भारत-चीन व्यापार की दिशा
सीमा विवाद और लद्दाख में सैनिकों की शहादत के बाद व्यापार प्रतिबंध की हिमायत शुरू हो गयी है. एप्स पर प्रतिबंध चीनी कंपनियों के लिए संकेत है.
डॉ अजीत रानाडे, अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन
editor@thebillionpress.org
चालीस साल पहले भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं का आकार (जीडीपी डॉलर में) लगभग बराबर था. आज चीन पांच गुना बड़ा हो चुका है. चीन का पश्चिमी देशों को निर्यात पर केंद्रित लक्ष्य होने के कारण यह विकास संभव हुआ. उसने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रास्ते खोल दिये, ऐसे निवेश के लिए उसने विशेष आर्थिक जोन तैयार किये. अविलंब मंजूरी प्रावधानों के साथ पत्तन और आवश्यक आधारभूत संरचनाएं तैयार कर दी.
नतीजतन, विदेशी कंपनियों ने खुलकर निवेश किया और चीनी कामगारों के लिए खूब रोजगार के मौके उपलब्ध कराये. कम श्रम लागत से चीन पूरी दुनिया को निर्यात करने का केंद्र बन गया. केवल विदेशी ही नहीं, चीनी सरकारी कंपनियों ने भी खूब निवेश किया. चीन की जीडीपी 10 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही थी, लेकिन श्रम भुगतान स्थिर ही रहा. ऐसे में आर्थिक विकास का लाभ श्रम के बजाय पूंजी की तरफ हुआ, यानी सीधा फायदा सरकार को हुआ.
उच्च बचत दर के कारण वित्तीय क्षेत्र को लाभ मिला और बचत राशि का पुनर्निवेश हुआ. अतः चीन का निवेश जीडीपी अनुपात 50 प्रतिशत से अधिक हो गया. यहां तक कि आज भी यह लगभग 44 प्रतिशत है. आधिकारिक गरीबी दर के दायरे में वे लोग हैं, जो रोजाना दो डॉलर से कम खर्चते हैं. ऐसे लोग चीन में मात्र 0.5 प्रतिशत हैं, जबकि भारत में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत है. एक पीढ़ी की अवधि में 20 करोड़ कामगार कृषि श्रम से निकलकर औद्योगिक श्रम का हिस्सा बन गये.
इस तरह के विकास की कहानी भारत भी चाहेगा. लेकिन हमारी राजव्यवस्था बिल्कुल अलग है. फिर भी निवेश आधारित विकास को लेकर भारत आशावान है और विशेष आर्थिक जोन बनाने और ढांचागत विकास, सार्वजनिक निजी भागीदारी आदि पर फोकस किया है. हमारे पड़ोसी के मुकाबले ये नीतिगत प्रयास अपेक्षाकृत कम फायदेमंद साबित हुए हैं. चीनी आर्थिक विकास से प्रतिस्पर्धा की अव्यक्त इच्छा भारतीय नीति निर्माताओं और भारतीय व्यवसायियों में मौजूद है.
यह दोनों देशों के बीच बढ़े व्यापार, वाणिज्यिक और निवेश साझेदारी से प्रतिबिंबित होता है. साल 2001 में चीनी निवेश गंतव्य के लिए भारत 19वें स्थान पर था, लेकिन 15 साल बाद भारत छठीं रैंक पर पहुंच गया. इससे प्रतीत होता है कि चीनी उत्पादकों ने भारत को वरीयता दी. भारतीय उद्योगपतियों ने यूरोप या अमेरिका से महंगी लागत वहन करने की बजाय चीन पर अपनी निर्भरता बढ़ा दी. साल 1999 में भारत का चीन से आयात मात्र 5.8 प्रतिशत था, लेकिन 2015 में यह 41 प्रतिशत पहुंच गया.
केवल इलेक्ट्रॉनिक्स, केमिकल, टेलीकॉम या ऊर्जा उपकरण ही नहीं, बल्कि अगरबत्ती, गणेश प्रतिमा और रेडीमेड कपड़े भी आयात किये जाने लगे. भारत एक्टिव फार्मास्युटिकल्स इंटरमीडिएट्स (एपीआइ) भी चीन से आयात करने लगा. भारत के गतिशील और जेनरिक दवाओं का निर्यात करनेवाले दुनिया की शीर्ष फार्मास्युटिकल्स इंडस्ट्री के लिए एपीआइ महत्वपूर्ण आयात है. भारत और उसके व्यावसायिक साझेदारों के स्वास्थ्य खर्च को कम करने में सस्ती जेनरिक दवाएं मददगार हैं.
