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भारतीय हो पूंजीवादी मॉडल

पूंजीवाद के गढ़ के रूप में स्थापित लंदन में राष्ट्रीय आफत के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आइसीयू में थे. कोविड-19 के खतरनाक प्रसार से मंत्री, हॉलीवुड अभिनेता, रॉक स्टार, राजपरिवार व बेहद अमीर भी नहीं बच पाये. शहरी अभिजात्य वर्ग का प्रतिरक्षा स्तर सभी मौसमी बदलावों के लिए उपयुक्त नहीं है.

By प्रभु चावला | April 28, 2020 7:50 AM

प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर,

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

prabhuchawla @newindianexpress.com

नव सभ्यता का इतिहास बताता है कि समाज जितना समृद्ध रहा है, संपन्नता और असंपन्नता के बीच खाईं उतनी ही चौड़ी रही है. सामाजिक मॉडल और मेडिकल चमत्कारों को जांचने के लिए प्रतिकूलता और आपदा सबसे घातक प्रयोगशाला हैं. कोरोनाकाल का अभिशाप है कि सर्वोत्तम उपचार विधाएं भी इस छली आक्रांता को निष्क्रिय करनेमें असफल रही हैं. इस वायरस ने विज्ञान और अर्थव्यवस्थाओं को निरुपाय कर दिया है. जब पूंजीवाद का बाजार मॉडल अव्यवस्थित और ध्वस्त हो रहा है, कल्याणकारी आर्थिकी एकमात्र विश्वसनीय उपाय के तौर पर उभरी हैं. संक्रमितों की सर्वाधिक संख्या और मौतें समृद्ध और शक्तिशाली न्यूयार्क में हो रही हैं.

अमेरिका ही कोविड-19 की ट्रॉफी में शीर्ष पर नहीं है. वायरस की भौगोलिक पहुंच दर्शाती है कि इससे 90 प्रतिशत से अधिक शिकार न्यूयार्क से लेकर नयी दिल्ली तक चकाचौंध वाले शहरों में रहते हैं. लगभग हर तीसरा मामला अमेरिका से जुड़ा है. इसके मुक्त बाजार और पूंजीवाद का सहयोगी यूरोप संपन्नता और विलासिता का कब्रिस्तान बन चुका है. पूंजीवाद के गढ़ के रूप में स्थापित लंदन में राष्ट्रीय आफत के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आइसीयू में थे. कोविड-19 के खतरनाक प्रसार से मंत्री, हॉलीवुड अभिनेता, रॉक स्टार, राजपरिवार व बेहद अमीर भी नहीं बच पाये. शहरी अभिजात्य वर्ग का प्रतिरक्षा स्तर सभी मौसमी बदलावों के लिए उपयुक्त नहीं है.

पूंजीवाद के अतिशय प्रभाव ने धन-आधहरित सामाजिक अंतरंगता को तेजी से बढ़ाया है. भीडभाड़ वाले सभागारों, तकनीकी पार्कों, स्टॉक मार्केट और विशाल मनोरंजन व खेल आयोजन वायरस के लिए हॉटस्पॉट रहे हैं. गले मिलना व चूमना आपसी जुड़ाव और संबंधों को बरकरार रखने के प्रतीक बन चुके थे. सामाजिक और आर्थिक प्रभावशाली लोगों के लिए उच्च जीवनशैली बनाये रखने हेतु अपेक्षाकृत आसान सहयोगी तंत्र की आवश्यकता थी. यह कर्मचारियों और अकुशल श्रमिकों द्वारा उपलब्ध करायी जाती थी, जो बेहतर जीवन और धन की आस में उन केंद्रों तक पहुंचते थे. चूंकि वे अच्छे आवास के लिए सक्षम नहीं थे, ऐसे में बड़ी संख्या में प्रवासियों ने झुग्गी-झोपड़ियों में आसरा लिया, जहां स्वास्थ्य और मानवीय सुविधाएं न्यूनतम थीं. पिछले 100 वर्षों में सभी बड़े शहरों में ऐसे लोगों की तदाद बढ़ गयी.

