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फार्मा क्षेत्र की साख बचाना जरूरी

भारत में 10 हजार से अधिक दवा निर्माण इकाइयां हैं, जिनमें से दो हजार को वास्तव में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने तय मानकों पर खरा और प्रामाणिक पाया है.

जनवरी 2020 में हिमाचल प्रदेश स्थित डिजिटल विजन द्वारा निर्मित दवा कोल्डबेस्ट पीसी कफ सिरप का सेवन करने से जम्मू में 12 बच्चों की मौत हो गयी. इसमें डायथिलीन ग्लाइकोल पाया गया, जिससे किडनी में जहर फैल जाता है. दिलचस्प है कि गुणवत्ता परीक्षण में विफल होने के बावजूद विभिन्न राज्य और केंद्रीय दवा प्रयोगशालाओं द्वारा 19 मौकों पर दवा को हरी झंडी दी गयी थी.

इस घटना के बाद हिमाचल के राज्य नियामक ने भी फरवरी 2020 में मौके पर जाकर किये गये निरीक्षण में दवा बनाने में गुणवत्ता का दोष पाया. आलम यह है कि छह महीने बाद फिर से इसी कंपनी के एक और उत्पाद कफसेट कफ सिरप के सेवन से हिमाचल प्रदेश के दो साल के एक बच्चे की मौत हो गयी. मार्च 2021 में एक और दवा नाइसप सिरप में परीक्षण एजेंसियों द्वारा सक्रिय संघटक के निम्न स्तर पाये गये. इतने पर भी इस दवा का उत्पादन बंद करने को लेकर कार्रवाई बहुत प्रभावी नहीं रही.

गौरतलब है कि भारत में 36 ड्रग रेगुलेटर हैं, फिर भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं. फार्मास्यूटिकल्स उद्योग पर भारत को गर्व रहा है. भारत विश्व स्तर पर जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता है. वैश्विक फार्मा बाजार में हमारी हिस्सेदारी 13 फीसद है और हम 200 से अधिक देशों को दवाओं की आपूर्ति करते हैं. टीकों के मामले में तो हमारी वैश्विक हिस्सेदारी 60 फीसद है.

प्रतिस्पर्धी विनिर्माण के क्षेत्र में भारत की यह कामयाबी दुनिया भर में मिसाल के तौर पर देखी जाती है. हालांकि निर्यात बाजार में दवा नियमों और भारतीय दवाओं के अप्रभावी या हानिकारक होने की अपमानजनक घटनाओं से इस सेक्टर को भारी नुकसान पहुंच रहा है. 48 आम दवाएं हाल ही में गुणवत्ता मानकों को पूरा करने में विफल रही हैं.

इस साल फरवरी में, तमिलनाडु की एक फर्म ग्लोबल फार्मा हेल्थकेयर द्वारा अमेरिका निर्यात किये गये आई ड्रॉप्स के एक पूरे बैच को वापस लेना पड़ा, क्योंकि इससे आंखों को नुकसान पहुंच सकता था. मैडान फार्मास्युटिकल्स और मैरियन बायोटेक द्वारा भारत में बनाये गये खांसी के सिरप को 2022 में क्रमशः गांबिया और उज्बेकिस्तान में बच्चों की मौत से जोड़ा गया था.

अलबत्ता, इस मामले में भारत के ड्रग रेगुलेटर ने ऐसी किसी लिंकेज से इनकार किया और बताया कि सैंपल जांच में कोई जहरीला पदार्थ नहीं पाया गया है. दवाओं की गुणवत्ता मामलों का निजी और सामाजिक दोनों ही तरह का असर पड़ सकता है. ऐसी कई घटनाएं हैं, जहां एजिथ्रोमाइसिन जैसी सामान्य दवा को कम प्रभावी पाया गया है. कुछ अध्ययनों ने ऐसी दवाओं में सक्रिय संघटकों के स्तर पर टिप्पणी भी की है.

भारत के औषधि महानियंत्रक (डीजीसीआइ) द्वारा 20 राज्यों की 76 फर्मों के निरीक्षण के बाद 18 फार्मा कंपनियों के विनिर्माण लाइसेंस रद्द करने के साथ केंद्र सरकार दवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठा रही है. वैश्विक नियामकों की कार्रवाई भी जारी है. नवंबर, 2019 से पिछले साल नवंबर तक अमेरिकी एजेंसी एफडीए ने 60 आधिकारिक कार्रवाइयों (ओएआइ) के बारे में संकेत दिये हैं. एफडीए के कुछ चुनिंदा निरीक्षणों में, खास कर कैंसर संबंधित और इंसुलिन दवाओं के बनाने में स्थापित प्रक्रियाओं का पालन नहीं होता पाया गया.

