समावेशी राजनीति के जननायक थे कर्पूरी
Karpoori Thakur : कर्पूरी ठाकुर कुल नौ बार विधायक और एक बार सांसद निर्वाचित हुए. वह बिहार की राजनीति में एक अजेय नेता के रूप में पहचाने जाते थे. उनकी नेतृत्व क्षमता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता ने उन्हें अद्वितीय स्थान दिलाया.
-पंकज चौरसिया-
Karpoori Thakur : दुनिया में कई ऐसे महान व्यक्ति हुए हैं, जिनके कार्यों और विचारों को उनके समय के समाज ने पूरी तरह से समझा या स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनके विचार और प्रयास अपने समय से कहीं आगे के थे. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर, जिनका देश आज 101वां जन्मदिवस मना रहा है, उन्हें भी उनके जीवनकाल में व्यापक स्तर पर कभी पूर्ण स्वीकार्यता नहीं मिली.
उन्हें सर्वमान्य नेता के बजाय दलित नेता और बाद में अति पिछड़ों के नेता के रूप में सीमित कर दिया गया क्योंकि उनका जन्म (24 जनवरी, 1924 को) नाई जाति में हुआ था. जीवनभर उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों से अपमान का सामना करना पड़ा. जाति के कारण ही उनकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व उन्हें बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटा दिया गया था. उनके विरोधियों ने उन्हें तिरस्कारपूर्ण ढंग से ‘कपटी ठाकुर’ कहकर संबोधित किया, यह उनके प्रति सामाजिक और राजनीतिक पूर्वाग्रह का प्रतीक था.’
कर्पूरी ठाकुर कुल नौ बार विधायक और एक बार सांसद निर्वाचित हुए. वह बिहार की राजनीति में एक अजेय नेता के रूप में पहचाने जाते थे. उनकी नेतृत्व क्षमता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता ने उन्हें अद्वितीय स्थान दिलाया. वर्ष 1967 में जब वे चौथी बार ताजपुर विधानसभा से विधायक के रूप में निर्वाचित हुए, तब कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और गठबंधन सरकार बनाने की कोशिशें तेज हो गयीं. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, सीपीआइ, जनक्रांति दल और प्रजा सोशलिस्ट जैसी पार्टियों ने मिलकर सरकार बनायी. हालांकि कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी थी और उसके नेता कर्पूरी ठाकुर की मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी थी.
डॉ राम मनोहर लोहिया भी चाहते थे कि कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बनें, पर दूसरी पार्टियां इसके लिए तैयार नहीं हुईं. दरअसल, वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव में केबी सहाय को महामाया प्रसाद सिन्हा ने पराजित किया था. ऐसी स्थिति में सभी दलों ने जनक्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर सहमति जतायी और अंततः महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने. उनकी सरकार में कर्पूरी ठाकुर को पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला. यहीं से गठबंधन राजनीति की शुरुआत हुई. कर्पूरी ठाकुर ने अपने कार्यकाल में शिक्षा के क्षेत्र में कई क्रांतिकारी बदलाव किये. मैट्रिक की परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की ताकि शिक्षा का लोकतंत्रीकरण हो सके. इस निर्णय से शिक्षा का दायरा व्यापक हुआ और समाज के हाशिये पर पड़े वर्गों को उच्च शिक्षा तक पहुंचने का अवसर मिला. हालांकि, उनके इस कदम की आलोचना हुई, और इसे विरोधियों ने ‘कर्पूरी डिवीजन’ कहकर व्यंग्यात्मक नाम दिया.
उन्होंने स्कूलों की फीस भी माफ की, जिससे गरीब और वंचित वर्गों के बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने में आर्थिक बाधाओं का सामना न करना पड़ा. ये निर्णय उनकी सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की विचारधारा को स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित करते हैं. हालांकि इस सरकार को उनके ही मंत्रिमंडल में शामिल स्वास्थ्य मंत्री बीपी मंडल और उनके साथी बाबू जगदेव प्रसाद ने गिरा दिया. वर्ष 1969 में कर्पूरी ठाकुर पांचवीं बार ताजपुर विधानसभा से निर्वाचित हुए. दरोगा प्रसाद राय की सरकार गिरने के बाद वह संविद सरकार में पहली बार 22 दिसंबर, 1970 को मुख्यमंत्री बने. इस संविद सरकार में समाजवादी समता पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, कांग्रेस (ओ), जनता पार्टी, भारतीय क्रांति दल, स्वतंत्र पार्टी, झारखंड पार्टी के विभिन्न गुट, शोषित दल, और हुल झारखंड जैसे कई दल शामिल थे.
कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में यह सरकार केवल छह महीने ही चली. इस कारण वे कोई बड़े बदलाव करने में असमर्थ रहे. वे आपातकाल के बाद 1977 में लगातार सातवीं बार विधायक के रूप में निर्वाचित हुए और बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में दूसरी बार शपथ ली. अपने इस कार्यकाल में उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर दी. रिपोर्ट के तहत उन्होंने 12 प्रतिशत आरक्षण अति पिछड़े वर्ग, आठ प्रतिशत पिछड़े वर्ग, तीन प्रतिशत सभी वर्गों की महिलाओं और तीन प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए लागू किया. इस प्रकार, कुल 26 प्रतिशत आरक्षण की नीति अस्तित्व में आयी. स्वतंत्र भारत में महिलाओं के लिए और सामान्य वर्ग के आर्थिक गरीब वर्गों के लिए पहली बार आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी. इस निर्णय के लिए उन्हें हर वर्ग की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. भले ही उनकी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उन्हें हटाया गया, पर उनके निर्णयों ने बिहार की राजनीति में एक नयी दिशा और सोच को जन्म दिया, जो आज भी विस्तार कर रही है. उनकी नीतियों का प्रभाव अन्य राज्यों और केंद्र स्तर पर भी देखा गया.
कर्पूरी ठाकुर की नीतियां उन तबकों को अवसर प्रदान करती हैं, जो सामाजिक संरचना में सबसे वंचित, अदृश्य और बिखरे हुए हैं. ऐसे जातीय समुदायों के पास न तो राज्य स्तर पर प्रभावशाली सिविल सोसाइटी है और न ही केंद्र स्तर पर कोई संगठित राजनीतिक दल, जो उनकी असहमति, मांगों और समस्याओं को सामने ला सके. कर्पूरी ठाकुर की दूरदर्शिता सामाजिक न्याय के व्यापक सिद्धांतों को स्थापित करने और वंचित समुदायों को मुख्यधारा में लाने का आधार बनी.
आज, जब हम आरक्षण नीति को लेकर बहस करते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि इसके मूल में सामाजिक न्याय का वह गहरा दर्शन है, जो यह मानता है कि केवल संसाधनों का पुनर्वितरण ही नहीं, बल्कि सम्मान और समानता भी जरूरी है. आरक्षण नीति सिर्फ एक संवैधानिक प्रावधान नहीं है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति है, जो समाज के हर तबके को आगे बढ़ने और अपने अधिकारों को समझने का अवसर देती है. यह नीति आज भी उन महापुरुषों के दूरदर्शी दृष्टिकोण की याद दिलाती है, जिन्होंने समानता और न्याय का सपना देखा था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)