भारत-सऊदी अरब की बढ़ती करीबी
वर्ष 2006 में शाह अब्दुल्ला के भारत दौरे के बाद से दोनों देशों के संबंधों ने नया मोड़ लिया. हालांकि, तब सऊदी अरब अपने 20-25 हजार छात्रों को भारत भेजना चाहता था
भारत और सऊदी अरब के बीच पिछले 10-12 सालों से उच्चस्तरीय वार्ताएं हो रही हैं, और कूटनीतिक स्तर पर काफी बैठकें हो रही हैं. रणनीतिक स्तर पर दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध मजबूत हो चुके हैं. सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच लगभग 50 बिंदुओं का समझौता हुआ. इनमें ज्यादातर द्विपक्षीय महत्व के मुद्दे हैं, जैसे रक्षा, सुरक्षा, आतंकवाद, आइटी और तेल से जुड़े मामलों में सहयोग. लेकिन इनमें से 20-25 क्षेत्रों में खास प्रगति नहीं हुई है.
श्रमिकों की स्थिति या खाद्य सुरक्षा जैसे मामलों में वादों के बावजूद ठोस काम नहीं हुआ है. जैसे, 12 साल पहले रिफाइनरी या पेट्रोकेमिकल या अन्य क्षेत्रों में निवेश के बारे में सऊदी अरब ने जो वादे किये थे, वे पूरे नहीं हुए हैं. सऊदी अरब अभी भारत के साथ रक्षा, अंतरिक्ष और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में साझेदारी करना चाहता है जिसमें भारत ने काफी उन्नति की है. दरअसल, अमेरिका के साथ उसके संबंध खराब हैं.
ऐसे में, वह भारत और चीन के साथ अपने सहयोग बढ़ाना चाहता है. साथ ही, वह अपने तेल के बाजार को भी बनाये रखना चाहता है, क्योंकि अब दूसरे देश भी तेल बेच रहे हैं. जैसे, अमेरिका और यूरोपीय संघ का दबाव कम होने के बाद ईरान भी तेल निर्यात कर रहा है. उधर, भारत रूस से भी तेल आयात कर रहा है. ऐसे में सऊदी अरब को चिंता रहती है कि कहीं भारत उन देशों से ज्यादा तेल ना खरीदने लगे, जो रियायत देते हों.
सऊदी अरब भारत से तकनीकी पेशेवर लोगों की सेवाओं के लिए भी सहयोग चाहता है. सऊदी अरब में अभी 25 लाख से ज्यादा भारतीय काम कर रहे हैं, लेकिन उनके यहां उच्च कौशल वाले काम अमेरिका और यूरोप के लोग ज्यादा करते रहे हैं. भारतीय लोग वही काम आधे वेतन में कर देते हैं. इन वजहों से सऊदी अरब पूर्व की ओर देख रहा है, और उनमें भी चीन के मुकाबले भारत के प्रति उनका झुकाव ज्यादा है, क्योंकि अमेरिका को सऊदी अरब का चीन के करीब जाना अच्छा नहीं लगेगा.
जी-20 बैठक में भारत को मध्य पूर्व के रास्ते यूरोप तक जोड़ने वाले गलियारे पर हुआ समझौता चीन के बीआरआइ प्रोजेक्ट को निष्प्रभावी बनाने का एक अच्छा प्रयास है. पर इसके लिए अधिक से अधिक देशों का सहयोग चाहिए, क्योंकि किसी भी एक देश की वजह से मामला अटक सकता है. जैसे, सऊदी अरब में क्राउन प्रिंस सलमान जो भी फैसले ले रहे हैं, वह अपने पूरे खानदान से अलग जाकर एकतरफा ले रहे हैं. वह चाहे अमेरिका, या इजराइल, या चीन, या भारत के साथ संबंधों की बात हो, वह एकतरफा फैसले कर रहे हैं.
वहां पूरे परिवार की सहमति लेने की परंपरा टूट गयी है. ऐसे में उन्हें आगे चलकर परिवार का कितना समर्थन मिलता है, इस पर सवालिया निशान लगा रहेगा. भारत, अमेरिका, यूरोपीय देश और इजराइल जैसे देशों में राजनीतिक स्थिरता रहती है, मगर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश अलग हैं, जहां एक ही व्यक्ति बड़े निर्णय लिया करता है. इसके अलावा, आर्थिक गलियारे से तीन देश नाराज भी हो सकते हैं.
