भारत-इस्राइल की बढ़ेगी निकटता

इस्राइयल के साथ हमारे संबंध व्यापक स्तर पर हैं. संबंध गहराने की अवधि में अधिकतर समय तक नेतन्याहू ही प्रधानमंत्री रहे हैं. उनकी वापसी भारत के लिए तो निश्चित रूप से अच्छी खबर है, पर उनके अपने क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं.

By अनिल त्रिगुणायत | November 9, 2022 7:58 AM

इस्राइल में प्रधानमंत्री के रूप में बेंजामिन नेतन्याहू की वापसी एक अहम राजनीतिक परिघटना है. इस्राइल इतिहास में वे सबसे अधिक समय तक प्रधानमंत्री पद पर रहे हैं तथा पंद्रह महीने विपक्ष में रहने के बाद वे फिर से सरकार बनाने जा रहे हैं. इजरायल में चाहे जिस पार्टी या गठबंधन की सरकार बने या कोई भी प्रधानमंत्री हो, यह आम सहमति हमेशा रही है कि भारत के साथ संबंध अच्छे होने चाहिए.

स्थानीय जनसंख्या में भी भारत के लिए अच्छी भावना है. भारत जैसे बड़े लोकतंत्र का समर्थन उनके लिए बहुत मायने रखता है. दोनों देशों का परस्पर सहयोग हर क्षेत्र में है, चाहे वह तकनीक हो, सैन्य सहयोग हो या कृषि क्षेत्र हो. इस समय मध्य-पूर्व में इस्राइल एक बड़ी ताकत है. चूंकि दोनों देशों के संबंध अच्छे होते हैं, तो हमारी सुरक्षा से जुड़े मामलों पर इस्राइल हमेशा साथ देता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में द्विपक्षीय सहकार में बड़ी बढ़ोतरी हुई है.

उल्लेखनीय है कि नेतन्याहू और प्रधानमंत्री मोदी व्यक्तिगत तौर पर भी एक-दूसरे के निकट हैं. जब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तो राज्य में कृषि से जुड़ी कई परियोजनाओं में इस्राइली कंपनियों और सरकारी विभागों ने सहयोग दिया था. भारत भी एक कृषि प्रधान देश है और हमारी बड़ी चिंताओं में सिंचाई की व्यवस्था को सुदृढ़ करना रहा है. कम पानी से सिंचाई करने में इस्राइल को महारत हासिल है.

कोरोना काल में वैक्सीन विकास और रोकथाम के प्रयासों में भी इस्राइल ने उल्लेखनीय सहयोग किया था. भारत और इस्राइल अपने द्विपक्षीय संबंधों को बहुआयामी बनाने की दिशा में भी प्रयासरत हैं. हाल में अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, इस्राइल और भारत का एक समूह बनाया गया है, जो आपसी सहकार बढ़ाने के लिए कार्य करेगा. इस तरह हम देखते हैं कि इस्राइल के साथ हमारे संबंध व्यापक स्तर पर हैं. संबंध गहराने की अवधि में अधिकतर समय तक नेतन्याहू ही प्रधानमंत्री रहे हैं.

उनकी वापसी भारत के लिए तो निश्चित रूप से अच्छी खबर है, पर उनके अपने क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं. वे दक्षिणपंथी और कंजर्वेटिव माने जाते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में उनका रवैया बहुत कठोर होता है. पहले जब हमारे राष्ट्रपति या मंत्री वहां जाते थे, तो वे इस्राइल भी जाते थे और फिलिस्तीन भी, पर पिछले कुछ वर्षों से भारत ने यह तय किया कि फिलिस्तीन को लेकर जो हमारी नीति है, वह कायम रहेगी और उसका समर्थन व सहयोग भी पहले की तरह जारी रहेगा, पर इस्राइल के साथ संबंधों को उससे जोड़कर नहीं देखा जायेगा.

इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भारत द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को नहीं मानता, बल्कि हम हमेशा से कहते रहे हैं कि फिलिस्तीन को पूर्ण राष्ट्र बनाया जाना चाहिए, अवैध रूप से बस्तियां न बसायी जाएं और किसी भी प्रकार की हिंसा और लड़ाई से बचा जाना चाहिए. बरसों से भारत द्वारा फिलिस्तीन को दी जाने वाली सहायता भी चल रही है. भारत की इस नीति को फिलिस्तीन ने भी सकारात्मक रूप से समझा है.

