नियंत्रण में है भारतीय अर्थव्यवस्था
झटकों को बर्दाश्त करने की क्षमता बरसों की आर्थिक नीतियों का परिणाम होती हैं. इस मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था ने निश्चित ही बड़ी दूरी तय की है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान सरकार के आठ वर्ष पूरा होने के अवसर पर सरकार के कामकाज की समीक्षा करते हुए कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं. सामाजिक स्तर पर हम समाज में गतिशीलता और सशक्तीकरण, सामाजिक सद्भाव एवं सामाजिक तनाव में कमी, विधि-व्यवस्था की स्थिति में सुधार तथा सुरक्षा की भावना आदि के पैमाने पर सरकार के प्रदर्शन का जायजा ले सकते हैं.
राजनीतिक दृष्टि से देखना हो, तो हम स्थिरता और मुश्किल फैसलों को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति के सबूतों को परख सकते हैं. आर्थिक मोर्चे के परीक्षण, जो इस आलेख का विषय है, में रोजगार सृजन, लोगों की आय में वृद्धि और दामों में स्थिरता जैसे आयामों को देख सकते हैं.
ये वे मुख्य कारक हैं, जो अधिकतर लोगों की रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते हैं. लोग आर्थिक बेहतरी और अवसरों के बढ़ने, विशेषकर अपने युवाओं के लिए, की चिंता करते हैं. अन्य अहम कारक शिक्षा और स्वास्थ्य हैं. हम अन्य सूचकों का भी परीक्षण कर सकते हैं, जो परोक्ष रूप से रोजगार सृजन और आय बढ़ने से संबंधित हैं. ऐसे कारकों में निर्यात, निवेश, बचत, शेयर बाजार, विदेशी निवेश, विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़त आदि हो सकते हैं.
हम यहां विभिन्न पारंपरिक आर्थिक सूचकांकों के प्रदर्शन का विश्लेषण नहीं करेंगे. वह बाद में कभी किया जायेगा. अभी यह कहना पर्याप्त है कि आठ साल पहले भारत बाहरी झटके और उच्च मुद्रास्फीति एवं भ्रष्टाचार की छवि से उबरने की कोशिश कर रहा था. शायद मतदाता भ्रष्टाचार की चर्चा से दुखी थे और दो अंकों की मुद्रास्फीति से भी परेशान थे.
तब अमेरिका ने अपने मौद्रिक विस्तार का संकुचन करना शुरू कर दिया था, जिसे ‘टैपर टेंट्रम’ कहते हैं. इससे विकासशील देशों से बड़ी मात्रा में डॉलर निकलकर अमेरिका चला गया था. ऐसे में उनकी मुद्राओं में गिरावट आयी, जिनमें भारतीय रुपया भी था. लेकिन सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी), रोजगार और आमदनी जैसे कारकों से परे भारतीय अर्थव्यवस्था के बार-बार उभरने के पीछे कुछ और गुणवत्तापूर्ण पहलू है.
उभरने की क्षमता को उस तरह से परिमाण में व्यक्त नहीं किया जा सकता है, जैसे हम रोजगार की संख्या या निवेश के रुपये या जीडीपी में बढ़ोतरी के प्रतिशत को बताते हैं. यह अर्थव्यवस्था की वह क्षमता है, जिससे वह झटकों का सामना करती है, चाहे वे बाहरी हों या आंतरिक. उदाहरण के लिए, 1991 में बाहरी झटका लगा था, जिसका कारण पहला खाड़ी युद्ध था, जिससे तेल के दाम बहुत बढ़ गये थे.
चूंकि भारत के मैक्रोइकोनॉमिक आधार, जैसे- बहुत अधिक मुद्रास्फीति, विदेशी मुद्रा का बहुत कम भंडार, औद्योगिक क्षेत्र में नकारात्मक वृद्धि और बहुत अधिक वित्तीय घाटा, कमजोर थे, देश लगभग भुगतान न कर पाने के कगार पर था. इसका अर्थ यह था कि अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक क्षमता नहीं थी.
