Jharkhand land scam: जमीन घोटालों में कई प्रशासनिक अधिकारियों के नाम आये हैं, कार्रवाई हुई है और कई अधिकारी जेलों में भी बंद हैं. यह मामला झारखंड के लिए नासूर बनता जा रहा है. समय रहते इसे सुलझाया नहीं गया, तो भविष्य झारखंड के लिए खतरनाक हो सकता है. राज्य में आदिवासी जमीनों के इतिहास को जानने वालों की संख्या बहुत कम है. बहुत लोगों को तो यह भी नहीं पता कि भुईंहरी जमीन पर सरकार का अधिकार ही नहीं है. इस जमीन के बीसियों मालिक तक को नहीं पता कि उनकी जमीन कहां है, कितनी है और किस अवस्था में है. काश्तकारी कानूनों के जानकारों का मानना है कि जो आदिवासी कल तक मालिक थे, वे अपनी जमीन खोते जा रहे हैं और जमीन दलाल से लेकर व्यापारी तक उसी जमीन को बेच मालामाल हो रहे हैं.
झारखंड में अखंड बिहार के समय से ही आदिवासी समुदाय के लिए कई भूमि सुधार कानून बनाये गये. इनसे आदिवासी समुदाय को थोड़ा फायदा तो हुआ, पर जागरूकता के अभाव में कानून केवल हाथी का दांत बन कर रह गया है. राज्य में सबसे अधिक लूट आदिवासियों की जमीन की ही हुई है. झारखंड में भूमि की कई प्रकार की प्रकृति है, जिनमें एक भुईंहरी भूमि है. ऐसी जमीन पुराने रांची जिले में शामिल लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा और खूंटी में है. आंकड़े बताते हैं कि 2,482 गांवों में भुईंहरी जमीन कभी आबाद थी. रांची के मोरहाबादी, बरियातु, कोकर, लालपुर, कांके, डोरंडा, हिनू, सिरोम, चुटिया, नामकुम, कटहलमोड़, दलादली, कोकड़, काठीटांड जैसे क्षेत्रों में राजधानी बनने के बाद से करीब 80 प्रतिशत भुईंहरी जमीन विलुप्त हो चुकी है. जानकारों की मानें, तो इन जमीनों के स्वामी उरांव व मुंडा हैं. रांची के शहरी क्षेत्र में करीब 80 प्रतिशत जमीन दोनों समुदायों के हाथ से निकल चुकी है. भुईंहरी जमीन के अधिकतर खतियानों के नामोनिशान भी मिटा दिये गये हैं. यह जमीन बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 के दायरे में नहीं आती है. इस पर पूर्ण रूप से आदिवासी जमींदारों का हक है.
भुईंहरी जमीन वह है, जो जंगल को साफ कर खेती योग्य बनायी गयी. इस जमीन में ही एक भूत खेत यानी ग्राम देवता को समर्पित भूमि वाली प्रकृति की जमीन है. इसका उपयोग वे करते थे जो अपने मान्य देवता की पूजा करते थे. भूत खेत, जिसकी खेती सामान्यतः गांव वालों की सहायता से की जाती थी, इसकी अगुआई गांव के पाहन करते थे. ऐसे खेत की उपज का उपयोग ग्राम-देवताओं की पूजा में किया जाता है. सभी ग्रामीण मिल कर तीन वर्ष के लिए अपने पाहन का चुनाव करते हैं और भूत खेत भूमि की मिल्कियत परिवर्तित होती रहती है. यह व्यवस्था हर जगह हर तरह से चलायी जाती है. पहले तो इस क्षेत्र में लोग नहीं आते थे, क्योंकि भूमि समतल नहीं थी और सघन जंगल था, पर 19वीं सदी में छोटानागपुर में बसनेवालों की संख्या बढ़ने लगी. साल 1871 में गैर आदिवासियों की संख्या यहां मात्र 96,000 थी, लेकिन 1931 तक यह संख्या 3,07,000 हो गयी. छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम की धाराओं की आड़ में शहरी भूमि का हस्तांतरण बाहर के समाज के लोगों द्वारा अपने समुदाय के गरीब लोगों की भूमि को औने-पौने भाव पर खरीद कर बड़ी इमारतों का निर्माण कराया गया है. सभी वर्गों के लोगों ने बिचौलियों व दलालों की मिलीभगत से अकूत संपदा अर्जित की है.
दरअसल, दक्षिण पठार के मैदानी इलाकों में उपनिवेशवादी प्रवृति वाले समूह द्वारा आदिवासी कृषि व्यवस्था और सामाजिक ढांचे पर नियंत्रण 19वीं शताब्दी में ही प्रारंभ हो गया था. आदिवासी जमीनों पर पांव पसारने में 1869 के बाद ही गैर-आदिवासियों को कामयाबी मिली. आदिवासी जमीन की लूट के पीछे एक संगठित गिरोह काम करता है. इसमें वे स्थानीय आदिवासी नेता भी शामिल हैं, जो जमीन लूट का विरोध कर अखबारों की सुर्खियां बटोरते रहते हैं. झारखंड में केवल भुईंहरी जमीन की ही लूट नहीं हुई है. आदिवासियों की निजी जमीन भी लूटी जा रही है. पर सरकार और प्रशासन मौन साधे हुए है.
कानून तो यहां तक है कि एक आदिवासी दूसरे क्षेत्र में जाकर जमीन नहीं खरीद सकता है, लेकिन यहां तो पूरे देश के गैर-आदिवासी आदिवासियों की जमीन खरीद रहे हैं. रांची में अधिकांश जमीन उरांव जनजाति की रही है. अब उसके पास खुद के बसने के लिए जमीन नहीं है. इस पूरे मामले में धार्मिक व सामाजिक संगठनों की भूमिका भी संदिग्ध है. जंगल, बालू, पानी, खनिज की लूट तो बड़ी लूट है, यहां तो निजी जमीन की भी लूट हो रही है. यदि यह नहीं रुका, तो झारखंड के 26 प्रतिशत आदिवासी बेदखल हो जायेंगे. मैं ऐसा कतई नहीं कहता कि बाहरी लोग न आएं, पर वे संस्कृति व व्यवस्था में योगदान के लिए आएं और प्रदेश को उन्नत बनाएं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)