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तब की पत्रकारिता, अब की पत्रकारिता

यह सच है कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है, लेकिन आज भी अखबार खबरों के सबसे प्रमाणिक स्रोत हैं. कोई भी अखबार अपनी छपी खबर से पीछे नहीं हट सकता है. अखबार की खबरें काफी जांच पड़ताल के बाद प्रकाशित की जाती हैं.

प्रभात खबर अपनी स्थापना के 40वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. किसी भी अखबार के लिए यह बड़ा अवसर है कि वह इतिहास के झरोखे में झांके और भविष्य की सुध ले. प्रभात खबर का सफर संघर्षों की दास्तां है. अपनी यात्रा के दौरान प्रभात खबर ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन अखबार की यात्रा निरंतर जारी है. पिछले चार दशकों के दौरान राजनीति बदली और अर्थनीति में भी भारी परिवर्तन आया है. अखबार निकालना पहले भी चुनौतीपूर्ण था, लेकिन मौजूदा दौर में और चुनौतीपूर्ण हो गया है. यह सही है कि हर दौर की अपनी चुनौतियां होती हैं. अब से 40 साल पहले की चुनौतियां अलग तरह की थीं, आज के दौर की अलग हैं. दरअसल पूरी पत्रकारिता का परिदृश्य बदल गया है या यूं कहें कि पिछले 40 वर्षों में स्वर्णरेखा नदी में काफी पानी बह गया है. इसके बावजूद प्रभात खबर पूरी मजबूती से आगे बढ़ रहा है.

सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता और विश्वसनीय खबरें ही प्रभात खबर की पत्रकारिता की पहचान रही है. अखबार हैं और रहेंगे. न्यूज चैनल्स हैं और रहेंगे. और, आप पसंद करें या न करें, सोशल मीडिया से आप बच नहीं सकते हैं. व्हाट्सऐप या सोशल मीडिया के जरिए जो सूचनाएं आप तक पहुंच रही हैं, वे लगातार बढ़ेंगी. फेक न्यूज और प्रोपेगेंडा आज के दौर के कड़वे सच हैं. तकनीक के विस्तार ने अखबारों के समक्ष नयी चुनौती पेश की है. इसका असर देश-विदेश के सभी अखबारों पर पड़ा है, लेकिन यह भी सही है कि फेक न्यूज के इस दौर में प्रामाणिक खबरों की जरूरत बढ़ी है.

आज के दौर में सुबह से शाम तक मालूम नहीं कितनी खबरों का आदान-प्रदान होता है और पता ही नहीं चलता कि आप कब फेक न्यूज के शिकार हो गये. फेक न्यूज इस सफाई के साथ तैयार की जाती है कि आम आदमी के लिए फर्जी और असल खबर में भेद कर पाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं कि सोशल मीडिया पर फैलायी गयी खबरों से जातिगत और धार्मिक वैमनस्य तनाव फैल गया. फेक न्यूज की समस्या इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. चुनावी मौसम में तो फेक न्यूज की बाढ़ आ जाती है.

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों का माहौल बन गया है और हम सबको सोशल मीडिया से फेक न्यूज की बमबारी के लिए तैयार रहना होगा. यह सच है कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है, लेकिन आज भी अखबार खबरों के सबसे प्रमाणिक स्रोत हैं. कोई भी अखबार अपनी छपी खबर से पीछे नहीं हट सकता है. अखबार की खबरें काफी जांच पड़ताल के बाद प्रकाशित की जाती हैं. प्रभात खबर की बात करें, तो हमने सबसे अधिक घपले-घोटाले उजागर किये हैं, जिसके कारण कई नेताओं और मंत्रियों तक को जेल तक जाना पड़ा है.

