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शहादत दिवस : रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां और रोशन सिंह को एक साथ दी गई थी फांसी, पढ़ें कृष्ण प्रताप सिंह का लेख

Kakori conspiracy : शहादत के वक्त, जैसी कि परंपरा है, गोरखपुर जेल में अफसरों द्वारा बिस्मिल से उनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तो उनका दो टूक जवाब था : 'आइ विश द डाउनफॉल ऑफ ब्रिटिश एंपायर.' यानी मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश देखना चाहता हूं.

Kakori conspiracy : आज ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन अभियान के तीन क्रांतिकारी नायकों- रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां और रोशन सिंह का साझा शहादत दिवस है- उनकी शहादतों की स्मृतियों को ताजा करने और उनसे प्रेरणा लेने का दिन. उनके इस अभियान को अपने साम्राज्य के लिए सीधी चुनौती मानकर देश के तत्कालीन ब्रिटिश शासकों ने 1927 में 19 दिसंबर को यानी आज के ही दिन बिस्मिल को उत्तर प्रदेश की गोरखपुर, अशफाक को फैजाबाद (अब अयोध्या) और रोशन सिंह को मलाका ( तत्कालीन इलाहाबाद, अब प्रयागराज) की जेलों में फांसी पर लटकाकर शहीद कर डाला था. जबकि अभियान के एक और नायक राजेंद्रनाथ लाहिड़ी की सांसें गोंडा जेल में दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही छीन ली थीं.

सुविदित है कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े इन क्रांतिकारियों ने अपने कुछ और साथियों के साथ नौ अगस्त, 1925 को आठ डाउन सहारनपुर- लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में ले जाया जा रहा सरकारी खजाना काकोरी स्टेशन के पास लूट लिया था. उनका मानना था कि गोरी सरकार ने यह खजाना देशवासियों के शोषण और लूट से इकट्ठा किया है और इसे लूटकर देश की मुक्ति के प्रयत्नों में खर्च करना ही उसका सबसे सार्थक उपयोग है. शहादत के वक्त, जैसी कि परंपरा है, गोरखपुर जेल में अफसरों द्वारा बिस्मिल से उनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तो उनका दो टूक जवाब था : ‘आइ विश द डाउनफॉल ऑफ ब्रिटिश एंपायर.’ यानी मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश देखना चाहता हूं.

शहादत से कुछ ही दिनों पहले उन्होंने उम्मीद भरी पंक्तियां लिखी थीं : मरते बिस्मिल, रोशन, लहरी, अशफाक अत्याचार से / होंगे पैदा सैकड़ों उनके रुधिर की धार से. इसी कड़ी में फैजाबाद की जेल में अशफाक उल्लाह खां ने कहा था कि उनकी अंतिम इच्छा यह है कि जब उन्हें फांसी पर लटकाया जाए, तो उनके वकील फांसी घर के सामने खड़े होकर देखें कि वह कितनी खुशी और हसरत से उसके फंदे पर झूल रहे हैं.


बिस्मिल और अशफाक में एक और समान बात यह थी कि दोनों शायर थे और गजलें कहते थे. बिस्मिल ने तो अनेक किताबें भी लिखी थीं. उनमें से ग्यारह उन्होंने खुद छपवायीं और उनकी बिक्री से एकत्र धन से क्रांति कर्म के लिए हथियार खरीदे थे. गोरी सरकार को यह बात नागवार गुजरी, तो उसने ये सारी किताबें जब्त कर ली थीं. उनकी आत्मकथा, जिसे वह अपनी शहादत से कुछ दिन पहले तक लिखते रहे थे, बाद में प्रकाशित हुई थी. अशफाक की बात करें, तो वह बिस्मिल की गिरफ्तारी के बाद भी अरसे तक गोरी पुलिस के शिकंजे से बचे रहे थे.

दरअसल, काकोरी ट्रेन अभियान के डेढ़ महीने बाद 26 सितंबर, 1925 की रात गोरी पुलिस समूचे उत्तर भारत में संदिग्धों के घरों व ठिकानों पर अभियान के तौर पर छापे मारती व धर-पकड़ करती अशफाक के शाहजहांपुर स्थित घर पहुंची, तो उन्होंने खुद को गन्ने के खेत में छिपाकर उसकी निगाहों से बचा लिया. हालांकि इससे पहले उनके दोस्त रामप्रसाद बिस्मिल मुखबिरों व गद्दारों के चलते पुलिस के हत्थे चढ़ चुके थे और उन्हें सलाखों के पीछे भेजा जा चुका था. इसके बाद अशफाक गुपचुप नेपाल चले गये और कुछ दिनों बाद उन्होंने कानपुर में ‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी के यहां शरण ले ली.

बाद में विद्यार्थी जी ने उनको बनारस भेज दिया, जहां से वह चोरी-छिपे तत्कालीन बिहार के पलामू अंचल में स्थित डाल्टनगंज चले गये. लेकिन डाल्टनगंज में उनका राज बहुत दिन राज नहीं रह सका. वह दोबारा विद्यार्थी जी के पास कानपुर जा धमके. फिर वह दिल्ली चले गये और अपने जिले शाहजहांपुर के एक पुराने दोस्त के घर पर रहने लगे, जहां उसके विश्वासघात के शिकार हो गये. उसके बाद काकोरी अभियान में शामिल होने को लेकर उन पर पूरक मुकदमा चलाया गया और फांसी की सजा सुना दी गयी. उनसे पहले गिरफ्तार साथियों पर अलग से मुकदमा चल रहा था. इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की मलाका जेल में शहीद हुए रोशन सिंह को जिंदादिली के बगैर जिंदगी ही बेकार लगती थी. उन्होंने कहा था : जिंदगी जिंदादिली को मान ऐ रोशन/ वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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