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सोशल मीडिया पर लगाम जरूरी है

यह बात एकदम साफ है कि सोशल मीडिया बेलगाम है, तो दूसरी ओर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आम जनता तक पहुंचने के लिए यह एक असरदार व वैकल्पिक माध्यम के रूप में भी उभरा है.

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

देश इस समय कोरोना वायरस के संकट से जूझ रहा है. संकट के इस दौर में भी सोशल मीडिया पर कोरोना को लेकर फेक वीडियो व फेक खबरें बड़ी संख्या में चल रही हैं. हम सबके पास सोशल मीडिया के माध्यम से रोजाना कोरोना के बारे में अनगिनत खबरें और वीडियो आते हैं. इनमें से अनेक किसी जाने-माने डॉक्टर के हवाले से होते हैं. कभी फेक न्यूज में कोरोना की दवा निकल जाने का दावा किया जाता है, तो कभी वैक्सीन के बारे में भ्रामक सूचना फैलायी जाती है. आम आदमी के लिए यह अंतर कर पाना बेहद कठिन होता है कि कौन-सी खबर सच है और कौन-सी फेक. फेक न्यूज को तथ्यों के आवरण में ऐसे लपेट कर पेश किया जाता है कि आम व्यक्ति उस पर भरोसा कर ले.

व्हाट्सएप के इस दौर में आम आदमी को यह पता ही नहीं चलता कि वह कब फेक न्यूज का शिकार हो गया और उसे आगे बढ़ाकर कितने और लोगों को प्रभावित कर दिया. कुछ समय पहले राष्ट्रीय प्रेस दिवस के मौके पर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था कि फेक न्यूज सबसे बड़ी समस्या है और इस पर अंकुश लगाने के तरीकों पर चर्चा करनी चाहिए. यह सच है कि मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चुनौती फेक न्यूज है. सच्ची खबर को तो लोगों तो पहुंचने में समय लगता है, लेकिन फेक न्यूज के तो जैसे पंख लगे होते हैं, जंगल में आग की तरह फैलती है और समाज में भ्रम और तनाव भी पैदा कर देती है.

सोशल मीडिया की खबरों के साथ सबसे बड़ा खतरा यह भी रहता है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है, उसका पता लगाना मुश्किल काम है. यह बात एकदम साफ है कि सोशल मीडिया बेलगाम हो गया है, तो दूसरी ओर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आम जनता तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया एक असरदार व वैकल्पिक माध्यम के रूप में भी उभरा है. राजनीतिक, सामाजिक संगठन और आमजन इसका भरपूर लाभ उठा रहे हैं. लेकिन, कई बार वे भी फेक न्यूज का शिकार हो जाते हैं.

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था कि सोशल मीडिया को लेकर दिशा-निर्देश की सख्त जरूरत है ताकि भ्रामक जानकारी डालने वालों की पहचान की जा सके. अदालत ने कहा कि हालात ऐसे हैं कि हमारी निजता तक सुरक्षित नहीं है और निजता का संरक्षण सरकार की जिम्मेदारी है. कोई किसी को ट्रोल क्यों करे और झूठी जानकारी क्यों फैलाये. आखिर ऐसे लोगों की जानकारी जुटाने का हक क्यों नहीं है.

जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि आज के दौर में हमारे पास सोशल मीडिया को लेकर सख्त दिशा-निर्देश होने चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि आखिर किसी उपयोगकर्ता को सेवा प्रदाता से ये पूछने का हक क्यों नहीं है कि मैसेज कहां से शुरू हुआ है. हमें इंटरनेट की चिंता आखिर क्यों नहीं करनी चाहिए. पीठ ने कहा कि हम सिर्फ यह कहकर नहीं बच सकते हैं कि ऑनलाइन अपराध कहां से शुरू हुआ, उसका पता लगाने की तकनीक हमारे पास नहीं है.