मिस्र की अर्थव्यवस्था स्वेज नहर पर निर्भर करती है और गलियारे से उसका कारोबार प्रभावित हो सकता है. दूसरा, रूस-ईरान के रास्ते जानेवाले गलियारे पर भी इसका असर पड़ सकता है. और तीसरा देश तुर्की है, जो चाहता है कि एशिया और यूरोप के बीच कोई भी संपर्क उसको अहमियत दिये बिना पूरा नहीं हो सके. भारत के लिए इन देशों के साथ संबंध अच्छे हैं, इसलिए उसे फूंक-फूंक कर कदम उठाना होगा.
सऊदी अरब के साथ संबंध मजबूत करने की कोशिशें इंदिरा गांधी की सरकार के जमाने से हो रही हैं, जब 1982 में उन्होंने सऊदी अरब का चार दिन का दौरा किया. तब ईरान-इराक युद्ध की वजह से चिंतित सऊदी अरब, भारत से सैन्य मदद चाह रहा था. लेकिन, वह संभव नहीं हो सका. बाद में, सऊदी शासक शाह फहद ने भी कुछ पहल की, लेकिन पाकिस्तान और अमेरिका से उनके संबंध जैसे कारणों की वजह से तब भी प्रगति नहीं हो सकी. वर्ष 2006 में शाह अब्दुल्ला के भारत दौरे के बाद से दोनों देशों के संबंधों ने नया मोड़ लिया.
हालांकि, तब सऊदी अरब अपने 20-25 हजार छात्रों को भारत भेजना चाहता था, लेकिन भारत सरकार ने सऊदी अरब के पाकिस्तान के साथ गहरे सैन्य संबंध होने को कारण बताकर इसकी अनुमति नहीं दी. मौजूदा समय में दोनों देशों के बीच संबंध मजबूत लग रहे हैं, क्योंकि दोनों के लिए आर्थिक संबंध ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं. लेकिन, यहां ध्यान रखना होगा कि सऊदी अरब में किसी सरकार को असल समर्थन तेल की अर्थव्यवस्था से नहीं, इस्लामी ताकतों से मिलता है. ऐसे में वहां के उलेमा, कट्टर वहाबी मुस्लिम समुदाय, प्रेस और आम लोग भारत के साथ संबंध को किस रूप में लेते हैं यह महत्वपूर्ण होगा.
सऊदी अरब के संदर्भ में यह भी ध्यान में रखना होगा कि वह चीन समेत कई और देशों से भी करीबी संबंध रखता है. उसने चीन की मदद से ईरान के साथ संबंध सामान्य किये हैं. रूस के साथ भी तेल की कीमतों को तय करने को लेकर भी उनके संबंध हैं. ऐसे ही वह अमेरिका के साथ रक्षा, परमाणु और अन्य क्षेत्रों में सहयोगी संबंध बनाना चाहता है. यह आज की बहुध्रुवीय दुनिया की कूटनीति की वास्तविकता दिखाता है. जैसे, सऊदी अरब चीन के साथ संबंध रख अमेरिका के साथ सौदेबाजी करता है, कि यदि उसने उसे परमाणु रिएक्टर नहीं दिये, तो वह चीन से ले लेगा.
ऐसे ही, वह भारत के साथ भी सौदेबाजी कर सकता है कि यदि भारत ने उससे तेल नहीं लिया, तो वह चीन को दे देगा. ऐसे ही वह चीन से भी हथियार लेता है, और भारत के साथ भी रक्षा सहयोग करना चाहता है. दरअसल, सऊदी अरब का असल लक्ष्य अमेरिका के साथ संतुलन बनाना है, क्योंकि अमेरिका का उस पर गहरा प्रभाव है. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने सऊदी अरब के अपने दौरे में यहां तक कह दिया था कि अमेरिका ने समर्थन बंद कर दिया तो सऊदी अरब में एक सप्ताह में तख्तापलट हो जायेगा. तब इस बयान पर काफी हंगामा मचा था. सऊदी अरब भारत और चीन जैसे देशों के साथ संबंधों को मजबूत बनाकर असल में अमेरिका के साथ संतुलन स्थापित करना चाहता है. वह अमेरिका के शिकंजे से बाहर निकलना चाहता है.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)