कर्नाटक नतीजे और कुछ चिंताएं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून, 2014 में राज्यसभा में अपने पहले भाषण में कहा था कि आपराधिक तत्वों से राजनीति को मुक्त करना उनकी मुख्य प्राथमिकता होगी. उन्होंने न्यायालयों से लंबित मामलों का जल्दी निपटारा करने का अनुरोध भी किया था.
कर्नाटक में 34 साल के बाद एक रिकॉर्ड टूटा है- सीटों और वोट प्रतिशत, दोनों के मामले में राज्य विधानसभा में कांग्रेस की यह सबसे बड़ी जीत है. इस भारी और निर्णायक जीत के मुख्य कारकों और खिलाड़ियों को लेकर अंतहीन विश्लेषण होते रहेंगे. क्या यह गंभीर एंटी-इनकम्बेंसी का मामला है? साल 1985 के बाद कर्नाटक में किसी सरकार की वापसी नहीं हुई है.
क्या यह भ्रष्टाचार, जिसे ’40 प्रतिशत कमीशन’ का मुहावरा दिया गया, के विरुद्ध रोष के कारण हुआ? धार्मिक मसलों पर बहुत अधिक जोर देने से तो ऐसा नहीं हुआ? क्या लोग नफरती भाषणों से ऊब चुके थे? ये सभी नकारात्मक प्रेरक कारक हैं. फिर इस चुनावी जीत के सकारात्मक प्रेरक कारक क्या रहे? क्या उनमें कांग्रेस घोषणापत्र में उल्लिखित पांच गारंटी- मुफ्त बिजली, न्यूनतम आमदनी की गारंटी, बेरोजगारी बीमा, मुफ्त भोजन और बस पास- को गिन सकते हैं? इनमें से कुछ वादे रेवड़ी, तो कुछ सामाजिक सुरक्षा लग सकते हैं.
सामाजिक सुरक्षा की जरूरत है, पर रेवड़ियां मुश्किल खड़ी कर सकती हैं. प्रभावी कारकों के बारे में इस बहस का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं हो सकता. सभी कारक कुछ न कुछ योगदान देते हैं. मतदाता तार्किक, आर्थिक या वस्तुगत कारकों की अपेक्षा हमेशा भावनात्मक कारकों से अधिक प्रभावित होता है. भारत के सभी राजनीतिक चुनावों पर यह बात लागू होती है.
लेकिन इस नतीजे का एक पहलू ऐसा है, जिसको लेकर हमें चिंता होनी चाहिए. यह पहलू है आपराधिक आरोपों वाले तत्वों का उभार. इस संबंध में सुधारों की तत्काल आवश्यकता है, ताकि चुनावी प्रक्रिया साफ-सुथरी हो सके. जीतने वाले ऐसे उम्मीदवारों की संख्या 55 प्रतिशत हो गयी है, जिन पर आपराधिक मुकदमे लंबित हैं. साल 2018 में यह आंकड़ा 35 प्रतिशत था. सभी पार्टियों में ऐसे लोग हैं. गंभीर अपराधों के मामलों के हवाले से देखें, तो 2018 में ऐसे 24 प्रतिशत विधायक थे, जो अब 32 प्रतिशत हैं.
ऐसे अपराधों में हत्या, हमला, अपहरण, बलात्कार या आर्थिक अपराध शामिल हैं. ये गैर-जमानती अपराध हैं, जिनमें पांच साल या अधिक की सजा का प्रावधान है. ‘अपराध’ की परिभाषा के बारे में कानून बिल्कुल स्पष्ट है. ये केवल पुलिस के सामने शिकायत दर्ज करने के मामले नहीं हैं. आपराधिक मामले तभी तय होते हैं, जब कोई सक्षम मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का इस्तेमाल करता है और फिर अभियोग निर्धारित करता है.
निश्चित ही, जब तक दोष सिद्ध नहीं हो, तब तक आरोपी को निर्दोष माना जाता है. केवल सजायाफ्ता व्यक्ति को ही चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होती है. ऐसा भी तभी होता है, जब सजा को ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी गयी हो और वहां मामला लंबित न हो. अपील की प्रक्रिया में लंबित मामलों पर फैसला होने में बरसों लग जाते हैं.
