अदालतों में देरी
कानूनी प्रावधान के अनुसार, किसी मामले में तीन बार से अधिक स्थगन नहीं दिया जाना चाहिए. यदि सुनवाई में छह माह से अधिक की देरी होती है, तो वादी दूसरे जज के सामने सुनवाई करने की मांग कर सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 में निर्देश दिया था कि अगर दो माह में निर्णय नहीं होता है, तो उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को प्रशासनिक स्तर पर जजों को हिदायत देनी चाहिए.
Judicial delay in india: प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अदालतों में सुनवाई की लंबी प्रक्रिया और फैसले देने में देरी पर चिंता जताते हुए कहा है कि प्रक्रिया ही वादियों के लिए सजा बन जाती है. उन्होंने यह भी कहा है कि इससे लोग तंग आ जाते हैं. वे पहले भी इस समस्या को रेखांकित कर चुके हैं. पिछले साल नवंबर में उन्होंने ‘तारीख पे तारीख’ के बढ़ते मर्ज पर गंभीर चिंता जतायी थी. तब उन्होंने बताया था कि सितंबर और अक्टूबर में सर्वोच्च न्यायालय में ही वकीलों में सुनवाई के स्थगन के लिए 3,688 निवेदन दिया था. उन्हीं दो माह में जल्दी सुनवाई के लिए भी 2,361 अर्जियां भी दी गयी थीं.
कानूनी प्रावधान के अनुसार, किसी मामले में तीन बार से अधिक स्थगन नहीं दिया जाना चाहिए. यदि सुनवाई में छह माह से अधिक की देरी होती है, तो वादी दूसरे जज के सामने सुनवाई करने की मांग कर सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 में निर्देश दिया था कि अगर दो माह में निर्णय नहीं होता है, तो उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को प्रशासनिक स्तर पर जजों को हिदायत देनी चाहिए. समस्या यह है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में भी ऐसे प्रावधानों पर समुचित अमल नहीं किया जाता. हमारे देश की जिला अदालतों, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की तादाद पांच करोड़ से ज्यादा है.
उच्च न्यायालयों में 61 लाख से अधिक और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 79 हजार मुकदमे फैसले का इंतजार कर रहे हैं. प्रतिष्ठित न्यायविद नानी पालखीवाला ने कभी कहा था कि भारत में न्याय की धीमी गति देखकर घोंघे भी शर्मसार हो जाएं. कई बार सुनवाई पूरी होने के बाद जज फैसलों को बाद में सुनाते हैं. कुछ माह पहले एक अजीब मामला सामने आया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सुनवाई पूरी होने के दस माह बाद फैसला आने की जगह यह निर्देश आया कि अब मामले की सुनवाई नये सिरे से होगी. इस पर प्रधान न्यायाधीश ने रोष जताया था. एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ यह कह चुकी है कि संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत शीघ्र न्याय पाने का अधिकार भी आता है.
मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय देने में विलंब करने को सर्वोच्च न्यायालय ‘न्यायिक अपराध’ की संज्ञा दे चुका है. यह प्रावधान भी है कि फैसला सुनाने में तीन महीने से अधिक की देरी होती है, तो पक्षकार आवेदन दे सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल कहा था कि देश की छह प्रतिशत जनसंख्या मुकदमेबाजी से पीड़ित है. तब सभी अदालतों को निर्देश भी दिये गये थे. जल्दी सुनवाई करने और फैसले देने से अदालतों में लोगों का भरोसा बढ़ेगा. सभी जजों को प्रधान न्यायाधीश की चिंता का संज्ञान लेना चाहिए.