जाहिर है कि फार्मा क्षेत्र पर ठोस विनियामकीय सुधार की बहुत आवश्यकता है. इसके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय सभी फार्मा निर्माताओं पर प्रभावी निगरानी के लिए दवाओं के केंद्रीकृत डेटाबेस को बढ़ावा देने की पहल के साथ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट (1940) में संशोधन कर सकता है. यदि संघीय-राज्य सहयोग इसकी अनुमति देता है, तो भारत के 36 क्षेत्रीय नियामकों को एक एकल नियामकीय व्यवस्था की शक्ल दी जा सकती है.

इससे स्थानीय व राज्य स्तर पर नियामकीय प्रक्रिया को प्रभावित करने के जोखिम न्यूनतम हो जायेंगे. भारत में 10 हजार से अधिक दवा निर्माण इकाइयां हैं, जिनमें से दो हजार को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने तय मानकों पर खरा पाया है. ऐसी इकाइयां तीन हजार से अधिक फर्मों के स्वामित्व में हैं, जिनमें हजारों उत्पादों का निर्माण किया जा रहा है. इन सभी को विनियमित करने का अर्थ है- निरीक्षण की एक बड़ी जवाबदेही.

अतीत में नियमित जांच के दौरान महज सक्रिय अवयवों की कमी पर रोशनी डाली गयी है. 2013 में तमिलनाडु में एक एंट्री एलर्जिक दवा को सिर्फ ग्लिपीजाइड का इस्तेमाल न होने के कारण गैर-मानकीय करार दिया गया. राज्य दवा नियंत्रकों के तहत निरीक्षण टीमों को मजबूत करने और निरीक्षण अवधि को कम और नियमित करने के लिए अतिरिक्त बजटीय सहायता की जरूरत है.

भारत में बनी दवाओं के प्रति भरोसा बढ़ाने के लिए नियामकीय प्रक्रिया का पारदर्शी और प्रभावी होना जरूरी है. गंभीर नियामकीय व गुणवत्ता संबंधी उल्लंघनों का डेटाबेस सार्वजनिक होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को नकली दवाओं का निर्यात करने वाली फर्मों के लिए स्थापित स्पष्ट दंड (पीड़ित के लिए मुआवजे सहित) के साथ सुरक्षा डेटा को प्रचारित करना समय की मांग है.

हमें ड्रग रिकॉल पर एक राष्ट्रीय कानून के लिए भी गंभीरता से विचार करना चाहिए. यह प्रस्ताव 1976 से लटका है. इसके अलावा केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) का वैधानिक सामर्थ्य भी बढ़ाना चाहिए. इसके लिए कम-से-कम एक स्वतंत्र निकाय के रूप में, एक केंद्रीय औषधि प्राधिकरण बनाने के लिए ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स (संशोधन) विधेयक, 2013 की तरह एक बिल लाया जाना चाहिए. फिलहाल जो स्थिति है, उसमें भारत के नियामकीय मानकों को स्पष्ट रूप से बढ़ाना होगा.

खास तौर पर निश्चित खुराक तय किये जाने को लेकर अनुमोदन प्रक्रिया पर नजर रखनी होगी. दवाओं के मामले में हमारी विनियमन व्यवस्था को व्यापक रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य की सेवा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखानी होगी. इसके साथ, भारत के विश्व प्रसिद्ध फार्मास्युटिकल उद्योग को साधारण जेनेरिक दवाओं के निर्माण से आगे गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक व नवोन्मेषी दवाओं के निर्माण से जुड़े उद्योग की ओर बढ़ना चाहिए.

मीडिया कवरेज की प्रतिकूलता के बावजूद इक्वाडोर, पनामा और नाइजीरिया जैसे देशों ने हाल ही में भारतीय जेनेरिक दवाओं में अपनी बढ़ी दिलचस्पी जाहिर की है. भारत सरकार ने शून्य दोष के साथ मेक इन इंडिया की बात की है. इसी आलोक में देश के दवा उद्योग से जुड़ी चुनौती पर खरा उतरने के लिए संकल्पपूर्वक आगे बढ़ना होगा.

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