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शिक्षा का भारतीयकरण

नयी नीति में शिक्षा को प्रारंभ से ही कौशल विकास यानी आवश्यकता के अनुसार पढ़ाई और व्यावहारिक कामकाज के लिए उपयोगी बनाया जा रहा है.

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार

alokmehta7@hotmail.com

हमसे अधिक आज हमारे पिताजी, दादाजी प्रसन्न होते. बचपन से उन्हें इस बात पर गुस्सा होते देखा था कि अंग्रेज चले गये, लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था का भारतीयकरण नहीं हुआ. पिताजी शिक्षक थे और मां को प्रौढ़ शिक्षा से जोड़ रखा था. उनकी तरह लाखों शिक्षकों के योगदान से भारत आगे बढ़ता रहा, लेकिन उनके सपनों का भारत बनाने का क्रांतिकारी महायज्ञ अब शुरू होगा. लगभग दो-तीन वर्षों से हम जैसे लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रियों, सचिवों से सवाल कर रहे थे कि नयी शिक्षा नीति आखिर कब आयेगी?

लगभग ढाई लाख लोगों की राय, शिक्षाविदों के गहन विचार-विमर्श के बाद अब शिक्षा नीति घोषित कर दी गयी है. मातृभाषा, भारतीय भाषाओं को सही ढंग से शिक्षा का आधार बनाने और शिक्षा को जीविकोपार्जन की दृष्टि से उपयोगी बनाने के लिए नयी नीति में अधिक महत्व दिया गया है. केवल अंकों के आधार पर आगे बढ़ने की होड़ के बजाय सर्वांगीण विकास से नयी पीढ़ी का भविष्य तय करने की व्यवस्था की गयी है.

संस्कृत और भारतीय भाषाओं के ज्ञान से सही अर्थों में जाति, धर्म, क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर संपूर्ण मानव समाज के उत्थान के लिए भावी पीढ़ी को जोड़ा जा सकेगा. अंग्रेजी और विश्व की अन्य भाषाओं को भी सीखने, उसका लाभ देश-दुनिया को देने पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती. बचपन से मातृभाषा के साथ जुड़ने से राष्ट्रीय एकता और आत्मनिर्भर होने की भावना प्रबल हो सकेगी. कश्मीर को अनुच्छेद-370 से मुक्त करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने यह सबसे बड़ा क्रांतिकारी निर्णय किया है. महायज्ञ के मंत्रोच्चार के साथ बाहरी शोर भी स्वाभाविक है. कुछ दलों, नेताओं अथवा संगठनों ने शिक्षा नीति पर सवाल भी उठाये हैं. कुछ नियामक व्यवस्था नहीं रखी जायेगी, तब तो अराजकता होगी. राज्यों के अधिकार के नाम पर दुनिया के किस देश में अलग-अलग पाठ्यक्रम और रंग-ढंग होते हैं.

प्रादेशिक स्वायत्तता का दुरुपयोग होने से कई राज्यों के बच्चे पिछड़ते गये. इसी तरह जाने-माने लोग भी निजीकरण को बढ़ाने का तर्क दे रहे हैं. वे क्यों भूल जाते हैं कि ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में भी स्कूली शिक्षा सरकारी व्यवस्था पर निर्भर है. निजी संस्थाओं को भी छूट है, लेकिन अधिकांश लोग कम खर्च वाले स्कूलों में ही पढ़ते हैं. तभी वहां वर्ग भेद नहीं हो पता. मजदूर और ड्राइवर को भी साथ में टेबल पर बैठकर खिलाने में किसी को बुरा नहीं लगता. हां, यही तो भारत के गुरुकुलों में सिखाया जाता था. राजा और रंक समान माने जाते रहे. भारतीय आर्य संस्कृति को तभी श्रेष्ठ माना जाता है.