जब प्रधानमंत्री मोदी ने उस क्षेत्र का दौरा किया, तो वे इस्राइल अलग से गये और फिर बाद में फिलिस्तीन भी गये. इसे डी-हाइफनेटेड पॉलिसी कहा जाता है यानी एक देश के साथ संबंध को दूसरे देश के साथ के संबंध से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. साथ ही, एक रिश्ते का असर दूसरे रिश्ते पर नहीं होना चाहिए.

कृषि के अलावा हमारा द्विपक्षीय संबंध रक्षा क्षेत्र में बहुत गहरा है. रूस और अमेरिका के बाद इस्राइल हमारा तीसरा सबसे बड़ा सहयोगी राष्ट्र है. तकनीक के आदान-प्रदान के लिए अनेक परियोजनाएं चल रही हैं. भारतीय पर्यटन और सिनेमा उद्योग में भी इस्राइल की दिलचस्पी बढ़ रही है. उल्लेखनीय है कि वहां करीब 90 हजार भारतीय मूल के यहूदी हैं. भारत में जब तक यहूदी रहे, उन्हें यहां बहुत सम्मान मिला. इस्राइल बनने के बाद धीरे-धीरे इन लोगों ने वहां पलायन किया.

यह समुदाय वहां खासा महत्व रखता है तथा भारत एवं इस्राइल के बीच एक जीवंत पुल के रूप में अपनी भूमिका निभाता है. जहां तक इस्राइल के भीतर की हालिया राजनीतिक अस्थिरता की बात है, तो उससे भारत के साथ के रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ता है. इस बार के चुनाव में नेतन्याहू गठबंधन को 120 सीटों वाली संसद में 65 सीटें मिली हैं. इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि नयी सरकार अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा करने में सफल रहेगी.

चूंकि नेतन्याहू भी दक्षिणपंथी रुझान के हैं और उन्हें एक अति दक्षिण पार्टी का समर्थन मिला हुआ है, तो मेरी एक ही चिंता है कि फिलिस्तीन के मुद्दे पर स्थिति में सुधार की गुंजाइश बहुत कम है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह प्रयास करना चाहिए कि हालात खराब न हों, लड़ाई-झगड़े न हों तथा शांतिपूर्ण बातचीत से समाधान का प्रयास हो. अमेरिका का प्रभाव इस्राइल पर बहुत अधिक है, तो वह बड़ी भूमिका निभा सकता है, लेकिन यह बहुत कुछ अमेरिकी मध्यावधि चुनावों के नतीजे पर निर्भर करेगा.

इस समय दुनिया के सामने जो सबसे बड़ी तात्कालिक चुनौती है, वह है रूस-यूक्रेन युद्ध तथा दूसरी सबसे गंभीर समस्या है जलवायु परिवर्तन, जिस पर बातें तो खूब की जाती हैं, पर असलियत में मामूली काम ही होता है. भारत स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में बहुत सक्रिय है और इस्राइल के पास इस संबंध में उन्नत तकनीक है. इस क्षेत्र में दोनों देशों के सहकार की बहुत संभावनाएं हैं. जहां तक रूस-यूक्रेन युद्ध की बात है, तो इस्राइल और भारत दोनों ही लड़ाई रोकने और बातचीत से समाधान निकालने के पक्षधर हैं.

जिस प्रकार रूस के साथ भारत के गहरे संबंध हैं, उसी प्रकार इस्राइल और रूस में भी निकटता है. पिछले दिनों इस्राइली प्रधानमंत्री ने रूस की यात्रा भी की थी. अभी भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर रूस के दौरे पर हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा भी है कि युद्ध का युग समाप्त हो जाना चाहिए. रूस-यूक्रेन युद्ध का असर समूची दुनिया पर हो रहा है तथा यह एक वैश्विक संकट का रूप ले चुका है.

भारत और इस्राइल रूस, यूक्रेन, अमेरिका और यूरोप के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाते हुए युद्ध रोकने के लिए साझा प्रयास कर सकते हैं. बहरहाल, वैश्विक हलचलों और भू-राजनीतिक बदलावों के इस दौर में हम इसे लेकर निश्चिंत रह सकते हैं कि भारत और इस्राइल के संबंध पर किसी तरह की कोई आंच नहीं आयेगी, बल्कि नेतन्याहू और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में वह मजबूत ही होगी. (बातचीत पर आधारित).

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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