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भारतीय अर्थव्यवस्था के विस्तार की जरूरत

Indian economy : भारतीय अर्थव्यवस्था की तरक्की और उसकी चुनौतियों पर हो रही चर्चाओं के बाद से आर्थिक विस्तार एवं प्रगति को देखने-समझने का नजरिया बदलने लगा है. यह सवाल पूछा जा रहा है कि जीडीपी में निरंतर बढ़ोतरी का बहुत अधिक महत्व क्यों है.

Indian economy : कुछ समय पहले विश्व बैंक ने भारत को चेताया है कि उसे अमेरिका की वर्तमान प्रति व्यक्ति आय के एक-चौथाई स्तर तक पहुंचने में अभी 75 वर्ष का समय और लग सकता है. उसने यह भी रेखांकित किया है कि मध्यम वर्गीय प्रति व्यक्ति आय के जाल में फंसना भारत के लिए बहुत संभव होता दिख रहा है. वर्तमान में भारत में प्रति व्यक्ति आय 2,500 डॉलर है और इसे 20,000 डॉलर तक पहुंचने में 2047 की विकसित भारत बनने की समय सीमा से भी अधिक समय लग सकता है. प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की चुनौतियां भविष्य में और गंभीर हो सकती हैं. वैश्विक मानकों के अंतर्गत उच्च मध्यवर्गीय आय की आर्थिक सीमा 13,845 डॉलर तक है. विश्व बैंक ने यह भी बताया है कि 1990 से लेकर अब तक वैश्विक स्तर पर मात्र 34 देश ही मध्यम वर्गीय आय से उच्च स्तर की प्रति व्यक्ति आय के दायरे में पहुंच पाये हैं. वे 34 मुल्क, मात्र 25 करोड़ के लगभग जनसंख्या का ही प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारत की वर्तमान आबादी के 20 प्रतिशत से भी कम है.


भारतीय अर्थव्यवस्था की तरक्की और उसकी चुनौतियों पर हो रही चर्चाओं के बाद से आर्थिक विस्तार एवं प्रगति को देखने-समझने का नजरिया बदलने लगा है. यह सवाल पूछा जा रहा है कि जीडीपी में निरंतर बढ़ोतरी का बहुत अधिक महत्व क्यों है. वर्तमान में सर्वाधिक जीडीपी वाले शीर्ष के 10 देशों में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय भारत की है. इस समय भारत 3.94 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के संदर्भ में अक्सर इसकी विशाल जनसंख्या का एक विपरीत संदर्भ सदैव रहता है, पर सवाल उठता है कि चीन की अधिक आबादी का क्या. आर्थिक विकास के मोर्चे पर जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय में चीन ने भारत को करीब डेढ़ दशक पहले ही पीछे छोड़ दिया था. यकीनन भारत ने पिछले तीन-चार दशकों में आर्थिक विकास का एक सुखद सफर तय किया है और जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति आय में निरंतर बढ़ोतरी हुई है. साठ से नब्बे के तीन दशकों तक भारत में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी दो गुना से कम ही दर्ज हुई, जबकि आर्थिक सुधारों के बाद से अब तक इसमें करीब पांच गुना बढ़ोतरी हुई है. लेकिन विश्व बैंक के अनुसार भारत को अब आमूलचूल परिवर्तन करने ही पड़ेंगे, अन्यथा अधिकांश आबादी का मध्य आय के जाल में फंसे रहना निश्चित है. पिछले 15 वर्षों से भारत की विकास दर पांच प्रतिशत या उससे अधिक रही है, पर इसी मामले में कुछ अन्य देशों, जिनमें कोरिया मुख्य उदाहरण के तौर पर सामने आता है, ने पिछले 50 वर्षों से अपनी विकास दर को बरकरार रखा है. भारत के पास अभी आगामी 20 से 25 वर्षों तक के लिए एक चुनौती है कि वह अपनी न्यूनतम विकास दर को पांच प्रतिशत या उससे अधिक बनाये रखे.


पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था में हुई प्रगति तथा भारतीयों के व्यक्तिगत आर्थिक जीवन स्तर में हुई वृद्धि ऐसे दो मुख्य आयाम है, जिनके बीच में एक तार्किक संबंध को स्थापित करना आवश्यक है. पिछले तीन दशक से दोनों में एक सकारात्मक संबंध भारतीय समाज में देखने को मिलता है. उदाहरण के लिए, 2000 के दशक में पांच हजार रुपये प्रतिमाह वेतन पाने वाले व्यक्ति के लिए तब उपलब्ध न्यूनतम लागत की कार को खरीदने की क्रय क्षमता तीन से पांच वर्ष तक होती थी, जो आज छह माह पर आ गयी है क्योंकि अब वेतन 60 हजार रुपये प्रतिमाह के बराबर है. एक अन्य रोचक तथ्य यह है कि पिछले कुछ वर्षों से भारतीय समाज के जो परिवार निम्न मध्यम आय वर्ग से मध्यमवर्गीय आय की श्रेणी में पहुंचे हैं, उनमें हवाई यात्रा के उपयोग का प्रचलन बढ़ा है क्योंकि वे उसका खर्च वहन करने में सक्षम हुए हैं. यह भी सच है कि प्रतिस्पर्धा के चलते हवाई यात्रा की लागत नियंत्रण में रही है. यह तथ्य एक विचित्र स्थिति को प्रस्तुत करता है कि आज भी भारत के विनिर्माण क्षेत्र द्वारा उत्पादित रेडीमेड कपड़ों को खरीदने की पहुंच आबादी के 20 प्रतिशत लोगों तक ही है क्योंकि उसकी लागत तीन हजार रुपये या उससे अधिक है. वहीं समाज का एक बहुत बड़ा तबका जो 300 से 500 रुपये तक की कमीज या पतलून पहनता है, जिसे भारत बांग्लादेश व वियतनाम जैसे देशों से खरीदता है.


अब सरकार, समाज व बाजार तीनों को एक दिशा में आगे बढ़ना होगा. इस संदर्भ में सरकार को वित्तीय नियंत्रण को मुख्य उद्देश्य में रखना, अपनी वित्तीय ऋण पर निर्भरता कम करना ताकि निजी निवेशकों के पास भी कम लागत पर वित्तीय ऋण की उपलब्धता रह सके आदि उपायों पर ध्यान देना चाहिए. शिक्षा पर व्यय को निवेश के रूप में देखना, विलासिता की तरफ मुड़ने के बजाय आर्थिक बचत को सही निवेश में लगाना प्रस्तुत करना आदि को मुख्य उद्देश्य बनाना होगा. रही बात बाजार की, तो उसे अपने रुख में बदलाव लाना चाहिए और उच्च मार्जिन और कम मात्रा के उद्देश्य के बजाय उच्च मात्रा, कम मार्जिन की रणनीति पर चलना होगा. इससे बाजार समाज की पूरी क्रय क्षमता को हासिल कर लाभदायकता के उद्देश्य को भी पूरा कर पायेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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