नयी शिक्षा नीति के क्रियान्वयन के लिए सरकार धन कहां से लायेगी? इसका विवरण नीति के दस्तावेज में क्यों नहीं है? यह कितना बेतुका सवाल है. नीति लागू होने पर सरकार और संसद तथा इससे जुड़े संस्थानों को निश्चित रूप से मिलकर अधिकाधिक बजट का प्रावधान करना होगा. देश ने जब कंप्यूटर क्रांति, परमाणु शक्ति आदि की नीति तय की, तब क्या पहले हिसाब लगाया कि कितना खर्च आयेगा. धीरे-धीरे खर्च, बजट के इंतजाम हुए, देरी भी हुई. लेकिन, खर्च का भूत दिखाकर क्या कोई नया कार्यक्रम नहीं बनाया जाये? केवल निजी हाथों पर निर्भरता बढ़ाने के नतीजे क्या हमने नहीं देखे हैं.

कई नेताओं, ठेकेदारों द्वारा खोले गये स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में मनमानी और गड़बड़ियां होती रही हैं. समस्या तो अब भी रहेगी. शायद कोई सरकार निजी दुकानों को बंद भी नहीं करा सकेगी. लेकिन यदि सरकारी स्कूलों को बेहतर बना दिया गया, तो उन धंधेबाजों का धंधा ठंडा होने लगेगा. भारत ही नहीं यूरोप-अमेरिका में भी निजी क्षेत्र में ऐसे शिक्षा संस्थान हैं. इस दृष्टि से उच्च शिक्षा में विदेशी संस्थाओं को अनुमति देते समय भी सरकार को यह बात ध्यान में रखनी होगी. अच्छे प्रतिष्ठित कालेज- विश्वविद्यालय की शाखाएं खुलने से विदेशी मुद्रा की बचत भी होगी.

सबसे महत्वपूर्ण बात है कि शिक्षा को प्रारंभ से ही कौशल विकास यानी आवश्यकता के अनुसार पढ़ाई और व्यावहारिक कामकाज के लिए उपयोगी बनाया जा रहा है. सामाजिक विषयों और विज्ञान के समन्वय का आदर्श प्रावधान है. इसी तरह कॉलेज में भी हर साल एक प्रमाण पत्र लेकर आगे बढ़ने या किसी कामकाज में लगने की सुविधा हो जायेगी. कितने ही संपन्न देशों में हर व्यक्ति को बीस साल पढ़कर केवल बड़ी डिग्री लेने को आवश्यक नहीं माना जाता है.

वहीं उच्च शिक्षा सचमुच तपस्या की तरह मानी जाती है. विश्वविद्यालयों के परिसर शहरों से दूर रहते हैं. उनसे सीखें या भारत की परंपरा-संस्कृति को स्वीकारें, तो शिक्षकों को किसी भी नेता, अधिकारी, व्यापारी से अधिक महत्व, सम्मान देकर उनकी सुख-सुविधाओं का प्रावधान होना चाहिए. राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् का प्रावधान योग्य शिक्षक तैयार करने में हो सकेगा. शिक्षक केवल नौकरी के नाम पर भर्ती किये जायेंगे, तो घोटाले ही होंगे. हरियाणा के एक पूर्व मुख्यमंत्री तो ऐसे घोटाले से ही जेल में हैं.

नयी शिक्षा नीति को लागू करने के लिए अभी एक वर्ष का समय है. समुचित बजट के लिए शिक्षा से सर्वाधिक लाभ उठानेवाले साधन-संपन्न लोगों से अतिरिक्त कर अधिभार लगाकर अच्छी खासी धनराशि मिल सकती है. कॉरपोरेट संस्थानों से सरकरी स्कूलों के लिए अलग से धनराशि ली जाये. फिलहाल सामाजिक जिम्मेदारी के नाम पर वे थोड़ा धन लगाते हैं, लेकिन उसमें भी कुछ घोटाले और खानापूर्ति हैं.

आदिवासी इलाकों में आश्रमशालाओं का विचार ठीक है, लेकिन वहां भी उच्च शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए. इसी तरह कला, खेल में अच्छे परिणाम पानेवालों को सरकारी नौकरी में बहुत निचले दर्जे में रखने के बजाय ऊंचे पदों वाला वेतन सुविधा देकर उनकी योग्यता का सही सम्मान होना चाहिए. राज्य सरकारें और स्थानीय संस्थाएं, पंचायतें भी शिक्षा सुधार के अभियान में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं. सीमा और समाज की सुरक्षा के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर भारत के भविष्य को संवारा जा सकता है. इससे देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सकेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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