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Ashwini Vaishnav Opinion : एक सूत्र में जोड़ता है भारतीय सिनेमा

भारतीय सिनेमा के महत्व पर प्रकाश डाल रहे हैं केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण, रेलवे तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव.

By अश्विनी वैष्णव | October 10, 2024 11:52 AM
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भारतीय सिनेमा की सार्वभौमिकता इसे राष्ट्रीय एकता की एक मजबूत शक्ति बनाती है. राज कपूर की ‘श्री 420’ जैसी शास्त्रीय फिल्म से लेकर मणिरत्नम की ‘रोजा’ तक भारतीय फिल्में भावनाओं की भाषा बोलती हैं, जिसे हर कोई समझता है. एमएस सथ्यू की ‘गरम हवा’ और बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फिल्में हमें याद यह दिलाती हैं कि संघर्ष, प्रेम एवं जीत की कहानियां किसी सीमा से बंधी नहीं हैं और यह साबित करती हैं कि सिनेमा सही अर्थों में देश में एक जोड़ने वाली शक्ति है.

प्रख्यात फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने लोगों को एक सूत्र में बांधने की सिनेमा की शक्ति के सार को पकड़ते हुए कहा था, ‘सिनेमा एक सार्वभौमिक भाषा बोलता है.’ अपनी व्यापक भाषाइ एवं सांस्कृतिक विविधता के साथ भारतीय सिनेमा देश के हर कोने के लोगों को एक साथ लाता है, जिससे उन्हें एक जैसी भावनाओं एवं अनुभवों को साझा करने का मौका मिलता है. चाहे वह तमिल हो या हिंदी की लोकप्रिय फिल्म या फिर विशुद्ध मराठी फिल्म, सिनेमा हमारे बीच की खाई को पाटते और हमें ‘सभी मतभेदों के बावजूद, हम एक हैं’ की याद दिलाते हुए अपनेपन की गहरी भावना को बढ़ावा देता है.
भारतीय सिनेमा की सार्वभौमिकता इसे राष्ट्रीय एकता की एक मजबूत शक्ति बनाती है.

राज कपूर की ‘श्री 420’ जैसी शास्त्रीय फिल्म से लेकर मणिरत्नम की ‘रोजा’ तक भारतीय फिल्में भावनाओं की भाषा बोलती हैं, जिसे हर कोई समझता है. एमएस सथ्यू की ‘गरम हवा’ और बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फिल्में हमें याद यह दिलाती हैं कि संघर्ष, प्रेम एवं जीत की कहानियां किसी सीमा से बंधी नहीं हैं और यह साबित करती हैं कि सिनेमा सही अर्थों में देश में एक जोड़ने वाली शक्ति है. यह सिनेमा की सार्वभौमिकता ही है, जिसका उत्सव राष्ट्रपति द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्मों, निर्देशकों और अभिनेताओं को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित किये जाने के साथ हर वर्ष मनाया जाता है. यह कहानीकारों, कहानी कहने वालों और कहानी प्रस्तुत करने वालों की प्रतिभा की एक गरिमापूर्ण स्वीकृति है. यह भारत की भाषाओं और बोलियों की भव्य एवं बहुरंगी विविधता की भी एक गरिमामयी पुष्टि है, जो मिलकर इस महान राष्ट्र की एकता का जादुई ताना-बाना बुनती है.

राष्ट्रीय पुरस्कारों की विशिष्टता इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार पाने वाली फिल्मों में तिवा भाषा की ‘सिकैसल’ (काश सिर्फ पेड़ ही बोल पाते) भी शामिल है. यह तिवा लोगों, जो एक तिब्बती-बर्मी जातीय समूह के सदस्य हैं, की भाषा है. ये लोग भारत के उत्तर-पूर्व, बांग्लादेश एवं म्यांमार में रहते हैं. इस वर्ष के 70वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए सरकार को फीचर फिल्म की श्रेणी में 32 विभिन्न भाषाओं की 309 और गैर-फीचर श्रेणी में 17 भाषाओं की 128 फिल्में प्राप्त हुईं. फीचर फिल्म की श्रेणी में स्वर्ण कमल पुरस्कार चार भाषाओं की फिल्मों ने जीता. इनमें से एक हरियाणवी भाषा में थी. इस श्रेणी में हिंदी और तमिल की पांच-पांच फिल्मों ने रजत कमल पुरस्कार जीता. मलयालम, गुजराती, कन्नड़, हरियाणवी और बांग्ला भाषा की फिल्मों ने भी पुरस्कार जीता. संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं की दस फिल्मों को भी रजत कमल पुरस्कार प्रदान किया गया. हिंदी और उर्दू में रिलीज हुई एक फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ गैर-फीचर फिल्म श्रेणी का स्वर्ण कमल पुरस्कार जीता.

