बीते दिनों केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा वानिकी के जरिये 24 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में होकर बहने वाली यमुना, नर्मदा, झेलम, सतलज, चिनाव, रावी, व्यास, ब्रह्मपुत्र, लूणी, गोदावरी, महानदी, कृष्णा और कावेरी आदि 13 नदियों के संरक्षण की घोषणा स्वागत योग्य है. इसके लिए 20 हजार करोड़ की राशि प्रस्तावित है.
उन्होंने कहा है कि 10 वर्षों में इससे 7417 वर्ग किमी वन क्षेत्र में वृद्धि होगी, वहीं 50.21 मिलियन कार्बन डाइऑक्साइड सोखने में भी मदद मिलेगी. इससे जहां हर साल 1.887 घन मीटर भूजल रिचार्ज होगा, वहीं 964 वर्ग घन मीटर मिट्टी के क्षरण में कमी आयेगी. इस अभियान की शुरुआत नर्मदा से होगी. असलियत में यह कॉप-26 में जतायी प्रतिबद्धता की दिशा में एक प्रयास है, जिससे 2030 तक कॉर्बन उत्सर्जन में कमी लाने का लक्ष्य है.
नर्मदा का औसतन प्रवाह क्षेत्र चौड़ाई में करीब 20 से 25 किमी है. उसके दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में विंध्याचल है. कुछ बरस पहले शिवराज सिंह ने मध्य प्रदेश में वृक्षारोपण के मामले में विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया था. उसके बाद अब नर्मदा किनारे क्या जमीन भी बची है, जहां वृक्षारोपण किया जा सकेगा? मिट्टी का क्षरण उन जगहों पर ज्यादा होता है, जहां पानी का प्रवाह ज्यादा होता है. फिर नदी के पास आते-आते पानी के प्रवाह की गति कम हो जाती है.
जल भराव होने पर पेड़ों की जड़ें सड़ जाती हैं और पेड़ मर सकते हैं. पेड़ों की जड़ें पानी के भराव का काम नहीं कर पाती हैं. पेड़ों के जरिये पानी के भराव की धारणा ही बेमानी है. नदी के किनारे राइपेरियन जोन होता है. उस जोन में वही वनस्पति पैदा होती है जो नदी के लिए हितकारी होती है, इसलिए वहां उसी किस्म के पेड़ लगाये जाने चाहिए. वहां पर दूसरी किस्मों के पेड़ लगाने का कोई औचित्य ही नहीं है.
जब नदी किनारे की जमीन पर वृक्षारोपण होगा तो किसान खेती करेगा या वृक्ष लगायेगा. जब वृक्ष लगायेगा, उस दशा में उसके लिए खेती करना मुश्किल हो जायेगा. तब वह भूमिहीन हो जायेगा या वहां से पलायन कर शहरी श्रमिकों की श्रेणी में शामिल हो जायेगा. वह मुफ्त राशन पाने वाले 80 करोड़ लोगों की तादाद में इजाफा ही करेगा. नदी केवल वन क्षेत्रों से ही नहीं निकलती, वह दूसरे इलाकों से भी होकर जाती है. वन क्षेत्र में किसी अन्य को जाने की पाबंदी है, ऐसी दशा में वन क्षेत्र के बाहर रेवेन्यू एरिया में उसका माई-बाप कौन होगा, यह समझ से परे है.
वन एवं पर्यावरण मंत्री ने दावा किया है कि गंगा दुनिया की दस स्वच्छ नदियों में से एक है और इन तेरह नदियों के संरक्षण की शुरुआत उन्होंने गंगा के स्वच्छता अभियान में सफलता के बाद की है. बता दें कि गंगा आज भी उतनी ही मैली है जितनी 1986 में थी. आज भी फर्रुखाबाद के बाद वाराणसी और उसके आगे का जल इतना प्रदूषित है कि उसमें स्नान करने से ही लोगों को त्वचा, श्वांस, आंत्रशोध, पीलिया जैसी बीमारियां हो सकती हैं.
सैकड़ों एसटीपी खराब पड़े हैं और कुछ में तो बिजली की आपूर्ति ही नहीं है. साल 1986 में गंगा एक्शन प्लान से लेकर 2014 में शुरू नमामि गंगे परियोजना, जिसमें केंद्र सरकार के सात मंत्रालयों की प्रतिष्ठा दांव पर थी, हजारों करोड़ स्वाहा हो गये, उसके बाद भी देश की राष्ट्रीय नदी, पुण्यदायिनी, पतितपावनी गंगा जस की तस है.
जहां तक जनजागरण का सवाल है, अपने कार्यकाल में उमा भारती व नितिन गडकरी ने भी नमामि गंगे योजना के तहत जनजागरण का दावा किया था. वह धरा का धरा रह गया. रिवर फ्रंट और उसके पास सड़कें बना देने से किसी नदी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला. ठीक उसी तरह देश में वनसंपदा की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है, जबकि हकीकत में वन क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है. सीएसई की रिपोर्ट कहती है कि देश से 36 फीसदी वन क्षेत्र गायब हैं.
सरकार घोषणा कर रही है कि इन 13 नदियों के संरक्षण हेतु वानिकी के लिए 20 हजार करोड़ की राशि का प्रस्ताव किया गया है. किसी योजना को लेकर भले ही दावे कुछ किये जायें, हकीकत जनता के सामने होती है. मंत्री जी के अनुसार इन 13 नदियों की योजना में देश की 202 सहायक नदियों को जोड़ा जायेगा. उनका भविष्य क्या होगा, यह सहज ही समझ में आता है. प्रमाण है कि नदियों के संरक्षण के जो भी प्रयास किये गये हैं, उसके अपेक्षित परिणाम नहीं आये हैं. ऐसा लगता है सारी कवायद बीते बरसों में नदियों के प्रवाह, नदी प्रदूषण व रेत के खनन को लेकर जनता के रोष व मीडिया में आ रही चर्चाओं पर विराम लगाने का एक प्रयास है.
जरूरत इस बात की है कि डीपीआर से पहले इस विषय पर जनमानस में विचार-विमर्श की प्रक्रिया के माध्यम से इसके गुण-लाभ और हानि का जायजा लिया जाये. कोरोना महामारी के कारण हमारी अर्थव्यवस्था के सामने कठिन चुनौतियां हैं. ऐसी दशा में यह काम सोच-समझकर किया जाना चाहिए. इस कार्य हेतु एक सक्षम टीम की भी जरूरत है जो नदियों की समग्रता को समझे और जिनमें जिम्मेदारियों को स्वीकार करने की योग्यता हो, तभी कुछ सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है और नदियों की पुरानी भूमिका को पुनर्जीवित किया जा सकता है.