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भयावह खतरा है लू की तीव्रता

बीते सालों की प्राकृतिक आपदाओं को देखते हुए यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए कारगर कदम उठाने में वैश्विक समुदाय उतना सजग नहीं दिखता.

बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मौसम में आ रहे बदलाव से आगामी महीनों में तापमान में बढ़ोतरी, हीटवेव और उससे उपजे खतरों से निपटने से संबंधित समीक्षा बैठक को संबोधित किया, जिसमें प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, गृह सचिव, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के उच्चाधिकारियों ने भाग लिया. उन्होंने तैयारियों की जानकारी ली और सतर्कता, सजगता एवं आपसी तालमेल से उपाय करने का निर्देश दिया. यह कवायद देश में लू की तीव्रता और घातकता बढ़ने से जुड़ी है, जिसकी जद में देश की 80 फीसदी आबादी और 90 फीसदी क्षेत्रफल के आने की आशंका है. यदि हीटवेव से निपटने की दिशा में त्वरित कार्रवाई नहीं हुई, तो भारत को सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) हासिल करने में मुश्किल हो सकती है. भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है. हीटवेव अत्याधिक गर्म मौसम की स्थिति है, जिसमें किसी क्षेत्र का तापमान ऐतिहासिक औसत से अधिक हो जाता है. मैदानी, तटीय तथा पर्वतीय इलाकों में अधिकतम तापमान क्रमशः 30, 37 और 40 डिग्री सेल्सियस पहुंचने पर हीटवेव की स्थिति पैदा होती है. ये तापमान सामान्य से चार से पांच डिग्री अधिक होते हैं और जब ये पांच से छह डिग्री अधिक होते हैं, तब उसे हीटवेव कहते हैं. अगर तापमान 47 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो वह स्थिति बेहद खतरनाक मानी जाती है.


हीटवेव से डीहाईड्रेशन, हीटस्ट्रोक और मौत भी हो सकती है. इसकी चपेट में बच्चे, ज्यादा उम्र के बुजुर्ग, महिलाएं, फेफड़ों की पुरानी बीमारी वाले, निर्माण और श्रम से जुडे़ लोग ज्यादा आते हैं. बीते बरसों में हर महाद्वीप को हीटवेव ने प्रभावित किया है. इससे जंगलों में आग की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है. आने वाले 26 सालों में 60 करोड़ लोग इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे. इससे घर के बाहर लोगों की कार्यक्षमता में 15 फीसदी की गिरावट होगी और 31 से 48 करोड़ लोगों के जीवन की गुणवत्ता घटेगी. बीते सालों की प्राकृतिक आपदाओं को देखते हुए यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए कारगर कदम उठाने में वैश्विक समुदाय उतना सजग नहीं दिखता. मार्च 2023 से मार्च 2024 के बीच की अवधि में वैश्विक तापमान ने 1.5 डिग्री की सीमा को लांघ दिया है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि आज धरती एक बडे़ संकट के मुहाने पर खड़ी है. विश्व मौसम विज्ञान संगठन की हालिया रिपोर्ट की मानें, तो न केवल बीता वर्ष बल्कि पूरा बीता दशक धरती पर अभी तक का सबसे गर्म दशक रहा है. यह वर्ष भी गर्मी का रिकॉर्ड तोड़ देगा. चिंता की बात यह है कि यदि तापमान वृद्धि पर अंकुश नहीं लगा, तो सदी के अंत तक गर्मी से 1.5 करोड़ लोग मौत के मुहाने तक पहुंच जायेंगे. अमेरिका की पर्यावरण संस्था ग्लोबल विटनेस और कोलंबिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उत्सर्जन स्तर यदि 2050 तक यही रहा, तो 2100 तक गर्मी अपने घातक स्तर तक पहुंच जायेगी. यह भी कि प्रत्येक मिलियन टन कार्बन में बढ़ोतरी से दुनियाभर में 226 अतिरिक्त हीटवेव की घटनाएं होंगी.


