‘अंधेरी कोठरी’ का इकलौता रोशनदान थे जेपी
इस तरह देश लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने में सफल हुआ, तो जेपी उसकी शुचिता को लेकर बेहद गंभीर थे.
भारत के नये खड्ग’, ‘तरुण देश के सेनानी’, ‘दलित देश के त्राता’, भारत के भाग्यविधाता’, ‘नयी आग’, ‘नयी ज्योति’ और ‘नये लक्ष्य के अभिमानी’ : ये उन विशेषणों में से कुछ हैं जो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने 1946 में जयप्रकाश नारायण (जिन्हें प्यार से जेपी कहा जाता है) को ‘स्वप्नों का द्रष्टा’ बताते हुए उनके लिए इस्तेमाल किये थे. पर जेपी के जन्म के 122 और निधन के 45 वर्ष बाद उनकी एक ऐसे लोकनायक की छवि ही बची है, जो बार-बार याद आती रहती है. अलबत्ता, ‘संपूर्ण क्रांति’ के अपने खंडित स्वप्न के साथ.
वर्ष 1974 में बिहार व गुजरात के छात्रों के आग्रह पर उनके आंदोलन की अगुवाई करते हुए जेपी ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया था और इस क्रांति के न हो पाने की कसक उन्हें उनके अंतिम दिनों तक सालती रहती थी. पर सच पूछिए तो आज यह उतनी कसकने वाली बात नहीं है, जितनी स्वयं को उनके आंदोलन की उपज और उनका अनुयायी कहने वाले नेताओं द्वारा उस क्रांति का नाम लेना तक बंद कर देना. इस बीच अपने स्वार्थों को लेकर तो ये नेता बार-बार एकजुट होते और बिखरते रहे हैं, परंतु उस ‘भावी इतिहास’ की उन्होंने तनिक भी फिक्र नहीं की है, संपूर्ण क्रांति के रास्ते जिसके सृजन का दायित्व उन्हें उठाना था. हां, यह क्रांति न हो पाने की तोहमत एकतरफा तौर पर जेपी पर नहीं मढ़ी जा सकती. क्योंकि उसके आह्वान के थोड़े ही दिनों बाद उन्हें इमरजेंसी का कहर झेलने व देश का लोकतंत्र बचाने की मुश्किल लड़ाई लड़ने में मुब्तिला हो जाना पड़ा था. और बाद में खराब स्वास्थ्य ने उनके लिए कोई भी लड़ाई मुश्किल कर दी थी. इससे पहले उनकी अगुवाई वाले आंदोलन से आक्रांत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक नवंबर, 1974 को उन्हें वार्ता के लिए बुलाया तो किसी समाधान तक पहुंचने के बजाय यह कहकर अपमानित कर डाला था कि ‘आप कुछ तो देश के बारे में सोचिए.’
अनंतर, इंदिरा गांधी ने 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा रायबरेली लोकसभा सीट से अपना चुनाव अवैध घोषित किये जाने के बाद देशवासियों के सारे मौलिक व नागरिक अधिकार छीन देश पर प्रेस सेंसरशिप व इमरजेंसी थोप दी, जेपी समेत सारे विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंसा और लोकतंत्र को निर्वासित कर दिया, तो उसकी वापसी की लड़ाई पहली प्राथमिकता हो गयी. उन दिनों के प्रख्यात जनपक्षधर शायर दुष्यंत कुमार के अनुसार, ‘उस वक्त अंधेरी कोठरी में बदल गये देश में एकमात्र जेपी ही ऐसे रोशनदान थे, जिससे उजाले की उम्मीद थी.’ जानकार आज भी यह सोचकर सिहर जाते हैं कि 1977 में इमरजेंसी के फूलने-फलने लग जाने के भ्रम में इंदिरा गांधी लोकसभा के आम चुनाव करा कर अपने सारे किये-धरे पर जनता की मुहर लगवाने के फेर में न पड़तीं और अचानक जेल से निकालकर चुनाव मैदान में पहुंचा दिये गये विपक्षी दलों के नेता लोकनायक की अगुवाई में जनता पार्टी के बैनर पर एकजुट नहीं होते, तो देश का क्या हुआ होता! तब चौधरी चरण सिंह जैसे जमीनी नेताओं का आकलन भी यही था कि सत्तापक्ष उन्हें जेल से निकालकर चुनाव के जाल में फंसा रहा है. वह तो भला हो मतदाताओं का कि उन्होंने ऐसे सारे आकलनों को झुठलाकर इंदिरा गांधी की बेदखली का जनादेश दे डाला.
इस तरह देश लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने में सफल हुआ, तो जेपी उसकी शुचिता को लेकर बेहद गंभीर थे. इतने कि पदच्युत इंदिरा गांधी को नये निजाम के हाथों अपने और अपने बेटे संजय गांधी के उत्पीड़न का अंदेशा हुआ तो उसे निर्मूल करने वे उनके घर भी गये. जेपी ने उन्हें आश्वस्त किया कि नयी सरकार उनके खिलाफ कोई भी बदले की कार्रवाई नहीं करेगी. पर इतिहास गवाह है कि बाद में जनता पार्टी के नेता जेपी के श्रीमती गांधी से भी ज्यादा अपमान पर उतर आये. चौधरी चरण सिंह हर हाल में इंदिरा गांधी का पासपोर्ट जब्त कर उन्हें गिरफ्तार करने और तिहाड़ जेल की उसी बैरक नंबर 14 में रखने पर अड़ गये, जिसमें इमरजेंसी में उन्हें रखा गया था. इसके बाद जेपी द्वारा इंदिरा को दिये आश्वासन का कोई अर्थ ही नहीं रह गया. गौरतलब है कि जेपी स्वयं भी इमरजेंसी के उन्नीस महीने जेल में रहे थे. फिर भी उनके मन में इंदिरा के प्रति कोई कटुता नहीं थी. पर जनता पार्टी की सत्ता में उसके ज्यादातर नेताओं को जेपी के प्रति नागवार रवैया अपनाते देर नहीं लगी.
प्रधानमंत्री बनने की होड़ में विफल होने के बाद उसमें जेपी की कथित भूमिका से नाराज बाबू जगजीवन राम का रवैया तो ‘जेपी होते कौन हैं?’ तक पहुंच गया था. बाद में पार्टी की सरकार के अंतर्विरोधों की शिकार होकर एक के बाद एक संकटों से जूझने लग जाने के बाद भी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जेपी से सलाह-मशवरा तक गवारा नहीं था. नि:संदेह, जेपी और संपूर्ण क्रांति के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन में इन सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखना पड़ेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)