करते हैं.

सड़कों पर शुक्रवार को नमाज पढ़ने के बढ़ते रुझान से हिंदू युवा आक्रोश में है. ऐसा मंदिरों के साथ भी है. वे भजन-कीर्तन के दौरान लाउडस्पीकरों की आवाज बढ़ा देते हैं. सौभाग्य से, सिख और ईसाई अपनी आस्था का विज्ञापन शोर से नहीं करते हैं. सत्ता के लिए राजनीतिक संघर्ष घातक खेल होता जा रहा है. किसी राजनेता ने सभी भारतीयों के लिए समान नागरिक संहिता अनिवार्य करने का कभी प्रस्ताव नहीं दिया है. वे वोट लेने के लिए इसकी मांग कर खुश रहते हैं.

धर्म एक विशेषाधिकार संपत्ति के रूप में दर्शाने के लिए नहीं है. यह एक निजी आचार है. अफसोस की बात है कि लोग केसरिया और हरा कपड़ा पहन कर दिखा रहे हैं और तलवार-त्रिशूल लेकर समुदाय का असली सिपाही होने का दावा कर रहे हैं. प्रशासन इन स्वयंभू ठेकेदारों को अनदेखा कर रहा है, जो सार्वजनिक भूमि पर अवैध धार्मिक निर्माण कर रहे हैं. असभ्य आचरण सम्मान का प्रतीक बन गया है.

बहुत पहले पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लाउडस्पीकरों, जुलूसों और अवैध निर्माण को रोकने की कोशिश की थी, पर इस बारे में जब प्रस्ताव संसद में आया, तो किसी सांसद ने उसका समर्थन नहीं किया. जिस सदस्य ने यह प्रस्ताव रखा था, उसने वरिष्ठ सांसदों और भाजपा नेताओं से सहयोग मांगा, पर वे नाकाम रहे.

तब से धार्मिक नारेबाजी करना, शास्त्रों को उद्धृत करना और भड़काऊ भाषण से राजनीतिक वैधता पाना उभरते नेताओं की आवश्यक योग्यता बन चुकी है. स्वस्थ, स्वच्छ, सुरक्षित एवं समर्थ भारत के लिए मानवीय समान नागरिक आचार संहिता आवश्यक है, जिसका पालन हर भारतीय करे. सबके लिए आदर और किसी के लिए घृणा नहीं भारत के लिए एकमात्र आधार होना चाहिए.

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