आंकड़ों से स्पष्ट है कि छोटे कस्बे और गांव या अप्रभावित हैं या वहां बहुत कम असर रहा है. वायरस ने भारत को आर्थिक और सामाजिक दीनता का क्रूर पाठ पढ़ाया है. अगर डेढ़ अरब की आबादी वाला चीन वायरस के प्रसार को रोक सकता है, तो भारत वायरस को मात देने की बेहतर स्थिति में है. प्रति 10 लाख पर विश्व में संक्रमण के न्यूनतम मामलों के साथ हम अभी नियंत्रण में हैं. लेकिन, इसके प्रसार का खास पैटर्न है. कोविड-19 के खतरनाक प्रसार ने शहरी भारत को अधिक प्रभावित किया है. देश में साढ़े छह लाख गांवों में से 50 प्रतिशत से भी कम पर इसकी छाया पड़ी है. महानगरों से दूर 1950 के दशक में बड़े उद्योग ग्रामीण भारत में स्थापित हुए थे. जब कॉरपोरेट ने अपना व्यापार विस्तार किया और निर्णय पर नियंत्रण बढ़ाया, तो बड़े शहर आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बनते गये. उनकी जीवनशैली ने व्यावसायों के विकास के लिए महंगे बुनियादी ढांचे के निर्माण की शुरुआत की. बेहतर यातायात संपर्कों के साथ शहरों में पूंजी निवेश किया गया.

भव्य रात्रिभोज, खास शराब और शानदार खान-पान जैसी आसमानी इच्छाओं की पूर्ति के लिए गांवों से श्रमिकों को लाया गया. ग्रामीण भारत प्रतिकूल दरों पर अनाज उपलब्ध कराने का जरिया भर रह गया. कुछ दशक पहले सकल घरेलू उत्पादन में 50 प्रतिशत का योग देनेवाला यह क्षेत्र अब मात्र 16 प्रतिशत पर आ गया. केवल शहरी क्षेत्र में संचालित सेवा क्षेत्र जीडीपी में 55 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है. यहां तक विनिर्माण क्षेत्र भी सिमट गया. बढ़ते शहरी धनाढ्यों की लालची मांगों को पूरा करने के लिए गांवों और छोटे शहरों के बेरोजगार युवा महानगरों में पहुंचे, जिससे वहां आबादी का बोझ बढ़ा.

पांच सितारा होटल, मॉल, आइआइटी, आइआइएम और गगनचुंबी इमारतें गांवों से आनेवाले उन लोगों के पसीने और कठोर श्रम पर तैयार हुईं, जहां शुद्ध पेयजल, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत जरूरतें सपने की तरह हैं. शारीरिक प्रतिरक्षा एकतरफा विकास की सबसे पहला शिकार बनी. कोरोना के आंकड़े देखें, तो कुल 19,000 सक्रिय मामलों में अकेले मुंबई से 4,500 और दिल्ली से 1600 से अधिक हैं. ये शहर प्रति व्यक्ति आय में सबसे ऊपर हैं और जीडीपी के मामले में भी शीर्ष राज्य हैं.

भारत के गांव गरीब हो सकते हैं, लेकिन स्वस्थ दिखते हैं. मेडिकल शोधों में दावा किया गया है कि ग्रामीण भारत ने कई जीवनशैली की बीमारियों को मात दी है. आज भारत को अपने तरह के पूंजीवाद और बाजार मॉडल की आवश्यकता है. भीड़ को कम और व्यवस्थित करते हुए क्रमिक और तर्कसंगत ढंग से शहरीकरण को रोकने की शुरुआत होनी चाहिए. पूंजी का प्रवाह गांवों की तरफ होना चाहिए, जहां भीड़ कम है और सामाजिक व भौतिक दूरी भी पर्याप्त है. नये उद्यमियों को उन छोटे शहरों व गांवों का रुख करना चाहिए, जहां जनघनत्व बहुत कम है. पहले से ही भीड़ से जूझते शहरों में झोपड़पट्टी बनाने के बजाय धन का प्रवाह ग्रामीण भारत के जीवन एवं आर्थिक गतिविधियों हेतु स्वच्छ स्थान बनाने के लिए हो.

उभरते भारत को गति देने के लिए जनसांख्यकीय और आर्थिक ढांचे में बदलाव की जरूरत है. चूंकि 50 प्रतिशत से अधिक भारत गांवों में है, उनके हाथों में पैसा पहुंचने से उच्च मांग पैदा होगी, जिससे भारतीय पूंजीवादी मॉडल बनेगा और विकसित होगा. शहरों से ग्रामीण भारत की तरफ पूंजी का उलटा प्रवाह ही मार्क्सवादी कहावत को गलत साबित करेगा- ‘पूंजीवाद के लिए युद्ध और शांति दोनों व्यापार हैं और व्यापार के अलावा कुछ नहीं.’ कोरोना आपदा को धन उगाहने का जरिया बनाने से पश्चिमी पूंजीवाद को रोकना है. समृद्धि और खुशहाली का नया मंत्र बनाने के लिए यह प्रतिकूलता एक अवसर होना चाहिए. ग्रीक पौराणिक देवी नेमेसिस, जो अभिजात वर्ग के घमंड को चूर करती हैं, एक अलग अवतार में कोविड हो सकती है. क्या इतिहास खुद को दोहरायेगा, कम से कम गांव तो बदलने चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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