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वापस लौटे मजदूरों को रोजगार

अब जबकि सरकार ने अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की है, ‘लोकल को वोकल’ करने की बात हो रही है, तो ऐसे में मनरेगा जैसे और कार्यक्रमों की जरूरत होगी.

By डॉ अनुज | May 27, 2020 5:00 AM

डॉ अनुज लुगुन, प्राध्यापक, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

anujlugun@cub.ac.in

अब जबकि सरकार ने अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की है, ‘लोकल को वोकल’ करने की बात हो रही है, तो ऐसे में मनरेगा जैसे और कार्यक्रमों की जरूरत होगी.

पहले अपनी जड़ों से जीविका की तलाश में माइग्रेशन यानी पलायन, और अब कोरोना की वजह से अपनी जान बचाने के लिए रिवर्स माइग्रेशन यानी पलायन कर गये लोगों की वापसी. यह सिर्फ महामारी की वजह से नहीं हो रहा है, बल्कि इसके लिए बहुत हद तक हमारी सामाजिक अव्यवस्था जिम्मेदार है. एक दौर था, जब गरीबी मिटाने की बात सुनायी देती थी. गरीबी मिटाने का विचार ग्रामीण और शहरी, औद्योगिक और खेती-किसानी, हर क्षेत्र के मजदूरों से जुड़ा हुआ था. नक्सलबाड़ी आंदोलन के उभार ने इस बहस को तेज किया था. लेकिन बहुत जल्द यह विचार बहस से बाहर हो गया.

औद्योगिक विस्तार के साथ मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षाएं मजबूत होती गयीं और देखत-देखते मजदूर और गरीबों की जगह कथित विकास नाम के अजगर ने कुंडली मार ली. अगर हम नब्बे के दशक के बाद की अपनी संसदीय राजनीति को देखें, तो शायद ही किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में मजदूर केंद्र में हो. कथित विकास की हवाई बातें होती रहीं और एक छोटा तबका औद्योगिक मुनाफे का स्वाद लेता रहा. कुछ हिस्सों की चमक बढ़ती रही और हम सोचते रहे कि देश आगे बढ़ रहा है. वास्तव में हमारा समाज आगे बढ़ने की जगह गुब्बारे की तरह फूल रहा था. कथित विकास की उड़ान में हमारा देश कभी भी आत्मालोचन की प्रक्रिया से गुजरा ही नहीं. सवाल करनेवालों के पक्ष को विकास विरोधी या देश विरोधी कहकर दबा दिया गया. परिणाम यह हुआ कि कोरोना की मार ने हमारी बुनियाद को हिला दिया.

मजदूर क्यों विवश होकर अपने घरों की ओर लौट रहे हैं? क्या उनके घरों में रोजगार की व्यवस्था हो गयी है? एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि अच्छी नौकरी वाला मध्य वर्ग भी अपनी रोजी-रोटी के लिए पलायन करता है, लेकिन इस संकट में वह तो पैदल अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए विवश नहीं है? ऐसा क्यों है? यह बात अब खुलकर सामने आ गयी है कि सुदूरवर्ती क्षेत्रों, गांवों और कस्बों में आधारभूत ढांचा विकसित ही नहीं किया गया है. ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था मजबूत करने का कोई गंभीर प्रयास हुआ ही नहीं है. कहा जाता है कि भारत गांवों का देश है. लेकिन, हकीकत तो यह है कि गांवों को अर्थव्यवस्था का मजबूत स्तंभ बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल हुए ही नहीं हैं. किसानी को केवल मुआवजों और राहत पैकेजों के एजेंडे तक ही सीमित कर दिया गया.

इसे उद्योग से जोड़ने के उपायों के बजाय औद्योगिक निवेश के सस्ते दरवाजों की तलाश की गयी और किसानों को ही मजदूर में रूपांतरित होने के लिए विवश किया गया. माना कि उदारवाद के दौर में औद्योगिक विकास को तेज करने, सूचना क्रांति के तकनीकों से जुड़ने और विश्व बाजार का हिस्सा बनने की जरूरत थी, लेकिन उसी के समानांतर सुदूरवर्ती क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था की बुनियाद को मजबूत करने की योजनाएं क्यों लागू नहीं की गयीं? विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) जैसी परियोजना घोषित हुई, लेकिन उसका स्वरूप क्या था और उसका परिणाम क्या हुआ? भले ही यह निवेश के लिए एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम था, लेकिन इसने सुदूरवर्ती क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के बदले वहां विस्थापन और पलायन की समस्या को पैदा किया. इससे जुड़ी भूमि अधिग्रहण की परियोजना ने किसानों और आदिवासियों के साथ टकराहट पैदा की.

