यह अब सिर्फ ‘आकाशवाणी’ है

सार्वजनिक प्रसारण को स्वायत्तता देने वाले प्रसार भारती अधिनियम में भी आकाशवाणी नाम ही देने की बात कही गयी है. प्रसार भारती अधिनियम 15 नवंबर, 1997 से लागू हुआ

By उमेश चतुर्वेदी | May 19, 2023 8:00 AM

भले ही हमें अपने देश के नाम भारतवर्ष पर गर्व हो, लेकिन भारतीय संविधान में उसके लिए अंग्रेजी की एक पंक्ति का इस्तेमाल किया गया है- इंडिया दैट इज भारत. आजादी से अमृतवर्ष तक की हमने यात्रा पूरी तो कर ली है, लेकिन अब भी आधिकारिक रूप से ‘इंडिया दैट इज भारत’ ही है. कुछ इसी तरह भारत के सार्वजनिक रेडियो प्रसारण सेवा को भी ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के नाम से ही जाना जाता रहा है. वैसे वर्ष 1957 में इसके नाम का भारतीयकरण कर इसे आकाशवाणी कर दिया गया था.

हिंदी फिल्मों के मशहूर गीतकार और निराला के समकालीन कवि पंडित नरेंद्र शर्मा के सुझाव पर यह नाम रखा गया था. लेकिन सार्वजनिक रेडियो प्रसारण के लिए हिंदी समेत कुछ ही भारतीय भाषाओं में आकाशवाणी नाम का प्रयोग होता था. लेकिन आजादी के अमृतवर्ष में अब ऑल इंडिया रेडियो बीते दिनों की बात होने की तरफ बढ़ चला है. तीन मई, 2023 के दिन से अब सार्वजनिक प्रसारक को सिर्फ आकाशवाणी नाम से ही जाना जायेगा.

तीन मई को जब सार्वजनिक प्रसारण सेवा नियंत्रक प्रसार भारती ने अपनी रेडियो प्रसारण सेवा के लिए सिर्फ आकाशवाणी नाम का प्रयोग करने का निर्देश दिया, तब संयोग से कर्नाटक में विधानसभा चुनाव चल रहे थे. साल 1937 से ही यह रवायत है कि जब भी हिंदी का प्रयोग शुरू होता है, दक्षिण भारत से जानबूझकर विरोध की कुछ आवाजें उठने लगती हैं.

दिलचस्प यह है कि राजनीति के मुलम्मे में उठने वाली आवाजों का बहाना दक्षिण का लोक होता है. कुछ इसी अंदाज में आकाशवाणी के प्रयोग के फैसले का विरोध भी हुआ. विशेषकर भारतीय जनता पार्टी विरोधी खेमे से ऐसी आवाजें उठाने और वोटरों के बीच मुद्दा बनाने की कोशिशें हुईं.

लेकिन आवाज उठाने वाले शायद एक तथ्य से अनजान रहे. सार्वजनिक रेडियो प्रसारण के लिए आकाशवाणी नाम भले ही 1957 में दिया गया था, लेकिन भारत में आजादी से काफी पहले ही आकाशवाणी नाम से एक रेडियो स्टेशन शुरू हो चुका था. दिलचस्प यह है कि 10 सितंबर, 1935 को यह स्टेशन अंग्रेज सरकार या किसी राजपरिवार का नहीं था, बल्कि यह मैसूर के एक अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एमवी गोपालस्वामी का था. मैसूर राजमहल से करीब दो सौ मीटर दूर स्थित अपने घर से उन्होंने यह स्टेशन शुरू किया था.

कर्नाटक के चुनाव में मुद्दा बनाने की कोशिश में जुटे लोगों को जैसे ही पता चला कि आकाशवाणी नाम से उनके ही राज्य के प्रमुख शहर मैसूर में आजादी के पहले ही रेडियो स्टेशन प्रसारण हो रहा था, तो जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन निकल गयी. प्रोफेसर एमवी गोपालस्वामी ने अपने रेडियो स्टेशन का नाम ‘आकाशवाणी मैसूर’ रखा था. आकाशवाणी मैसूर के प्रसारण शुरू होने के ठीक आठ महीने और 28 दिन बाद आठ जून, 1936 को भारत सरकार ने ऑल इंडिया रेडियो शुरू किया था. साफ है कि रेडियो के लिए आकाशवाणी नाम ऑल इंडिया रेडियो नाम मिलने से पहले ही हासिल हो चुका था.

जब भी हिंदीकरण की शुरूआत होती है या उसे बढ़ावा देने की बात होती है, दक्षिण के अलावा पश्चिम बंगाल से भी विरोध की आवाज उठती है. यह हैरत की ही बात है कि जिस पश्चिम बंगाल की धरती पर हिंदी पत्रकारिता परवान चढ़ी, जिस बंगाल के मनीषी केशवचंद्र सेन ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव दिया, जिसकी माटी से उपजे तेजस्वी भारतपुत्र सुभाषचंद्र बोस ने राष्ट्र के संबोधन के लिए हिंदी को चुना, उस बंगाल की धरती से भी हिंदीकरण की प्रक्रिया का विरोध होता है.

शुक्र की बात यह है कि ऑल इंडिया रेडियो के आकाशवाणीकरण की प्रक्रिया का कोई विरोधी सुर बंगाल की धरती से नहीं उठा. बहुत कम लोगों को पता होगा कि साल 1939 में ऑल इंडिया रेडियो के कलकत्ता केंद्र से शॉर्ट वेव के प्रसारण की शुरुआत हुई थी. उस समय नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर से रेडियो के लिए संदेश मांगा गया था.

तब उन्होंने एक कविता के माध्यम से अपना शुभकामना संदेश भेजा था. उस कविता का शीर्षक ही ‘आकाशवाणी’ था. उस कविता का भावार्थ है- ‘धरती से आसमान तक/ नाप ली गईं दूरियां/ प्रकाश की लहरों में/ पूर्व और पश्चिम तक जुबान/ सूरज की किरणों सी पहुंचीं/ स्वर्ग की सीमा तक पहुंचा मानव का मन/ जीत गयी मन की आजादी.’ सार्वजनिक प्रसारण को स्वायत्तता देने वाले प्रसार भारती अधिनियम में भी आकाशवाणी नाम ही देने की बात कही गयी है.

प्रसार भारती अधिनियम 15 नवंबर, 1997 से लागू हुआ, लेकिन इसे नौकरशाही की अंग्रेजीपरस्ती कहें या कुछ और, आकाशवाणी शब्द को सार्वजनिक रेडियो प्रसारण के नाम के तौर पर मुकम्मल इस्तेमाल की तरफ किसी का ध्यान वर्षों तक नहीं गया. अब आकाशवाणी के नाम से सार्वजनिक रेडियो प्रसारण जाना जाने लगा है. प्रधानमंत्री के संबोधन ‘मन की बात’ के जरिये उसे नयी पहचान भी मिली है. अब भी उसके कितने ऐसे चहेते श्रोता हैं, जिन्हें लगता है कि उसका स्वर्णिम अतीत फिर से लौटाया जाना चाहिए.

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