कांवड़ : तब और अब के बीच का अंतर
'कांवड़' मूलतः वह बांस है, जिसके दोनों सिरों पर भार ढोने के लिए दो छींके लटके होते हैं. कांवड़ के सिरों पर भार को संतुलित कर बांस को कंधे पर रखकर ढोया जाता है. समूचे उपकरण का नाम कहीं बहंगी भी है, जिसे कांवड़ भी कहा जाता है.
कहा जाता है कि भगवान शिव को जलाभिषेक बहुत प्रिय है. पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय जब विष निकला तो संपूर्ण सृष्टि व्याकुल हो गयी. भगवान शंकर ने स्वयं विष पीकर लोगों को संकट से मुक्त किया. इतना अधिक गरल पान करने से जब शिव भी बेचैन होने लगे, तो कहा जाता है कि शिव जी के परम भक्त रावण ने गंगाजल से उनका अभिषेक किया, ताकि विष के प्रभाव की तीव्रता कम हो सके. लोक मान्यताओं के अनुसार, आज उस पौराणिक शिवालय की पहचान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में ‘पूरा महादेव’ के रूप में की जाती है, जो रावण की ससुराल के निकट है. आसपास के क्षेत्रों से हजारों श्रद्धालु यहां जल चढ़ाने आते हैं.
जब किसी शिवलिंग पर जलाभिषेक भक्ति प्रदर्शन से अधिक, व्यक्तिगत आस्था का विषय था, तब भी भक्तों द्वारा गोमुख, गंगोत्री, हरिद्वार (उत्तराखंड), अजगैबीनाथ, सुल्तानपुर (भागलपुर, बिहार) से गंगाजल लेकर काशी विश्वनाथ, बैद्यनाथ धाम तथा अन्य छोटे-बड़े स्थानीय शिवालयों में जलाभिषेक करने का रिवाज रहा है. सावन महीने को शिव के साथ जोड़ा जाता है, इसलिए सावन में गंगाजल से जलाभिषेक करने का विशेष रिवाज है. यह मानने के कारण हैं कि यद्यपि कांवड़ यात्रा का चलन कम से कम तीन-चार सौ वर्ष पुराना रहा होगा, किंतु इतने विशाल उत्सव मेले के रूप में मनाने का चलन 25 से 30 वर्ष पुराना होगा. मैं यह अपने अनुभव से कह रहा हूं. लगभग 50 वर्ष पहले की बात है. मैं रामेश्वरम की यात्रा पर था, तो रेलगाड़ी में मेरे एक सहयात्री कोई दंडी स्वामी थे, जो मदुरै से रामेश्वरम जाने वाली गाड़ी में हमारे डिब्बे में आ गये थे.
स्वामी जी ने बताया कि अवकाश प्राप्ति से पहले वे बिहार की किसी अदालत में न्यायाधीश थे. अब गोमुख से गंगाजल लेकर रामेश्वरम शिवलिंग में अभिषेक करेंगे. रामेश्वरम में दर्शनार्थियों की कतार में जब उनकी बारी आयी, तो पुरोहित ने उन्हें स्वयं जल चढ़ाने से मना कर दिया, यह कहकर कि आम दर्शनार्थियों को लिंग तक जाने की अनुमति नहीं है, वे गंगाजली (लोटा) उन्हें दे दें, ‘मैं आपकी ओर से जल चढ़ा दूंगा.’ स्वामी जी का कहना था कि गोमुख से जल लेकर हजारों मील की यात्रा करके मैं आया हूं, अब जब केवल पांच-छह कदम की दूरी रह गयी है, तो यह काम आपको कैसे सौंप सकता हूं. मेरे और मेरे शिव के बीच कोई बिचौलिया नहीं चाहिए. बीच-बचाव के बाद उन्हें इतना निकट आने दिया गया कि वे जल चढ़ा सकें. वर्ष 1960, 70 व 80 के वर्षों में भी दिल्ली, मेरठ, हरिद्वार मार्ग में कांवरियों के इक्का-दुक्का झुंड कहीं मिल जाते थे, परिवहन बिना किसी बाधा के चलता रहता था.
आइए कांवड़, कांवरिया शब्दों की व्युत्पत्ति पर एक दृष्टि डालें. ‘कांवड़’ मूलतः वह बांस है, जिसके दोनों सिरों पर भार ढोने के लिए दो छींके लटके होते हैं. कांवड़ के सिरों पर भार को संतुलित कर बांस को कंधे पर रखकर ढोया जाता है. समूचे उपकरण का नाम कहीं बहंगी भी है, जिसे कांवड़ भी कहा जाता है. कांवरिया का संबंध इसी कांवड़ शब्द से है. कांवड़ की व्युत्पत्ति सत्संग-प्रवचन शैली में तीर-तुक्के मिलाकर अनेक प्रकार से दी जाती है, पर लगता है इसका संबंध संस्कृत के कर्पट, कर्पटिक, कार्पटिक शब्दों से है. संस्कृत में ‘कर्पट’ फटा, थेगली लगा कपड़ा है और ‘कर्पटिक’ ऐसे कपड़ों वाला. गूदड़ी (कंथा) थेगलियों की ही होती थी जो यात्रियों के लिए जरूरी सामान थी. बहंगी (कांवड़) के सिरों पर लटकते पल्ले भी थेगलियों से मढ़े होते थे.
यात्री/तीर्थयात्री इसीलिए ‘कार्पटिक’ कहलाये जो आज कांवड़िये हैं. कांवड़ का संबंध कंधा- कावां से भी हो सकता है. कंधे पर रख कर सामान ले जाने वाले कांवांरथी कहलाये और कांवांरथी से बना कांवरिया. आवश्यक नहीं कि संस्कृत/ प्राकृत भाषा ही मूल हो. अज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द ही वस्तुतः देशज होते हैं. मिथिला से शैलेंद्र झा बताते हैं कि कांवड़ और बहंगी दो अलग चीजें हैं. बहंगी बांस को फाड़कर बनाया जाता है. कांवड़ में संपूर्ण बांस का प्रयोग होता है. कांवड़ के बांस के दोनों छोड़ों पर एक-एक बांस की बनी ढक्कनदार टोकरी लटकती थी. एक में कपड़ा, भोजन सामग्री तथा दूसरे मे पूजा-पाठ का सामान रहता था. गंगाजल पात्र उसी से बाहर लटकता था. टोकरी के नीचे चार खूटियां बाहर निकली रहती थीं जिससे नीचे रखने में सुविधा होती थी. यह कांवड़ अपने भार के कारण अब बहुत कम प्रयोग में आता है.
बैद्यनाथ धाम, देवघर, झारखंड में पहले कांवड़ यात्रा बसंत पंचमी और शारदीय दुर्गा पूजा के समय हुआ करती थी, क्योंकि यह कृषि कार्य के हिसाब से निश्चिंतता का समय है. व्यवसायी लोग सावन महीने में जाते थे, जो व्यवसाय के हिसाब से निश्चिंतता का समय है. विगत तीन-चार दशकों से सभी लोग सावन में ही कांवड़ यात्रा करने लगे हैं. मिथिलांचल के बहुत से लोग अभी भी आश्विन और फाल्गुन महीनों मे ही कांवड़ यात्रा करते हैं. आज कांवड़ का एक भिन्न स्वरूप रह गया है, जिस पर प्रायः दोनों ओर गंगाजल से भरे दो छोटे-छोटे बर्तन लटकाये जाते हैं. कुछ लोग अनेक गंगाजली कलश कांवड़ से उठाकर चलते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं)