सिंधु जल संधि को लेकर भारत की बड़ी जीत
Indus Water Treaty : विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि भारत 1960 की सिंधु जल संधि के अनुबंध एफ के पैराग्राफ 7 के तहत तटस्थ विशेषज्ञ के निर्णय का स्वागत करता है.
Indus Water Treaty : सिंधु जल संधि को लेकर भारत को बड़ी जीत मिली है. विश्व बैंक द्वारा नियुक्त निष्पक्ष विशेषज्ञ माइकल लीनो ने किशनगंगा और रतले जलविद्युत परियोजनाओं पर पाकिस्तान के विरुद्ध भारत के रुख का समर्थन किया है. तटस्थ विशेषज्ञ ने संधि में दो पक्षों- भारत और पाकिस्तान- के बीच उत्पन्न होने वाले किसी भी विवाद के समाधान के लिए अपने एकमात्र अधिकार की घोषणा की है.
विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि भारत 1960 की सिंधु जल संधि के अनुबंध एफ के पैराग्राफ 7 के तहत तटस्थ विशेषज्ञ के निर्णय का स्वागत करता है. यह निर्णय भारत के इस रुख का समर्थन करता है और पुष्टि करता है कि किशनगंगा और रतले जलविद्युत परियोजनाओं के संबंध में जो सात प्रश्न तटस्थ विशेषज्ञ को भेजे गये थे, वे उनकी क्षमता के अंतर्गत आते हैं. अब तटस्थ विशेषज्ञ मामले की आगे की सुनवाई करेंगे और सात मुद्दों पर अपना अंतिम निर्णय सुनायेंगे.
यह विवाद इसलिए उपजा क्योंकि 2023 में जम्मू-कश्मीर में किशनगंगा और रतले जलविद्युत परियोजनाओं पर भारत-पाक के बीच उपजे मतभेदों को सुलझाने के लिए विश्व बैंक ने एक तटस्थ विशेषज्ञ और मध्यस्थता न्यायालय के अध्यक्ष को नियुक्त किया था. पर भारत ने इस समस्या के समाधान के लिए एक साथ दो तरीकों पर विचार करने से इनकार कर दिया और संधि में निर्धारित मानदंडों को रेखांकित किया. संधि के अनुसार, किसी भी तरह का विवाद होने पर विश्व बैंक एक तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त कर सकता है. जबकि पाकिस्तान चाहता है कि हेग स्थित मध्यस्थता न्यायालय इस मामले का निपटारा करे. विदित हो कि नौ वर्षों तक चली बातचीत के बाद भारत और पाकिस्तान ने 1960 में सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किये थे, जिसका उद्देश्य सीमा पार बहने वाली नदियों के जल बंटवारे को लेकर उपजे विवाद को सुलझाना था.
हालिया विवाद किशनगंगा और रतले जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर है. पाकिस्तान का कहना है कि इन परियोजनाओं से उसे पानी की कमी हो सकती है और यह सिंधु जल संधि का उल्लंघन है. जबकि भारत का कहना है कि यह परियोजना सिंधु जल संधि के अनुरूप है और इससे पाकिस्तान के हिस्से का जल प्रभावित नहीं होगा. वर्ष 2015 में इन्हीं परियोजनाओं पर आपत्तियां जताते हुए इसके समाधान के लिए पाकिस्तान ने एक तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति की मांग की थी. पर एक वर्ष बाद ही पाकिस्तान अपनी बातों से पलट गया और मामले को मध्यस्थता न्यायालय ले जाने की मांग करने लगा. इन तिकड़मों के बावजूद पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी.