जलवायु परिवर्तन के लिए भारतीय दृष्टि

पर्यावरण विमर्श समावेशी होना चाहिए. यहां पर पंचभूत की भारतीय परंपरा महत्वपूर्ण हो जाती है. यह दृष्टि मनुष्य को ब्रह्मांड के केंद्र में रखने के बजाय उसे प्रकृति की पारिस्थितिकी के एक अभिन्न अंग के रूप में स्थापित करती है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 3, 2024 8:14 AM

प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित, कुलपति
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

पारिस्थितिकी के लिए पंचभूत (आकाश, वायु, जल, पृथ्वी एवं अग्नि) भारतीय आख्यान तंत्र एक पूर्ण प्रारूप है, क्योंकि यह मनुष्य को प्रकृति-केंद्रित तंत्र के एक भाग के रूप में देखता है, जहां अव्यवस्था रचनात्मक है और वह हमें व्यापक ब्रह्मांड के साथ संतुलन एवं साहचर्य की ओर ले जाता है. यह मनुष्य के लाभ के लिए प्रकृति को जीतने और तबाह करने की उस वर्चस्ववादी धारणा के विपरीत है, जिसे नृवंशवाद कहा जाता है. भारत में देवराई (पवित्र वन) की अवधारणा जैव-विविधता और प्रकृति के संरक्षण के उद्देश्य से लायी गयी थी. आज विश्व में अंधाधुंध विकास के संकट और उससे उत्पन्न आपदा को देखते हुए इस वैकल्पिक आख्यान को स्थापित किया जाना चाहिए. भारतीय ज्ञान परंपरा की मेधा ने हमें पंचभूत एवं पारिस्थितिकी का सम्मान करना सिखाया है. हमारे बड़ों ने बताया था कि पंचभूतों से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए, छेड़ने से ये प्राकृतिक शक्तियां हमें तबाह कर सकती हैं. इस संतुलन एवं साहचर्य में किसी भी विक्षोभ के गंभीर प्राकृतिक परिणाम होते हैं, जहां मनुष्य असहाय हो जाता है. औद्योगिकीकरण के प्रारंभ से जलवायु निरंतर गर्म हो रही है. बड़ी चुनौती पर्यावरण एवं जलवायु के मुद्दे को लेकर विश्वभर में दोषपूर्ण समझ के निवारण की है. वर्तमान विमर्श पश्चिम से आता है और यह मुख्य रूप से मनुष्य-केंद्रित है, इसलिए यह अक्सर प्राकृतिक शक्तियों का विरोध तथा स्थानिक समुदायों की अनदेखी करता है. मौसम के बदलते मिजाज को देखते हुए तीन बिंदुओं को समझना जरूरी है.

पहली बात, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण रक्षा सरकारी या निजी चिंताएं नहीं हैं, इनका सार्वभौमिक अर्थ है. पर्यावरण को क्षरण एवं दोहन से बचाने का मुख्य दायित्व सरकारों का है, पर नागरिकों को भी इसमें योगदान देना चाहिए. भारत में सहस्राब्दियों की मेधा और मनुष्य एवं प्रकृति के अंतरसंबंधों की गहन समझ संघर्ष के स्थान पर साहचर्य से परिभाषित होती है. हमारे संवैधानिक चिंतकों ने दूरदृष्टि का परिचय देते हुए पर्यावरण संरक्षण के प्रावधान किये थे, जबकि पर्यावरण की आधुनिक चिंताओं को व्यापकता साठ व सत्तर के दशक में मिली, विशेषकर रचेल कार्सन की पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ के प्रकाशन के साथ. आज भी भारत में सरकार के तौर-तरीके गहरी समझ को प्रतिबिंबित करते हैं, जहां आदिवासी समुदायों के साथ योजनाएं बनी हैं तथा नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण की अग्रिम पंक्ति में लाया जा रहा है. स्वच्छ भारत अभियान जैसी पहलें तथा शिक्षा प्रणाली में पर्यावरण जागरूकता को शामिल करना महत्वपूर्ण कदम हैं. इन प्रयासों से सुनिश्चित किया जा रहा है कि दायित्व केवल सरकार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि नागरिक भी पर्यावरण संरक्षण में बराबर के भागीदार हैं. दूसरा बिंदु है कि पर्यावरण विमर्श समावेशी होना चाहिए. यहां पर पंचभूत की भारतीय परंपरा महत्वपूर्ण हो जाती है. यह दृष्टि मनुष्य को ब्रह्मांड के केंद्र में रखने के बजाय उसे प्रकृति की पारिस्थितिकी के एक अभिन्न अंग के रूप में स्थापित करती है. जबकि पश्चिमी दृष्टि अक्सर प्रकृति को नियंत्रित करना चाहती है, जिसे भारतीय समझ खारिज करती है. उदाहरण के लिए, हिंदू धर्म में पवित्र पेड़ों की वाटिकाओं की पूजा की जाती है, बौद्ध धर्म में हिरण के वनों को भी पवित्र माना जाता है. पवित्र वाटिकाओं की अवधारणा विशेष धार्मिक संदर्भों से परे जाकर प्राकृतिक वास को भी समाहित करती है, जो धार्मिक आधार पर संरक्षित होते हैं.

