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पूरे हिमालय का संकट है जोशीमठ

जलवायु परिवर्तन एक बड़े संकट के रूप में पूरी दुनिया में छा रहा है. जोशीमठ में आज जहां एक ओर लोगों के सामने अपना घर छोड़ने का खतरा पैदा हो गया है, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की वजह से जोशीमठ के खिसकने की संभावना और तेजी से बढ़ रही है.

जोशीमठ में जो मौजूदा आपदा है, वह जितनी ज्यादा प्राकृतिक या भूगर्भीय आयामों की वजह से है, उतनी ही बड़ी यह समस्या मानव-जनित भी है. यह सच है कि छह हजार फीट की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ एक स्थायी जमीन पर नहीं, बल्कि बहुत ही अस्थायी और कमजोर आधार पर टिका हुआ है. यह कमजोर आधार हजारों साल पहले यहां जो ग्लेशियर थे, उनके द्वारा छोड़े गये मोरैन (रेत, मलबा, पत्थर आदि) का है, जिस पर जोशीमठ टिका हुआ है.

यह क्षेत्र बद्रीनाथ का प्रवेश द्वार है, यहीं से हेमकुंड साहिब की यात्रा भी जाती है, यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल फूलों की घाटी का भी प्रवेश द्वार है. साथ ही, यहां कई लोग शीतकालीन पर्यटन के लिए भी आते हैं, औली में स्कीइंग करने के लिए भी पर्यटक आते हैं. यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है. ऐसी महत्वपूर्ण जगहों का प्रवेश बिंदु होने के कारण जोशीमठ रोजगार का एक बड़ा केंद्र बन गया और लोगों ने यहां होटल और अन्य इमारतें बनानी शुरू कर दीं. यहां लोग भी बसते चले गये.

इस प्रकार जोशीमठ एक हलचल वाला क्षेत्र बन गया. वर्ष 1962 में चीन के हमले के बाद यहां सेना और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की गतिविधियों में भी तेजी आयी. इस कारण यहां सैन्य इंफ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ा. चूंकि यह सीमा सुरक्षा का मसला है, तो इसकी जरूरत भी है. पर इससे भी व्यापक तोड़-फोड़ हुई. आज सरकारी अधिकारी इसी तर्क को आगे रख रहे हैं कि जोशीमठ में जो संकट आ रहा है, घरों, सड़कों और इमारतों में दरारें आ रही हैं, पांच सौ से अधिक घरों में दरारें आ गयी हैं, उसका कारण यहां पर हुआ नागरिक निर्माण है.

वे ये भी कहते हैं कि नालियों की सही व्यवस्था नहीं होना भी बड़ी वजह है. लेकिन क्या यही पूरा सच है? नहीं, यह पूरा सच नहीं है क्योंकि पिछले कुछ समय से यहां बहुत सारा बाहरी निर्माण हुआ है, जिसमें बहुत सारी कंपनियों के हित छुपे हुए थे. इसमें सड़कों का निर्माण कार्य भी शामिल है, जिसमें अवैज्ञानिक तरीके से टूट-फूट हुई. जो सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि लोगों ने जो निर्माण कार्य किया है, उसके कारण जोशीमठ में यह स्थिति आयी है, इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता है.

यह जरूर सच है कि लोगों ने यहां रोजगार के अवसरों को देखते हुए होटल और दूसरी इमारतें बनायीं, जिसमें नियमों की अवहेलना भी हुई होगी, पर यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि यहां बड़े निर्माण कार्य भी हुए, जैसे- यहां एक पनबिजली परियोजना लायी गयी, सड़कों को बनाया गया, और इनमें नियमों का उल्लंघन किया गया. वर्ष 1976 में एमसी मिश्रा कमिटी ने एक रिपोर्ट दी थी. एमसी मिश्रा गढ़वाल के कमिश्नर हुआ करते थे.

उस रिपोर्ट में यह साफ तौर पर कहा था कि यहां पर भारी निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए और किसी भी निर्माण से पहले प्रस्तावित स्थल के स्थायित्व की जांच की जानी चाहिए. उसमें पेड़ लगाने के सुझाव भी दिये गये थे. एक महत्वपूर्ण सुझाव के रूप में यह भी कहा गया था कि जोशीमठ से पत्थर आदि जैसी किसी निर्माण सामग्री की खुदाई नहीं की जानी चाहिए.