चीन पर आयात निर्भरता जारी है. विभिन्न क्षेत्रों में भारत की चीन पर आयात निर्भरता इस प्रकार है- इलेक्ट्रॉनिक्स में 45 प्रतिशत, पूंजीगत सामानों (बॉयलर और टर्बाइन भी शामिल) में 32 प्रतिशत, कार्बनिक रसायनों में 38 प्रतिशत, फर्नीचर में 57 प्रतिशत, उर्वरकों में 28 प्रतिशत, ऑटोमोटिव पार्ट्स में 25 प्रतिशत और फार्मास्युटिकल्स एपीआइ में 68 प्रतिशत है. आयात निर्भरता को कम समय में दूर कर पाना बहुत मुश्किल है. भारत-चीन व्यापार 100 बिलियन डॉलर से अधिक है, लेकिन यह असंतुलित तरीके से चीन के पक्ष में है.
इसी तरह व्यापार युद्ध की कड़वाहट के बावजूद चीन-अमेरिका का अब भी 650 बिलियन डॉलर का व्यापार है. हालांकि, वह इस समीकरण को अपने पक्ष में झुका सकता है. भारत के मामले में यह असंभव है. क्योंकि भारत की निर्भरता 35 प्रतिशत है, जबकि चीन की अन्योन्य निर्भरता दो प्रतिशत भी नहीं है. अतः हम अमेरिका की तरह कुछ आवश्यक वस्तुओं के निर्यात को प्रतिबंधित नहीं कर सकते हैं. अतः भारत के पास एक मात्र विकल्प है कि वह चीन पर अपनी निर्भरता कम करे.
दुर्भाग्य से यह कीमत भारतीय उपभोक्ताओं को वहन करनी पड़ेगी. यहां तक कि चीन अगर कम कीमतों पर बेचता है (जिसे डब्ल्यूटीओ नियमों के अनुसार, डंपिंग कहा जाता है, जोकि अपराध है), भारत में उपभोक्ताओं को कम कीमत की वस्तुओं का फायदा होता है. एप्पल के मुख्य कार्यकारी टिम कुक का कहना है कि चीनी फैक्ट्रियों में एप्पल का उत्पादन का मूल्य लगभग 220 बिलियन डॉलर है, जिसमें वह 185 बिलियन डॉलर का निर्यात किया जाता है. लेकिन कुक का कहना है कि वे चीन में कम लागत की वजह से नहीं है, बल्कि उनके लिए ऐसे कौशल का स्रोत कहीं नहीं है.
चीन के 40 साल के निर्यात केंद्रित विकास की वजह कम श्रम लागत, न्यून मूल्यित मुद्रा और शायद सस्ती ऊर्जा, भूमि और पूंजी जैसी सभी प्रकार की सब्सिडी है. लेकिन, चीन तकनीक और गुणवत्ता में भी आगे निकल चुका है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, इलेक्ट्रिक कार और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में दुनियाभर में धाक जमा चुका है. भारत के लिए यह बड़ी चुनौती है. सीमा विवाद और लद्दाख में सैनिकों की शहादत के बाद व्यापार प्रतिबंध की हिमायत शुरू हो गयी है.
एप्स पर प्रतिबंध चीनी कंपनियों के लिए संकेत है. लेकिन, सच है कि सीमा विवाद व्यापार प्रतिबंध से हल नहीं हो सकता. विस्तारवाद से चीन को क्या हासिल होता है, यह स्पष्ट नहीं है. वे निश्चित ही ऐसे बाजार से पहुंच खोने जा रहे हैं, जो उनके लिए पांचवें या छठें स्थान पर है. दुनिया मंदी की चपेट में है और अंतरराष्ट्रीय व्यापार धीमा हो रहा है, तो वे क्यों अपने निर्यातकों को संकट में डाल रहे हैं? हमने तीन साल में व्यापार असंतुलन को कम करना शुरू कर दिया था, जो सकारात्मक संकेत है. लद्दाख घटना के बाद यह सब कुछ बदल सकता है.
(लेखक के निजी विचार हैं़)