क्लाइमेट चेंज जर्नल के एक अध्ययन की मानें, तो यदि तापमान में तीन डिग्री की वृद्धि होती है, तो हिमालय में सूखा पड़ने की प्रबल संभावना है. इससे सबसे ज्यादा नुकसान कृषि क्षेत्र को उठाना पडे़गा. इससे भारत और ब्राजील का 50 फीसदी से अधिक कृषि क्षेत्र प्रभावित होगा. इन देशों में एक से तीस वर्ष तक सूखे का खतरा बना रह सकता है. अत्याधिक तापमान से समय पूर्व जन्म दर में बढ़ोतरी का खतरा 60 फीसदी तक बढ़ जायेगा. यह खतरा कई हानिकारक स्वास्थ्य प्रभावों के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार होगा. गर्मी के बढ़ते प्रभाव से खाद्यान्न आपूर्ति पर संकट बढ़ जायेगा. ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट की मानें, तो बढ़ते तापमान से अमेरिका से चीन तक खेत तबाह हो रहे हैं. इससे फसलों की कटाई, फलों का उत्पादन और डेयरी उत्पादन सभी दबाव में हैं. बाढ़, सूखा और तूफान की बढ़ती आवृत्ति ने इसमें और इजाफा किया है. वाशिंगटन के सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के खाद्य विशेषज्ञ कैटलिन वैल्श कहते हैं कि इन मौसमी घटनाओं की वजह से खाद्य सुरक्षा और कीमतों के बारे में चिंता लगातार बढ़ रही है. इससे उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया के बडे़ हिस्से के किसान मुश्किल में हैं. दक्षिणी यूरोप में गर्मी के कारण गायें दूध कम दे रही हैं. समुद्र का बढ़ता तापमान मछलियों को अपना इलाका छोड़ने पर मजबूर कर रहा है. इससे बहुत सी प्रजातियों के खत्म होने का अंदेशा बढ़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र की जलवायु समिति के अनुसार यदि धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है, तो 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 43 फीसदी तक घटाना होगा. आज धरती 1.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है, जो संयुक्त राष्ट्र के मानक तापमान के अनुमान से आधा डिग्री अधिक है.


वैश्विक तापमान वृद्धि ने समूची दुनिया को अपनी जद में ले लिया है. इसके चलते पेरिस में दुनिया के तमाम देशों ने वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने का लक्ष्य निर्धारित किया था. यहां यह विचार करना बेहद जरूरी है कि क्या हम ईमानदारी से उस लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. मौजूदा हालात तो इसकी गवाही कतई नहीं देते क्योंकि धरती के गर्म होने की गति तेजी से बढ़ ही रही है और हम तापमान बढ़ोतरी के मामले में पेरिस सम्मेलन में लिये गये निर्णय के बावजूद 3-4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं. यदि हमने कार्बन उत्सर्जन कम नहीं किया, तो सदी के आखिर तक धरती का तापमान चार डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जायेगा. क्या उस दशा में धरती रहने के लायक बची रह पायेगी? संयुक्त राष्ट्र जलवायु एजेंसी के प्रमुख साइमन स्टील ने चेतावनी दी है कि धरती को बचाने के लिए अब केवल दो साल का समय ही बचा है. कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने और इसके लिए बनायी जाने वाली योजनाओं के लिए धन जुटाने के लिए भी समय कम बचा है. जरूरी है कि गैस उत्सर्जन में गिरावट लाने के लिए ग्रीनहाउस बनाये जायें और सशक्त अर्थव्यवस्था हेतु जी-20 द्वारा अधिक धन प्रदान किया जाये क्योंकि तापमान बढ़ाने वाले उत्सर्जन में इन देशों का 80 फीसदी योगदान है. धरती पर यदि कार्बन और मीथेन का उत्सर्जन इसी तरह बढ़ता रहा, तो हालात और भयावह होंगे. उस दशा में करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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