स्वदेश कमाई भेजने में सबसे आगे भारतीय

साल 2022 में भारत को विप्रेषण से 111 अरब डॉलर से अधिक प्राप्त हुए. यह राशि भारत के वस्तु व्यापार घाटे का लगभग आधा है. यह मैक्सिको और चीन को विप्रेषण से मिलने वाले धन के दुगुने से भी अधिक है.

By अजीत रानाडे | May 15, 2024 10:11 AM
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संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन की विश्व प्रवासन रिपोर्ट 2024 में कई ऐसे तथ्य एवं आंकड़े हैं, जो शोधार्थियों, नीति-निर्धारक एवं मीडिया के लिए उपयोगी हैं. ऐसे दौर में, जब दुनियाभर में प्रवासन विरोधी भावनाएं बढ़ती जा रही हैं, विमर्श में इन सूचनाओं का महत्व बहुत बढ़ जाता है. क्या प्रवासन एक मानवाधिकार है? भारतीय संविधान हर नागरिक को अपने देश के किसी भी हिस्से में आवाजाही का अधिकार देता है.

लेकिन सीमा पार आना-जाना एक नितांत अलग स्थिति है. हालांकि संयुक्त राष्ट्र स्पष्ट रूप से प्रवासन के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में चिह्नित नहीं करता है, लेकिन अपने देश समेत किसी देश को छोड़ने के अधिकार को एक मौलिक अधिकार मानता है. यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, पर ऐसा है नहीं. आपको यह अधिकार है कि आपका दमन व उत्पीड़न न हो, इसलिए आप दूसरे देश जा सकते हैं. लेकिन यह जरूरी नहीं है कि आपको स्वतः किसी देश में प्रवेश का अधिकार मिल जाता है.

इसी तरह से संयुक्त राष्ट्र शरण मांगने के और जबरदस्ती अपने देश न भेजने के अधिकार को भी मान्यता देता है. यह व्यवस्था दमन व उत्पीड़न के जोखिम को देखते हुए की गयी है. संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि 2022 में अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की संख्या 28.10 करोड़ थी, जो वैश्विक आबादी का 3.6 प्रतिशत है. इनमें संघर्ष, उत्पीड़न, हिंसा, राजनीतिक अस्थिरता आदि के कारण पलायन करने वाले लोगों के साथ-साथ आर्थिक अवसरों की तलाश के लिए दूसरे देशों में जाने वाले प्रवासी भी शामिल हैं.

आर्थिक कारणों से प्रवासन निश्चित रूप से मानवाधिकार नहीं है. पर एक बार कोई आर्थिक प्रवासी अन्य देश चला जाता है, तो उसके शोषण को रोकने और कुछ बुनियादी अधिकारों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौते एवं कानून हैं. भारत के आर्थिक प्रवासियों का शानदार रिकॉर्ड रहा है. वे लगभग तीन दशकों से अपनी मेहनत की कमाई देश वापस भेज रहे हैं, जिसके कारण विप्रेषण (रेमिटेंस) के मामले में भारत दूसरे देशों से बहुत आगे है. साल 2022 में भारत को विप्रेषण से 111 अरब डॉलर से अधिक प्राप्त हुए. यह राशि भारत के वस्तु व्यापार घाटे का लगभग आधा है. यह मेक्सिको और चीन को विप्रेषण से मिलने वाले धन के दुगुने से भी अधिक है. भारत को मिलने वाली यह कमाई 2010 की तुलना में दुगुने से भी अधिक हो गयी है और इसकी औसत सालाना वृद्धि दर छह प्रतिशत से अधिक है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से ज्यादा है. चीन की इस कमाई में कमी आ रही है तथा पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को आने वाली रकम भारत की एक-चौथाई है. भारत के विप्रेषण का बड़ा हिस्सा खाड़ी देशों से आता है, जहां बड़ी संख्या में भारतीय निर्माण, खुदरा, सुरक्षा, यातायात और अर्द्ध-कौशल के कामों में लगे हैं. ये लोग अपनी कमाई का अच्छा-खासा हिस्सा देश वापस भेजते हैं, जिससे उनके परिवार को मदद मिलती है. उन्हें छह प्रतिशत तक लेन-देन शुल्क देना पड़ता है तथा उन पर मुद्रा विनिमय दर का जोखिम भी रहता है.