इसी कारण मौजूदा चुनाव कानून विधानसभाओं और संसद से आपराधिक आरोपों वाले तत्वों को अलग रख पाने में नाकाम रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून, 2014 में राज्यसभा में अपने पहले भाषण में इस मुद्दे पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया था. उन्होंने कहा था कि आपराधिक तत्वों से राजनीति को मुक्त करना उनकी मुख्य प्राथमिकता होगी. उन्होंने न्यायालयों से लंबित मामलों का जल्दी निपटारा करने का अनुरोध भी किया था. हालांकि उम्मीदवारी रद्द करने के लिए कोई कानून हमारे पास अब तक नहीं है.
आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराने के मुद्दे पर तीन दशक से अधिक समय से बहस चल रही है. न्यायाधीश जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में 1991 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में इस बारे में सुधार सुझाये थे. न्यायाधीश एपी शाह की अगुआई में विधि आयोग ने 2014 में 244वीं रिपोर्ट में अपराध के आरोपी उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराने के लिए विस्तृत प्रस्ताव दिया था.
अक्तूबर, 1993 में तत्कालीन गृह सचिव एनएन वोहरा के नेतृत्व में एक समिति ने सरकार को राजनीति के अपराधीकरण पर रिपोर्ट सौंपा था. साफ है कि कम से कम नब्बे के दशक के शुरू से राजनीति पर आपराधिक दाग को लेकर चिंता रही है, पर आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या बढ़ती गयी है.
यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि लोग ही ऐसे लोगों को निर्वाचित करते रहते हैं, तो हम क्या कर सकते हैं. पिछले माह अपराधी से नेता बने एक व्यक्ति और उसके भाई की हत्या तब कर दी गयी, जब वे पुलिस हिरासत में थे. टेलीविजन कैमरों ने इस पूरी वारदात को रिकॉर्ड किया. यह गलत हुआ. न्यायिक प्रक्रिया से बाहर की हत्याओं तथा कानून अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति की निंदा की जानी चाहिए.,पर यह भी चिंता का विषय है कि वह व्यक्ति एक बार लोकसभा और पांच बार विधानसभा के लिए चुना गया.
राजनीति को साफ-सुथरा बनाने की समस्या के दो पक्ष हैं. एक पक्ष यह है कि मतदाताओं को अच्छे उम्मीदवारों को चुनना चाहिए और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को पूरी तरह नकार देना चाहिए. दागी नेताओं की मांग घटनी चाहिए, पर यह समस्या भी है कि लोगों के सामने अक्सर अच्छे उम्मीदवार नहीं होते.
किसी क्षेत्र में सभी उम्मीदवार ही दागी हों, तो क्या उपाय बचता है? इसका समाधान यही है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. चुनाव लड़ने का अधिकार संविधान के अनुसार मौलिक अधिकार नहीं है. वैसे में अगर यह कहा जाता है कि दर्ज मामले झूठे हैं, तो उन्हें अदालतों से अनुमति लेनी चाहिए.
जब सरकार विपक्ष के लोगों पर झूठे मामले दर्ज करती है, तब राजनेता बदले की राजनीति की शिकायत करते हैं. न्यायाधीश शाह समिति 2014 के अपने सुझावों में ऐसी आशंकाओं के बारे में सलाह दी है. अब समय आ गया है कि मतदाता यह कहें कि उम्मीदवारों द्वारा केवल आपराधिक मामलों के बारे में बताना पर्याप्त नहीं है. हमें अब उन्हें अयोग्य ठहराने की ओर बढ़ना चाहिए. आपराधिक मामलों को जाहिर करने का कानून 2003 में आया था.
दो दशक बाद स्थिति यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की तादाद बढ़ती ही जा रही है. अब विधि आयोग की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार कड़ा कानून बनाना चाहिए, जिसमें अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. राजनीतिक वित्त को लेकर पारदर्शिता लाने, दलों में महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने और राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाने के बारे में भी सुधारों की आवश्यकता है पर सबसे जरूरी यह है कि गंभीर अपराधों के आरोपियों को टिकट न मिले. इतनी बड़ी आबादी में कुछ हजार अच्छे उम्मीदवार मिल ही सकते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)