घाई सहयोग संगठन की दो दिवसीय वार्षिक बैठक 15 और 16 अक्टूबर को पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में आयोजित हो रही है. इस आयोजन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व विदेश मंत्री एस जयशंकर करेंगे. लगभग एक दशक के बाद भारत के किसी वरिष्ठ मंत्री या अधिकारी की पाकिस्तान यात्रा होगी. ऐसे में स्वाभाविक है कि इस दौरे को लेकर उत्सुकता बहुत है और इस कारण इसके बारे में चर्चा भी खूब हो रही है. साल में इस संगठन की दो बैठकें होती हैं. एक में सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष हिस्सा लेते हैं और दूसरे में शासनाध्यक्ष. इनके प्रतिनिधि के तौर पर वरिष्ठ मंत्री भी आयोजनों में भाग लेते हैं. भारत में 2023 में ये बैठकें हुई थीं, जिनमें से एक में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो भारत आये थे. प्रमुखों की बैठक वर्चुअल माध्यम से हुई थी. बीते सालों में, खासकर 2019 से, भारत और पाकिस्तान के संबंधों में बहुत गिरावट आयी है. हालांकि जयशंकर ने स्पष्ट किया है कि उनकी यह यात्रा शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के लिए है, न कि द्विपक्षीय वार्ता के लिए.
इस यात्रा को लेकर दो तरह की बातें हो रही हैं. पाकिस्तान के रवैये और द्विपक्षीय मसलों के कारण भारत सार्क सम्मेलन में हिस्सेदारी को लेकर हिचकता रहा है, जो पाकिस्तान में होना प्रस्तावित है. इस कारण वह बैठक नहीं हो पा रही है. ऐसे में विदेश मंत्री का जाना महत्वपूर्ण हो जाता है. दूसरी बात यह है कि क्या इससे हम द्विपक्षीय संबंधों के मामले में कुछ अपेक्षा कर सकते हैं. क्या इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के विदेश मंत्रियों और अधिकारियों की कोई बातचीत होगी और क्या इससे भविष्य में वार्ता के लिए कोई रास्ता खुल सकता है? पाकिस्तान में एक नयी सरकार सत्ता में है और उसकी ओर से भी ऐसे संकेत दिये गये हैं कि वह भारत के साथ संबंध बेहतर करना चाहते हैं. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू नहीं हो पा रही थी, इसके लिए कोई सिरा नहीं मिल पा रहा था, शायद उसके लिए एक अवसर मिल सकेगा. जयशंकर ने ऐसा कोई संकेत तो नहीं दिया है, पर एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह जरूर कहा है कि वह वापस आकर बतायेंगे कि वे दोनों देशों के संबंधों को कैसे परिभाषित करते हैं. तो, हमें उम्मीद के साथ कुछ इंतजार करना चाहिए.
शंघाई सहयोग संगठन की इस बैठक का महत्व इस वजह से बहुत बढ़ जाता है कि अभी दुनिया में अनेक गंभीर भू-राजनीतिक संकट हैं और स्थितियां किस दिशा में जायेंगी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है. इस संगठन में रूस और चीन जैसी शक्तियों के साथ भारत, पाकिस्तान और ईरान भी सदस्य हैं तथा मध्य एशियाई गणराज्य भी इसके हिस्से हैं. अभी ईरान और इस्राइल के बीच के संघर्ष को लेकर दुनिया चिंतित है. इस बैठक में इस पर अवश्य चर्चा होगी. रूस-यूक्रेन युद्ध तो एक गंभीर मसला है ही. तुर्की और बांग्लादेश जैसे देश इस संगठन के संवाद सहभागी हैं और अनेक देश इस समूह की सदस्यता भी लेना चाहते हैं. तो, पश्चिम एशिया को लेकर बातचीत अपेक्षित है. अफगानिस्तान भी समूह का सदस्य है, पर तालिबान को मान्यता न होने के कारण उसकी सदस्यता अभी निष्क्रिय है. कुछ दिन पहले रूस में दस देशों के एक समूह की अफगानिस्तान को लेकर बैठक हुई है, जिसमें तालिबान शासन के प्रतिनिधि भी थे. उक्त समूह में भारत भी शामिल है. विशेष रूप से चीन और रूस की ओर से ऐसे प्रयास हो रहे हैं कि तालिबान के साथ आधिकारिक संपर्क बने और उसे मान्यता दी जाए या उस जैसी कोई व्यवस्था हो. इस पर भी बातचीत अपेक्षित है.