भाषाइ राजनीति के शून्यवादी चाहे जो तर्क दें, पर तथ्य यह है कि भाषाइ राज्यों के साथ भारतीय गणराज्य के निर्माण के लगभग 75 वर्ष बीत जाने के बाद अतीत की बाधाएं पिछले कुछ दशकों के दौरान काफी हद तक समाप्त हो गयी हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि बॉलीवुड की फिल्मों ने हिंदी को व्यापक रूप से स्वीकार्य बना दिया है. यह भारतीय समाज के विविध पहलुओं पर फिल्मों का केवल एक बड़ा प्रभाव है. इसका दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की विविधता में एकता की एक गहरी एवं स्थायी भावना को बढ़ावा देते हुए लोगों को ‘अन्य’ भाषाइ समूहों एवं पहचानों के बारे में जागरूक करना है. यह सही है कि इसके अति प्रयोग ने इसकी गरिमा को धूमिल किया है.

भारतीय सिनेमा अकल्पनीय रूप से उन रचनाकारों के व्यापक समुदाय की कलाओं को प्रदर्शित करता है, जो विविध प्रकार की राजनीति, समाजों एवं संस्कृतियों के बीच सार्वभौमिक मान्यताओं तथा उस निर्विवाद चीज, जिसे हम एक इकाई के तौर पर लोगों के रूप में तथा लोगों को एक राष्ट्र के रूप में बांधने वाली नैतिकता एवं नैतिक मूल्य कहते हैं, पर आधारित जादुई मनोरंजन का सृजन करने के लिए अपनी प्रतिभा को एक साथ लाते हैं. वास्तव में, कोई भी भारतीय कहानी उन सार्वभौमिक तत्वों के बिना कभी नहीं कही गयी है, जो रीति, मूल्यों और नैतिकता पर जोर न देती हों तथा जिन्हें केवल फिल्म निर्माताओं और दर्शकों की पारखी दृष्टि ही समझ सकती हैं. अब तक सुनायी गयीं दो सबसे बड़ी कहानियां- रामायण और महाभारत- इसकी पुष्टि करती हैं.

हमारे सिनेमा का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू वह सहजता है, जिसके साथ हमारे निर्माता सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विघटन के मूल में मौजूद विभाजनकारी चिह्नों को मिटा देते हैं. यही भारत की कहानी कहने की कला की अनूठी ताकत भी है. चाहे कला फिल्में हों, लोकप्रिय फिल्में हों, व्यावसायिक फिल्में हों या ओटीटी फिल्में हों, हम एक साथ प्रभावित होते हैं, एक साथ तालियां बजाते हैं और एक साथ उत्सव मनाते हैं. तेलुगू फिल्म ‘आरआरआर’ का गाना ‘नाटू नाटू’, जिसने ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब जीता है, भाषा, जातीयता और राष्ट्रीयता के बंधनों से परे जाकर भारत में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में सुपरहिट हुआ.

भारतीय सिनेमा को वैश्विक मंच पर ऊंचा उठाने के लिए सरकार तीन मुख्य स्तंभों पर ध्यान केंद्रित कर रही है- प्रतिभा की मजबूत पाइपलाइन विकसित करना, फिल्म निर्माताओं के लिए बुनियादी ढांचे को बढ़ाना और कहानीकारों को सशक्त बनाने के लिए प्रक्रियाओं को सरल बनाना. सरकार ने हाल में भारतीय रचनात्मक प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइसीटी) की स्थापना की घोषणा की है, जो हमारी प्रतिबद्धता को दर्शाता है और यह सुनिश्चित करता है कि भारतीय सिनेमा नवीनतम तकनीकों, तल्लीन कर देने वाले अनुभवों और संवादात्मक मनोरंजन को अपनाने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकीकरण एवं वैश्विक मनोरंजन के क्षेत्र में एक मजबूत शक्ति बना रहे.

जब हम भविष्य की ओर देखते हैं, ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के विचार के संदर्भ में सिनेमा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. तेजी से विकसित होती दुनिया में, भारतीय सिनेमा लगातार नवप्रवर्तन करते हुए अपने क्षितिज का विस्तार कर रहा है और ऐसी कहानियां कह रहा है, जो न केवल हमारी विविधता को दर्शाती हैं, बल्कि एक साझा भविष्य की कल्पना भी करती हैं. हर फ्रेम के साथ भारतीय निर्माता यह सुनिश्चित करते हुए कहानी कहने की सीमाओं को आगे बढ़ा रहे हैं कि सिनेमा एक सूत्रबद्ध एवं दूरदर्शी भारत में एकता और प्रगति का एक शक्तिशाली उत्प्रेरक बना रहे.

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