मिश्रा कमिटी की रिपोर्ट के बाद भी विशेषज्ञों की अनेक रिपोर्टें आयीं, जिनमें इसी तरह की चेतावनियां और सिफारिशें थीं. लेकिन इन सभी को नजरअंदाज किया गया और 1980 में लोगों के विरोध के बावजूद यहां पर एक निजी कंपनी का हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट आया. उसके बाद 2006 में एनटीपीसी की भी एक परियोजना यहां आयी, जिसका लोगों ने पुरजोर विरोध किया था. वह विरोध आज भी दिखायी देता है.

इन पनबिजली परियोजनाओं में दिक्कत यह थी कि बड़े निर्माण होने के कारण इनमें बड़े स्तर पर तोड़फोड़ भी की गयी. कई बार विस्फोट भी किये गये. इस वजह से भौगोलिक रूप से अस्थायी और कमजोर जोशीमठ की हालत और खराब हुई. जिन नदियों पर ये परियोजनाएं बनी हैं, उन नदियों में सहायक जलधाराओं के रूप में जो नाले आते हैं, वैज्ञानिक तरीके से उनकी व्यवस्था को नहीं देखा गया. वर्ष 2006 की आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र की रिपोर्ट में भी रेखांकित किया गया है.

जलवायु परिवर्तन एक बड़े संकट के रूप में पूरी दुनिया में छा रहा है. जोशीमठ में आज जहां एक ओर लोगों के सामने अपना घर छोड़ने का खतरा पैदा हो गया है, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की वजह से जोशीमठ के खिसकने की संभावना और तेजी से बढ़ रही है. जलवायु परिवर्तन के कारण कभी भी बाढ़, बहुत तेज बारिश आ सकती है. यहां इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जोशीमठ बेहद संवेदनशील भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है.

भूकंप से सर्वाधिक खतरा इस क्षेत्र को है. जानकार बताते हैं कि अगर भूकंप का झटका आये, तेज बारिश हो, बादल फटे, तो क्या अभी जिन घरों में दरारें हैं, सड़कें धंस रही हैं, क्या उनके नष्ट होने की संभावना अधिक नहीं है. फिलहाल सरकार ने इसे आपदाग्रस्त क्षेत्र घोषित कर दिया है और यहां से लोगों को हटाने की बात की जा रही है. जोशीमठ इस तरह की अकेली कहानी नहीं है.

इसी तरह उत्तराखंड के हजारों गांव इस संवेदनशील इलाके में संकटग्रस्त हैं. उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. ये गांव चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग कर्णप्रयाग, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जैसे जिलों में हैं. कुछ संकटग्रस्त गांव नैनीताल के इलाके में भी हैं. इन हजारों गांवों में लोग रह नहीं सकते और दूसरी और ऐसे सैकड़ों गांव हैं, जहां से लोग रोजगार के लिए पलायन कर गये हैं. वे गांव ‘भूतहा’ हो गये हैं. इतनी बड़ी विडंबना उत्तराखंड के साथ है.

जोशीमठ में ही 25 हजार की आबादी है. इन्हें सरकार कहां और कैसे ले जायेगी, यह भी विचारणीय है. राज्य में 60 प्रतिशत हिस्सा वन भूमि है और बाकी नदियां हैं. नियमों के अनुसार वन भूमि में लोगों को नहीं बसाया जा सकता है. ऐसे में क्या हरिद्वार, देहरादून, हल्द्वानी या उधमसिंह नगर जैसे शहर ही उत्तराखंड की परिभाषा बनकर रह जायेंगे?

इस स्थिति से निपटने के लिए क्या किया सकता है, यह सवाल दीगर दिखाई देता है क्योंकि अभी तक जो किया जाना चाहिए था, जिनकी बातें तमाम रिपोर्टों में हैं, उन्हें ही नहीं किया गया है. सरकार को यह तय करना होगा कि जो इंफ्रास्ट्रक्चर दिल्ली, अहमदाबाद और विशाखापट्टनम जैसे शहरों के लिए बन रहे हैं, क्या उन्हें पहाड़ पर भी थोपा जाना चाहिए. हिमालय नया पहाड़ है और निर्माण की प्रक्रिया में है. उसके सही देखभाल की आवश्यकता है.

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