पश्चिम एशिया का संकट हो या रूस-यूक्रेन युद्ध, शंघाई सहयोग संगठन के सदस्यों पर इन घटनाओं का असर पड़ रहा है. इसी माह रूस में ब्रिक्स समूह का शिखर सम्मेलन होने जा रहा है. संगठन के अनेक सदस्य ब्रिक्स के सदस्य या पर्यवेक्षक हैं. इस आलोक में भी इस्लामाबाद की बैठक महत्वपूर्ण हो जाती है. यह संगठन दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय समूह है. इसका मुख्य सरोकार सुरक्षा को लेकर है. वैश्विक व्यवस्था में जो बदलाव हो रहे हैं, उसमें गैर-पश्चिमी शक्तियों की बड़ी अहमियत हैं. इनमें तीन बड़ी ताकतें- चीन, रूस और भारत- इस संगठन के सदस्य हैं. पश्चिमी देशों के सुरक्षा संगठन नाटो की दृष्टि स्वाभाविक रूप से पश्चिम केंद्रित है. उस संदर्भ में यह संगठन प्रभावी भूमिका निभाने की स्थिति में है. आज हम इस समूह को वैसे प्रभावशाली रूप में भले न देखें, इसकी बड़ी वजह है कि सदस्यों के बीच उनके अपने अनेक मसले अनसुलझे हैं, पर भविष्य में इसकी भूमिका को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए. अनेक देश सदस्य या संवाद सहभागी के रूप में इससे जुड़ने के इच्छुक हैं, जिनमें गैर-पश्चिमी देश और क्षेत्रीय शक्तियां हैं. सम्मेलन पाकिस्तान में हो रहा है और सभी सदस्य भाग ले रहे हैं, यह पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए सकारात्मक है.
हाल के दिनों में हमने देखा है कि भारत क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर अधिक सक्रिय हुआ है. इसका बहुत कुछ श्रेय, विशेषकर मालदीव के मामले में, विदेश मंत्री जयशंकर को जाता है. हाल में उन्होंने श्रीलंका में नये राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से बातचीत की है, जिनके चुनाव को लेकर भारत में कुछ आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं. उनकी कोलंबो यात्रा ने उन आशंकाओं पर विराम लगा दिया है. वे बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के भी संपर्क में हैं. संयुक्त राष्ट्र की बैठक के मौके पर उन्होंने वहां के प्रतिनिधियों से बात भी की है. यूक्रेन और पश्चिम एशिया के मामले में भी वे सक्रिय रहे हैं. चीन के साथ भी उनका संपर्क और संवाद बना हुआ है. इन प्रयासों के उत्साहजनक नतीजे भी हम देख रहे हैं. इस्लामाबाद बैठक में दक्षिण एशिया पर भी चर्चा अपेक्षित है क्योंकि क्षेत्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है तथा सभी सदस्य देशों के हित इससे जुड़े हुए हैं. पिछली बार जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री भारत आये थे, तब उनकी कुछ टिप्पणियां भारत को नागवार गुजरी थीं और वे अनावश्यक टिप्पणियां भी थीं. आशा है कि पाकिस्तान की ओर से, या किसी अन्य सदस्य देश की ओर से, ऐसी बातें नहीं होंगी और इस सम्मेलन में सकारात्मक चर्चा के जरिये ठोस समझ बनाने की कोशिश होगी. निश्चित रूप से सबकी निगाहें सम्मेलन पर टिकी होंगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
जयशंकर के पाकिस्तान दौरे के मायने
इस यात्रा को लेकर दो तरह की बातें हो रही हैं. पाकिस्तान के रवैये और द्विपक्षीय मसलों के कारण भारत सार्क सम्मेलन में हिस्सेदारी को लेकर हिचकता रहा है, जो पाकिस्तान में होना प्रस्तावित है. इस कारण वह बैठक नहीं हो पा रही है. ऐसे में विदेश मंत्री का जाना महत्वपूर्ण हो जाता है. दूसरी बात यह है कि क्या इससे हम द्विपक्षीय संबंधों के मामले में कुछ अपेक्षा कर सकते हैं. क्या इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के विदेश मंत्रियों और अधिकारियों की कोई बातचीत होगी और क्या इससे भविष्य में वार्ता के लिए कोई रास्ता खुल सकता है?
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