अर्थव्यवस्था की दर बढ़ाने की पहल का भले ही यह हिस्सा हो, लेकिन इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता को कोई फायदा नहीं मिला. जब हम अर्थव्यवस्था की बातें करते हैं, तो एक खटका हमेशा बना रहता है कि जिन क्षेत्रों में औद्योगिक परियोजनाएं होती हैं, जहां कारखाने होते हैं या खनन इकाइयां होती हैं, वहां की किसानी जमीन यूं ही बिना खेती के अनुर्वर क्यों छोड़ दी जाती हैं? वहां बसते हुए कॉलोनियों के आस-पास झुग्गी-झोपड़ी क्यों बसने लगती हैं और वहां के परंपरागत किसान नशे के शिकार क्यों हो जाते हैं? औद्योगिक परियोजनाएं तो विकास के लिए होती हैं. फिर क्यों उन जगहों में विषमता का इतना विद्रूप चेहरा दिखने लगता है? उदाहरण के लिए, झारखंड के सारंडा जंगल के लौह अयस्क खनन क्षेत्र में देश के सबसे पुराने लौह अयस्क के खदान मिलेंगे. यहां रोज ही अरबों रुपये की खुदाई होती है, लेकिन यहां की जनता का जीवन स्तर क्या है? जिस परियोजना से देश की जीडीपी बढ़ती है, जिससे महानगरों की चमक बढ़ती है, उसी की जमीन पर गरीबी क्यों पसरी हुई है? यहां के किसान आदिवासी क्यों महानगरों की तरफ पलायन के लिए मजबूर है? क्यों वह कोरोना के संकट में पैदल अपने गांवों की ओर लौटने को विवश है? क्या यही स्थिति देश के दूसरे क्षेत्रों की नहीं है?

इस बात से इनकार नहीं है कि अब तक जनता को केवल सस्ते श्रमिक में बदला गया है और एक छोटे से वर्ग को जीडीपी के नाम पर पूंजी और उसके मुनाफे का लाभ दिया गया है. उदारवाद के दौर में मनरेगा के अलावा देश में शायद ही ऐसा कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जो स्थानीय स्तर पर पलायन को रोकता हो, या जो निचले स्तर की अर्थव्यवस्था से संवाद करता हो. अब जबकि सरकार ने अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की है, ‘लोकल को वोकल’ करने की बात हो रही है, तो ऐसे में मनरेगा जैसे और कार्यक्रमों की जरूरत होगी. ऐसे कार्यक्रमों को सीधे स्थानीय उत्पादन की प्रक्रियाओं से जोड़ा जाना चाहिए. उन्हें रोजगार के स्थायी विकल्प के रूप में विकसित करना चाहिए. अब तक सत्ता, पूंजी, रोजगार आदि का जो केंद्रीकरण हुआ है, उसका जब तक व्यावहारिक विकेंद्रीकरण नहीं होगा, तब तक वापस लौट रहे मजदूरों को कोई स्थायी रोजगार नहीं दिया जा सकता है. उनको जब तक जीविका का स्थायी आधार नहीं मिलेगा, तब तक माइग्रेशन और रिवर्स माइग्रेशन के यंत्रणादायी चक्र को नहीं रोका जा सकता है.

वापस लौटते मजदूर जहां एक ओर कोरोना के संक्रमण को रोकने में चुनौती बन रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करना अगली बड़ी चुनौती है. ऐसे में अर्थव्यवस्था के वैकल्पिक क्षेत्रों की खोज करना जरूरी है. यह भी जरूरी है कि मजदूर हमारी राजनीतिक चेतना का हिस्सा बनें. एक दौर था जब ‘दुनिया के मजदूरों एक हों’ का मजबूत विचार था. गरीबों की एकजुटता का यह विचार था. अब यह हमारी संसदीय राजनीति के गलियारे से भी मिट चुका है. क्या मजदूरों के प्रतिनिधित्व के बिना उनके हितों की बात की जा सकती है?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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