अगर ऐसा करने की कोई तकनीक है, तो उसे रोकने की भी कोई तकनीक होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के पास आधार से सोशल मीडिया को जोड़ने की याचिकाएं विचारार्थ लंबित हैं. ऐसी याचिकाएं बॉम्बे, मध्य प्रदेश और मद्रास हाईकोर्ट में लंबित थीं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट स्थानांतरित कर दिया गया है. इसके पहले बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल दो धार्मिक समुदायों के बीच नफरत का बीज बोने के लिए नहीं होना चाहिए, खास तौर पर फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करते समय इसका जरूर ख्याल रखा जाना चाहिए.

पीठ ने कहा था कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि वे अन्य धर्मों के लोगों के साथ शांति से रह सकते हैं. लोग बोलने की आजादी व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल अनुशासित होकर करें, खास तौर से सोशल मीडिया में पोस्ट करते समय इसका ध्यान जरूर रखें. पीठ ने कहा कि आलोचना निष्पक्ष व रचनात्मक होनी चाहिए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में दूसरों की आस्था को आहत नहीं करना चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल संविधान के तहत तर्कसंगत तरीके से करना चाहिए.

हालांकि, सरकार इस दिशा में प्रयास करती आयी है, लेकिन वे नाकाफी साबित हुए हैं. केंद्र सरकार ने संसद के मौजूदा सत्र के दौरान एक सवाल के जवाब में जानदारी दी है कि देश में झूठ और नफरत फैलाने वाले 7819 वेबसाइट लिंक और सोशल मीडिया अकाउंट पर कार्रवाई की गयी है. इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्यौगिकी राज्यमंत्री संजय धोत्रे ने एक लिखित जवाब में बताया कि इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग के साथ ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हिंसा भड़काने वाली सूचनाएं भी बढ़ी हैं. इसके मद्देनजर कार्रवाई भी तेज हुई है.

उन्होंने बताया कि पिछले तीन वर्षों में कई वेबसाइट, वेबपेज और सोशल मीडिया अकाउंट्स को ब्लॉक किया गया है. वर्ष 2017 में 1385, 2018 में 2799 और 2019 में 3635 वेबसाइट, वेबपेज और सोशल मीडिया अकाउंट्स को बंद कराया गया. इस प्रकार पिछले तीन साल में 7819 अकाउंट और वेबसाइट के खिलाफ कार्रवाई हुई है. फेक न्यूज को अपराध की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन इसके प्रचार-प्रसार को रोकने में यह उपाय भी बेअसर साबित हुआ है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में फेक न्यूज को लेकर कुल 257 मामले दर्ज किये गये हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में फेक न्यूज और अफवाह फैलाने के सबसे अधिक 138 मामले दर्ज किये गये, जबकि उत्तर प्रदेश में फेक न्यूज के 32, केरल में 18 और जम्मू-कश्मीर में फेक न्यूज के केवल चार मामले ही दर्ज किये गये. फेक न्यूज को लेकर नेशनल क्राइम ब्यूरो ने ऐसे मामलों को शामिल किया है जो आइपीसी की धारा 505 और आइटी एक्ट के तहत दर्ज किये गये हैं. फेक न्यूज की समस्या इसलिए भी जटिल होती जा रही है क्योंकि देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. अभी भारत में 74.3 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. दरअसल, भारत सोशल मीडिया कंपनियों के लिए एक बड़ा बाजार है.

विभिन्न स्रोतों से मिले आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में व्हाट्सएप के एक अरब से अधिक सक्रिय यूजर्स हैं. इनमें से 16 करोड़ भारत में ही हैं. फेसबुक इस्तेमाल करने वाले भारतीयों की संख्या लगभग 15 करोड़ है और ट्विटर अकाउंट्स की संख्या 2 करोड़ से ऊपर है. बीबीसी ने फेक न्यूज को लेकर भारत सहित कई देशों में अध्ययन किया है. इस शोध की रिपोर्ट के अनुसार लोग बिना खबर या उसके स्रोत की सत्‍यता जांचे सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं. हमें करना यह चाहिए कि कोई भी सनसनीखेज खबर की एक बार जांच अवश्य करें ताकि हम फेक न्यूज का शिकार होने से बच सकें. मैं जानता हूं कि यह करना आसान नहीं है और यह अपने आप में बड़ी चुनौती है.

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