हमारे देश में तेजी से शहरीकरण हो रहा है. एक ओर नये शहर बन रहे हैं, तो दूसरी ओर शहरों का विस्तार हो रहा है. ऐसे में शहरों में समुचित सुविधा एवं संसाधन मुहैया कराने की चुनौती बढ़ती जा रही है. विश्व बैंक ने एक ताजा अध्ययन में बताया है कि आगामी डेढ़ दशक में भारतीय शहरों में 840 अरब डॉलर के निवेश की आवश्यकता है यानी हर साल औसतन 55 अरब डॉलर की पूंजी चाहिए.
यह इस अवधि में हमारे सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 1.18 प्रतिशत हिस्सा है. रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि आम तौर पर नगरपालिकाओं और नगर निगमों द्वारा जो सेवाएं दी जाती हैं, उनका शुल्क कम होने से खर्च की भरपाई नहीं हो पाती है. ऐसे में सेवाओं की क्षमता और गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. बरसात के मौसम में जब विशेष तैयारी की जरूरत होती है, तो शहर प्रशासन आम तौर पर असफल रहते हैं.
पैसे की कमी के कारण दीर्घकालिक उपयोगिता के लिए नीति और कार्यक्रम बना पाना भी बहुत मुश्किल होता है. शायद ही कोई शहर ऐसा है, जहां उच्च कोटि की नियमित पेयजल सुविधा हो या स्वच्छता का ध्यान रखा जाता है. देश की राजधानी दिल्ली को ही लें, तो शहर के चारों ओर कचरे के पहाड़ खड़े हो चुके हैं. थोड़ी बरसात में भी नालियां सड़कों पर बहने लगती हैं. वित्तीय राजधानी मुंबई हाल के वर्षों में मानसून में लगातार बाढ़ की समस्या का सामना करती रही है. इस साल बंगलुरू में भीषण बाढ़ आयी थी.
इन दिनों चेन्नई में यही स्थिति है. यह सही है कि सरकार की कोशिशों से देशभर में स्वच्छता पर ध्यान दिया जा रहा है और इसके अच्छे परिणाम भी मिल रहे हैं, लेकिन कचरे का निपटारा और गंदे पानी का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या बन चुके हैं. पिछले सप्ताह रिजर्व बैंक ने भी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि नगरपालिकाओं और नगर निगमों द्वारा रखरखाव पर किये जा रहे खर्च तथा शुल्कों से उनकी भरपाई का अंतर बहुत अधिक है.
यह कई समकक्ष देशों से बहुत कम है. सैद्धांतिक रूप से स्थानीय निकायों को कई स्तरों पर स्वायत्तता प्राप्त है, लेकिन शुल्क और कर लगाने के मामले में राज्य सरकारों का नियंत्रण है. केंद्र और राज्य सरकारें विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर खर्च करते हैं, उनका लाभ भी शहरों को मिलता है. हालांकि सरकारों को शहरी निकायों को अधिक वित्त मुहैया कराना चाहिए, लेकिन इस स्रोत से आवश्यक पूंजी जुटा पाना संभव नहीं है. शहरी प्रशासन को निजी वाणिज्यिक पूंजी से निवेश लेने तथा सुविधाओं व सेवाओं के शुल्क को तार्किक बनाने पर विचार करना चाहिए. तभी हमारे शहर बेहतर हो सकेंगे.