इसी तरह, प्रारंभिक दशकों में जब भी मौसम के मोर्चे पर झटका लगता था, जैसे- सूखा या कमतर मानसून, कृषि उत्पादन और आय पर असर होता था तथा अर्थव्यवस्था को नुकसान होता था. यह भी अर्थव्यवस्था में समुचित दम न होने का एक उदाहरण है. लेकिन अब कृषि क्षेत्र मौसम से कम प्रभावित होता है क्योंकि सिंचाई की अच्छी व्यवस्था है, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार से जुड़ाव है तथा किसानों के आय के स्रोतों में विविधता है.
बीते आठ सालों में अर्थव्यवस्था को बड़े घरेलू और बाहरी झटकों का सामना करना पड़ा है. कुछ झटके सकारात्मक रहे हैं, हालांकि इस पर बहस हो सकती है कि वे सकारात्मक हैं या नहीं. एक ऐसा झटका था, दुनियाभर में तेल के दामों में आधे से अधिक की गिरावट. लगभग दो साल तक तेल की कीमतें नीचे रही थीं. आंतरिक नकारात्मक झटकों में सितंबर, 2018 में एक बड़े गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी आइएलएफएस का लगभग डूबना था.
इससे दो साल पहले अचानक नोटबंदी की घोषणा की गयी थी, जिससे चलन के लगभग 86 फीसदी नोट बंद कर दिये गये थे. तीसरा आंतरिक झटका था वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली का ठीक से नहीं लागू किया जाना. यह अचानक नहीं था और किसी हद तक इसे संभाल लिया गया. यह एक बड़ा कर सुधार था, जिसके तहत समूचे देश को पूरी तरह अलग कर प्रणाली में ला दिया गया. हालिया बाहरी झटकों में एक कोरोना महामारी थी.
इससे हम दो साल से अधिक समय तक प्रभावित रहे हैं. अब यूक्रेन में चल रहा युद्ध बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने खड़ा है. ये बहुत बड़े झटके हैं, जिन्होंने समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर डाला है. इन छह झटकों से परे कुछ छोटे स्तर के झटके भी हैं, जैसे- भारी बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाएं, चक्रवातों के कारण लोगों को हटाया जाना आदि. एक और सामान्य झटका रहा अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद से वैश्वीकरण का कमजोर होना तथा वैश्विक व्यापार की मात्रा में कमी आना.
ऐसी नकारात्मक भावनाएं भारत जैसे निर्यातक देशों को नुकसान पहुंचा सकती हैं, जो आंतरिक वृद्धि के लिए अधिक निर्यात पर निर्भर करते हैं. नवंबर, 2019 में क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग समझौते से आखिरी समय में भारत का अलग होना भी एक झटका था. अर्थव्यवस्था की क्षमता इस बात का मापन है कि वह ऐसे नकारात्मक झटकों को किस तरह बर्दाश्त करती है. इसका छोटा सा उत्तर है- बहुत अच्छी तरह से.
पहले के दौर में इनमें से कोई भी एक झटका अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार सकता था. पर अब आर्थिक गतिविधियों की विविधता, खाद्य पदार्थों और विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार तथा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित कल्याण योजनाओं के रूप में अर्थव्यवस्था में समुचित क्षमता है, जो उसे पटरी से नहीं उतरने देती है. कल्याण योजनाओं में एक उदाहरण मुफ्त अनाज योजना है, जो दो साल से अधिक समय से चल रही है और इसने आबादी के बड़े हिस्से को खाद्य मुद्रास्फीति से बचाया है तथा उनके लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की है.
महामारी से जो आय और रोजगार का संकट पैदा हुआ, उसे इसने खाद्य संकट में नहीं बदलने दिया. पड़ोसी देशों- श्रीलंका और पाकिस्तान में स्थिति बिल्कुल अलग है तथा इससे इंगित होता है कि उनकी अर्थव्यवस्थाओं में संकट का सामना का दम नहीं है. यह क्षमता एक दिन में नहीं आती. यह बरसों की आर्थिक नीतियों का परिणाम होती हैं. इस मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था ने निश्चित ही बड़ी दूरी तय की है. हालांकि यह निश्चिंत होने की वजह नहीं है, पर युद्ध व मुद्रास्फीति के काले बादलों में आशा की एक किरण तो है ही.