लेकिन एक बात मेरे जैसे पुरानी पीढ़ी के पत्रकार को अखरती है कि जो आदर मीडियाकर्मियों को मिलता था, उसमें भारी कमी आयी है. इधर, मीडिया पर एकतरफा टीका टिप्पणी करने का चलन बढ़ा है. कोई भी पूरे मीडिया जगत के विषय में बयान दे देता है और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर देता है. दरअसल, पत्रकारों को बदनाम करना एक पसंदीदा रणनीति बन गयी है. पिछले कुछ समय में पत्रकारों के लिए प्रेस्टीट्यूट, न्यूज ट्रेडर्स, बाजारू या दलाल जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जबकि मीडिया ही ऐसा माध्यम है, जो आप तक सूचनाएं पहुंचाता है, आपके मुद्दे और समस्याएं उठाता है और किसी भी विषय पर आपको अपनी राय कायम करने में मदद करता है.

हम सब के लिए यह जानना भी जरूरी है कि मीडियाकर्मी कितनी कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने काम को अंजाम देते हैं. वे यह चुनौती इसलिए स्वीकार करते हैं, ताकि लोगों तक निष्पक्ष और सटीक खबरें पहुंच सकें. उनके काम करने के घंटे निर्धारित नहीं होते. अखबार में न्यूज जुटाने का काम दिनभर चलता है और फिर अखबार को तैयार करने का काम देर शाम शुरू होकर आधी रात तक चलता है. जब आप सो रहे होते हैं, तब पत्रकार और अखबार से जुड़े प्रिंटिग के लोग आपके लिए अखबार तैयार कर रहे होते हैं. उसके बाद सर्कुलेशन विभाग और हॉकर बंधुओं की जिम्मेदारी आती है कि जाड़ा, गर्मी, बरसात- हर मौसम में आप तक रोज सुबह अखबार पहुंचाएं.

आपको टीवी व वेबसाइट पर भी ताजातरीन खबरें चाहिए, इसलिए मीडियाकर्मी लगभग 365 दिन काम करते हैं. कभी-कभार यह चुनौतीपूर्ण माहौल उनकी जान तक ले लेता है. वे यह चुनौती इसलिए स्वीकार करते हैं, ताकि आप तक निष्पक्ष और सटीक खबरें पहुंच सकें. अगर आपको याद हो, तो कुछ समय पहले श्रीनगर में राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की आतंकवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी थी. त्रिपुरा में पिछले साल दो पत्रकारों की हत्या कर दी गयी थी. मध्य प्रदेश के भिंड इलाके में रेत माफिया और पुलिस का गठजोड़ उजागर करने पर एक पत्रकार को ट्रक से कुचलकर मार दिया गया था. ये तो चर्चित घटनाएं हैं, लेकिन जिले में जान गंवा देने वाले पत्रकारों के नाम की चर्चा तक नहीं होती है. इतने दबावों के बीच आप अंदाजा लगा सकते हैं कि खबरों में संतुलन बनाए रखना कितना कठिन कार्य होता है.

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 150वें नंबर पर है, जबकि पिछले साल भारत में 142 वें नंबर पर था. ऐसा नहीं कि भारत में ही पत्रकार निशाने पर हों, वे दुनियाभर में निशाने पर रहे हैं. यूनेस्को की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 2022’ नामक रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में दुनियाभर में कुल 86 पत्रकारों को अपनी जान से हाथ गंवाना पड़ा. रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में सबसे ज्यादा खतरनाक लातिनी अमेरिकी और कैरीबियाई देश है, जहां 44 मीडियाकर्मियों की हत्या हुई, जो दुनिया भर में मारे गये कुल मीडियाकर्मियों की संख्या की आधी से अधिक है.

ऐसा भी देखा गया है कि महिला पत्रकार खासतौर से निशाने पर रहती हैं. हत्या के अलावा अनेक पत्रकारों को अपहरण, मनमाने ढंग से हिरासत में रखने और कानूनी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. हालांकि यह भी सच है कि पत्रकारों में राजनीतिक खेमेबंदी बढ़ी है, जिससे उन्हें बचना चाहिए. पिछले कुछ समय में पत्रकार दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं. आप किसी भी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन समाचारों में यह नहीं झलकना चाहिए.

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