ठोस वैज्ञानिक सबूत से इंगित होता है कि जल के पास अद्भुत स्मृति होती है. जल को देखते हुए आप कोई विचार उत्पन्न करें, पानी की आणविक संरचना बदल जायेगी. छूने से भी उसमें बदलाव आता है. इसलिए पानी तक हम कैसे पहुंचते हैं, यह बहुत अहम है. वायु केवल नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसों का मिश्रण मात्र नहीं, बल्कि गति का एक आयाम भी है. पांच तत्वों में हवा तक पहुंचना तथा उसे समुचित ढंग से समझना अपेक्षाकृत सबसे आसान है. भारतीय संस्कृति में आग को अग्नि देव के रूप में स्थापित किया गया है, जिनके दो चेहरे हैं और वे ज्वलनशील मेष की सवारी करते हैं. दो चेहरे आग के जीवनदाता और जीवनहर्ता होने के सांकेतिक प्रतीक हैं. यदि हमारे भीतर अग्नि प्रज्वलित नहीं होगी, तो हमारा जीवन भी नहीं होगा. यदि आप ठीक से ध्यान नहीं रखेंगे, तो आग तुरंत अनियंत्रित हो सकती है और सब कुछ भस्म कर सकती है. आकाश एक खाली वितान नहीं है. यह अस्तित्व का एक गूढ़ आयाम है. आकाश अस्तित्वहीन भी है. तीसरी बात यह कि जलवायु मसले के संबंध में अधिक वैकल्पिक तौर-तरीकों की बड़ी आवश्यकता है. इसमें केवल भारतीय समझ ही नहीं, बल्कि स्थानीय और क्षेत्रीय समझ को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. समृद्ध परंपरा और ऐतिहासिक संदर्भ के साथ भारतीय सोच ऐसी है, जिसे ‘प्रयोजन में वैश्विक, समाधान में स्थानिक’ के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जो एक अच्छी शुरुआत हो सकती है. भारत में पर्यावरणविदों, दार्शनिकों और राजनेताओं ने विकास के ऐसे तरीकों की पैरोकारी की है, जिनमें प्रकृति के साथ संघर्ष के स्थान पर साहचर्य को प्राथमिकता दी गयी है. यह उनकी सोच में एक साझापन होने को दर्शाता है.

एकात्म मानववाद ऐसा ही एक उदाहरण है, जो पर्यावरण के मुद्दों को समझने और उनके समाधान के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करता है. सहयोग एक अन्य विषय है, जहां भारतीय परंपराएं विश्व को मूल्यवान सीख दे सकती हैं. इथेनॉल-मिश्रित तेल और हाइड्रोजन ईंधन जैसी भारत की पहलें एक महीन समझ का उदाहरण हैं, जिसमें स्थानीय समाधानों पर जोर है. अंतरराष्ट्रीय सौर अलायंस, ग्लोबल बायो-फ्यूल अलायंस जैसे वैश्विक सहकारों के जरिये भारत स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में भी सक्रिय है. वैश्विक राजनीति में विभिन्न जलवायु परिवर्तन मॉडल हैं, जो अक्सर देशों को खेमों में बांट देते हैं. ऐसी स्थिति में पंचभूत प्रारूप वैकल्पिक सोचों को खोजने की प्रक्रिया में उत्साहजनक प्रारंभ हो सकता है. यह ब्रह्मांड-केंद्रित सिद्धांत है, जहां प्रकृति में मनुष्य समेत हर चीज की अपनी भूमिका है तथा सभी परस्पर संतुलन एवं साहचर्य में हैं. प्रकृति को जीत लेने तथा उसे तबाह कर देने की सोच का नतीजा है कि आज हम जलवायु आपदाओं और त्रासदियों से घिरे हुए हैं. इसीलिए संपूर्ण और प्रकृति-केंद्रित भारतीय दृष्टि प्रकृति एवं व्यापक ब्रह्मांड से गहरे जुड़ाव को रेखांकित करती है. भारतीय ज्ञान परंपरा वैश्विक स्तर पर सहकार बनाने तथा सम्मिलित प्रयास के लिए एक ठोस प्रारूप प्रस्तुत करती है.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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