Loading election data...

बैंकों की बाजीगरी

भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है कि नियमन प्रणाली की खामियों को सुधारने पर समुचित ध्यान दिया जाये.

By संपादकीय | September 23, 2020 5:39 AM
an image

वित्तीय गतिविधियों को सुचारू रूप से और पारदर्शिता के साथ संचालित करने की जिम्मेदारी बैंकों की होती है तथा नियमन एवं निगरानी के जरिये सरकारें इसे सुनिश्चित करती हैं. लेकिन बीते कुछ दशकों में ऐसे अनेक मामले सामने आये हैं, जिनसे पता चलता है कि बैंकों को कायदे-कानून की परवाह नहीं है. ताजा खुलासे में साफ है कि बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय बैंक, जिनमें भारत के लगभग सभी प्रमुख सरकारी व निजी बैंक शामिल हैं, भ्रष्ट कारोबारियों, कुख्यात अपराधियों और खतरनाक आतंकवादियों से मिलीभगत कर सिर्फ अपना मुनाफा बढ़ाने में लगे हैं.

दुनियाभर के 88 देशों के 400 से अधिक पत्रकारों ने अमेरिकी सरकार के खुफिया दस्तावेजों की पड़ताल कर बताया है कि 1999 से 2017 के बीच बैंकों ने दो ट्रिलियन डॉलर से अधिक का संदेहास्पद लेन-देन किया है. उल्लेखनीय है कि पत्रकारों के हाथ लगे दस्तावेज 2011 से 2017 के बीच मिलीं शिकायतों और गड़बड़ी की आशंका के कुल मामलों का लगभग 0.02 फीसदी हिस्सा ही हैं.

इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर कितनी बड़ी लूट जारी है. यह सब कुछ तब हो रहा है, जब तमाम सरकारें कड़ाई से नियमन करने और घपले में लिप्त बैंकों व उनके अधिकारियों को दंडित करने का दावा करती रही हैं. इससे साफ जाहिर है कि न तो बैंक सरकारों के निगरानी तंत्र की परवाह करते हैं और न ही सरकारों के पास बैंकों की नकेल कसने की इच्छाशक्ति या क्षमता है. यदि ऐसा होता, तो खोजी पत्रकारों के इसी समूह के द्वारा बीते सालों में किये गये पनामा, पाराडाइज और स्विसलीक्स जैसे अनेक अहम खुलासों पर ठोस कार्रवाई हुई होती.

हालिया खुलासे में करीब 2100 रिपोर्टों में 170 से अधिक देशों के ग्राहकों का उल्लेख है. इसका सीधा मतलब है कि लूट का यह सिलसिला पूरी दुनिया में गहरे तक पसरा हुआ है. सालों से चल रही गड़बड़ियों से सरकारें भी आगाह रही हैं. बहुत सारे मामलों में ऐसे लेन-देन हुए हैं, जो अनेक देशों की सरकारों के करीबी लोगों से जुड़े हैं. अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों के इस समूह का मानना है कि ऐसी वितीय गड़बड़ियों का सीधा संबंध विभिन्न देशों में व्याप्त हिंसा, अराजकता, पिछड़ेपन और विषमता तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं एवं मूल्यों के वैश्विक पतन से है.

यह कहा जा सकता है कि सरकारों, नियामक संस्थाओं और बैंकों से लापरवाही हुई हो, लेकिन इतने बड़े स्तर पर तो ऐसा नहीं हो सकता है. यह लापरवाही तो आपराधिक है, क्योंकि बार-बार गड़बड़ियों के बावजूद सुधरने के प्रयास नहीं किये गये. कई मामले तो ऐसे हैं कि चेतावनी और दंड के बाद भी बैंकों ने ऐसे अवैध लेन-देन को जारी रखा. भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है कि नियमन प्रणाली की खामियों को सुधारने पर तुरंत समुचित ध्यान दिया जाये, क्योंकि कालेधन की समस्या से हमारा देश पहले से ही पीड़ित है.

Exit mobile version