ट्रूडो का इस्तीफा और भारत-कनाडा संबंध, पढ़ें डॉ कृष्ण कुमार रत्तू का खास लेख
Justin Trudeau : भारत सरकार द्वारा लगातार दबाव बनाने तथा अन्य अल्पसंख्यकों, विशेषकर कनाडा स्थित हिंदू मंदिरों तथा हिंदू समुदाय के संस्थानों पर हमला करने के कारण जिस तरह से कनाडा में उनके विरुद्ध एक जनमत तैयार हुआ, उससे लगने लगा था कि अंतत: ट्रूडो को जाना पड़ेगा.
Justin Trudeau : एक लंबे विरोधाभास एवं भारी उथल-पुथल भरी राजनीतिक परिस्थितियों के चलते, अंततः कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है. इस इस्तीफे के बाद भारत-कनाडा के बीच एक नये दौर की राजनीतिक तथा कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत हो सकती है. उद्योग और अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं के असीमित अवसरों से भरा हुआ यह देश पिछले छह महीने से राजनीतिक उठापटक और जस्टिन ट्रूडो की नीतियों के कारण सुर्खियों में बना हुआ था.
जस्टिन ट्रूडो बीते नौ वर्षों से कनाडा के प्रधानमंत्री थे और कनाडा की धरती से खालिस्तानी तथा अन्य अलगाववादी तत्वों को खुली छूट देने के साथ धमकियों का दौर भी चला रहे थे. अपनी इसी तरह की अंतरराष्ट्रीय नीतियों के कारण वे कई वर्षों से अपनी पार्टी के अंदर भी तीखी आलोचनाओं का सामना कर रहे थे.
जस्टिन ट्रूडो पिछले 11 वर्षों से लिबरल पार्टी के नेता के तौर पर तथा नौ वर्षों से कनाडा के प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहे थे. उधर निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से मिल रही धमकियों तथा कनाडा के भीतरी जनमत सर्वेक्षणों के कारण पार्टी ने उन्हें पद छोड़ने के लिए कह दिया था. वास्तव में, कनाडा के प्रधानमंत्री का इस्तीफा ऐसे समय में हुआ है, जब वह पिछले कई वर्षों से लगातार खालिस्तान समर्थक आतंकियों को खुश करने तथा अपनी लोकप्रियता को बनाये रखने में लगे हुए थे.
भारत सरकार द्वारा लगातार दबाव बनाने तथा अन्य अल्पसंख्यकों, विशेषकर कनाडा स्थित हिंदू मंदिरों तथा हिंदू समुदाय के संस्थानों पर हमला करने के कारण जिस तरह से कनाडा में उनके विरुद्ध एक जनमत तैयार हुआ, उससे लगने लगा था कि अंतत: ट्रूडो को जाना पड़ेगा. इन खबरों के बीच यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि 153 सीटों में से 131 सांसद जस्टिन ट्रूडो के खिलाफ थे, इसी कारण ट्रूडो के लिए यह कदम उठाना अनिवार्य हो गया था.
जस्टिन ट्रूडो के इस्तीफा देने के बाद राजनीतिक हलचल शुरू हो गयी है कि अब कनाडा के प्रधानमंत्री पद पर कौन काबिज होगा. ट्रूडो के बाद लिबरल पार्टी के जिस नेता का सामने आया है, उनमें जार्ज चहल और अनीता आनंद के साथ-साथ क्रिश्चियन फ्रीलैंड को भी बड़ा दावेदार माना जा रहा है. वरिष्ठ लिबरल कैबिनेट मंत्री डायनेमिक बिलॉन्ग का नाम भी आगे चल रहा है. क्रिस्टल क्लार्क भी इस पद के लिए रेस में हैं. जो भी हो भारत के लिए इस परिवर्तन के दौर से नये रिश्तों का दौर शुरू होने की संभावना है.