भारत से बाहर जाने वाले विप्रेषण में भी वृद्धि हो रही है. भारतीय रिजर्व बैंक के हालिया आंकड़ों के अनुसार, यह रकम 2023-24 में 32 अरब डॉलर से अधिक हो सकती है, जो पिछले साल से 25 प्रतिशत अधिक है. भारत आने वाली राशि कामगारों द्वारा भेजी जाती है, पर भारत से बाहर जाने वाले धन के प्रेषक अमूमन धनी लोग हैं, जो अपने बच्चों की पढ़ाई, परिजनों के रहन-सहन के खर्च या संपत्ति खरीदने के लिए पैसे भेजते हैं. इस तरह दो तरह के प्रेषकों के स्वरूप में बड़ा अंतर है. बहुमूल्य विदेशी मुद्रा बचाने के नाम पर भारत से बाहर जा रहे धन पर रोक लगाना सही नहीं होगा, बल्कि हमें इसकी बुनियादी वजहों की पड़ताल करनी चाहिए. भारत आने वाले धन के भी चिंताजनक पहलू हैं. एक ओर इससे भारत में धन भेजने वालों की निष्ठा और कर्मठता इंगित होती है. इससे व्यापार घाटे और विदेशी मुद्रा विनिमय में उतार-चढ़ाव का सामना करने में मदद मिलती है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारत अपने श्रम अधिशेष का निर्यात कर रहा है. इसमें चिंता की बात यह है कि यह श्रम तुलनात्मक रूप से कम उत्पादक है.

क्या उन कामगारों को भारत में रोजगार नहीं मिल सकता था? क्या इससे निर्भरता वृद्धि हो रही है? कभी केरल की कुल आय का 25 प्रतिशत हिस्सा विप्रेषण से आता था, जो अब 20 प्रतिशत से कम हो गया है. इससे केरल प्रति व्यक्ति उपभोग के मामले में धनी राज्यों की श्रेणी में आ गया, पर वहां श्रमिकों की कमी की समस्या बहुत गंभीर हो गयी, जिसकी भरपाई के लिए बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों से श्रमिकों को लाना पड़ रहा है. बाहर से आ रहे धन ने केरल में परिसंपत्तियों के दाम में भी बड़ी वृद्धि कर दी है. इस प्रकार, राज्य या देश के स्तर पर विप्रेषण का मिश्रित प्रभाव होता है. अगर यह धन उत्पादक निवेश, मैन्युफैक्चरिंग और उच्च तकनीक के उद्योगों में जाने के बजाय केवल रियल एस्टेट में जायेगा, तो आगे चल कर इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. इसका एक लैंगिक पहलू भी है. दो-तिहाई से अधिक भारतीय आर्थिक प्रवासी पुरुष हैं. तो, महिलाएं सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बच्चों एवं बुजुर्गों की देखभाल के लिए यहीं रह जाती हैं. यह स्थिति श्रीलंका और फिलीपींस के प्रवासियों के साथ नहीं है.

भारत सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जहां उच्च स्तरीय रोजगार की कमी है और प्रति व्यक्ति आय भी कम है. ऐसे में आर्थिक प्रवासन में इसका अग्रणी होना स्वाभाविक स्थिति है. घरेलू स्तर पर भी देश की आबादी का एक-तिहाई हिस्सा आंतरिक प्रवासी है, जो रोजगार और जीवनयापन की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह पलायन करता है. अधिकांश आंतरिक प्रवासन मौसमी और चक्रीय होता है तथा अक्सर ऐसा राज्य के भीतर होता है. भारतीयों का अंतरराष्ट्रीय पलायन बिल्कुल अलग मामला है. वहां जोखिम, शोषण, भेदभाव आदि के खतरे होते हैं, विशेषकर तब जब अधिकतर प्रवासी कामगार हैं. इस संबंध में हमारे दूतावास और उच्चायोगों के सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता है. भारत विश्व व्यापार संगठन के तहत एक विशेष कार्य परमिट व्यवस्था बनाने की पैरोकारी करता रहा है, ताकि लोग काम के लिए सुगमता से यात्रा कर सकें और वीजा लेते समय उन्हें परेशानी न हो. तीव्र प्रवासी-विरोधी भावना के इस दौर में आर्थिक प्रवासियों और सेवा प्रदाताओं की सुगम आवाजाही की व्यवस्था करने में समय लगेगा. फिलहाल हम विप्रेषण की खासी कमाई से खुश हो सकते हैं.

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