यहां यह उल्लेख जरूरी है कि जस्टिन ट्रूडो के समय भारत के साथ कनाडा के रिश्ते बेहद निम्न स्तर पर पहुंच गये थे, और स्थिति तू-तू मैं-मैं तक आ गयी थी. जबकि कूटनीतिक तथा अंतरराष्ट्रीय संधि के अनुसार यह नहीं होना चाहिए था. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कनाडा में इस समय चार लाख, 27 हजार छात्र पढ़ाई कर रहे हैं, जबकि 15 लाख से अधिक भारतीय कनाडा में पक्के तौर पर रह रहे हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि जस्टिन ट्रूडो सरकार ने फास्ट्रैक वीजा खत्म करने से पहले और भी कई ऐसे निर्णय लिये थे जो भारत के विरुद्ध थे. इसी कारण इस वर्ष भारतीय विद्यार्थियों की संख्या में 35 प्रतिशत की कमी आयी है जो कनाडा की अर्थव्यवस्था के लिए एक अप्रत्यक्ष घाटा है. ट्रूडो के इस्तीफे के बाद कनाडा की घरेलू नीतियों में बदलाव के साथ उसकी अंतरराष्ट्रीय व कूटनीतिक नीतियों में भी बदलाव दिखेगा जिसका सर्वाधिक लाभ भारत को होगा. ट्रूडो ने वोट बैंक की खातिर कनाडा में रह रहे भारतीय हिंदू-सिख समुदाय के बीच जो दरार डालने का काम किया था, अब वह भी भर जायेगा.
लिबरल पार्टी यदि दोबारा सत्ता में आती भी है, तो उसको भारत के साथ अपने राजनीतिक संतुलन को बनाये रखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. हालांकि यह भी सच है कि खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या को जिस तरह से जस्टिन ट्रूडो ने भारत के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग किया था तथा उसके बाद भारतीय उच्चायुक्त संजय वर्मा के साथ दुर्व्यवहार किया था, उसने भारत तथा कनाडा के बीच में बढ़ रहे व्यापारिक संभावनाओं को भी खत्म करना शुरू कर दिया था. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 2024 के वित्तीय वर्ष के अंत तक कनाडा-भारत व्यापार 8.5 बिलियन डॉलर तक पहुंचा गया था.
भारतीय समुदाय के लोगों का निरंतर कनाडा आना-जाना लगा रहता है. भारत से फार्मास्युटिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा कीमती पत्थर कनाडा पहुंचते हैं तथा कनाडा से मिनरल, पोटाश की चीजें भारत में आती हैं. यहां एक दूसरा पक्ष भी है कि यदि कनाडा में कंजरवेटिव पार्टी सत्ता में आती है तो उसके फ्रेंच मूल के नेता प्रिय पॉलीमर भी भारत के साथ एक नयी शुरुआत करना चाहेंगे. राजनीतिक तथा कूटनीतिक संकेतों से जो पता चलता है वह यह कि वे श्रमिकों के पक्ष में रहे हैं. उन्होंने सदैव जस्टिन ट्रूडो की नीतियों की आलोचना की है और कनाडा को एक नयी नीति पर चलाने का संकल्प लिया है.
प्रधानमंत्री बनने से पहले ट्रूडो की गिनती अपने पिता की तरह ही इस देश के चहेते नेताओं में होती थी, परंतु जिस तरह से उन्होंने खालिस्तान समर्थकों को प्रोत्साहन दिया, उसने उनकी छवि को बिगाड़ दिया. किसी समय जस्टिन ट्रूडो को प्रतिवादी सोच के लिए दुनिया का एक नया चेहरा माना जाता था, परंतु धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता समाप्त होती गयी और ऐसा तब हुआ जब उन्होंने भारत के साथ अपने कूटनीतिक तथा राजनीतिक संबंधों में कड़वाहट घोलना शुरू किया. कनाडा में रहने वाले सिख समुदाय के वोटों की खातिर उन्होंने खालिस्तान का समर्थन किया और हिंदुओं पर हुए हमलों पर भी अधिकतर चुप्पी साधे रखी. कनाडा की लोकतांत्रिक छवि को सर्वाधिक नुकसान जस्टिन ट्रूडो के समय में हुआ है और उनके इस्तीफे के बाद भारत-कनाडा के संबंधों का एक नया दौर शुरू हो सकता है.
कनाडा में यदि विरोधी पक्ष सत्ता में आता है, तो यह मान कर चलिए कि फिर भारत और कनाडा के बीच व्यापार की एक नयी शृंखला शुरू होगी तथा भारतीयों में सद्भाव तथा समृद्धि के एक नये अध्याय के शुरू होने की उम्मीद है. भारत ने कूटनीतिक प्रयासों के द्वारा पहले से ही कनाडा को यह बता दिया है कि वह अपने लोगों की तथा भारतीय दूतावास के कर्मचारियों की सुरक्षा के बिना कोई भी अन्य समझौता नहीं करेगा. ऐसे में जाहिर सी बात है कि नयी सरकार इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)