किशन पटनायक का जीवन एक खुली किताब है. डॉ लोहिया के सम्यक अहिंसात्मक समाजवादी क्रांति का दर्शन उनकी जीवनशैली, सिद्धांत और कर्म तीनों में समाहित थे. उनका जन्म 30 जून, 1930 को ओडिशा के कालाहांडी में हुआ था. वाणी मंजरीदास नामक आदिवासी महिला से उनका विवाह हुआ. उनका व्यक्तिगत जीवन सदा अभावों में बीता. ओडिशा के संबलपुर लोकसभा क्षेत्र से किशन पटनायक 1962 में निर्वाचित हुए. प्रखर समाजवादी चिंतक किशन पटनायक जैसे लोग प्राय: तिरस्कृत होकर ओझल हो जाते हैं, यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाये गये आपातकाल से पहले ही किशन जी भूमिगत हो गये थे. संसदीय लोकतंत्र की राजनीति त्याग वह अखिल भारतीय लोहिया मंच के बैनर तले काम करने लगे. 27 सितंबर 2004 को अंतिम विदाई से पूर्व जीवन के अंतिम तीन दशकों में वह समाजवादी विचारधारा को नये सिरे से एक देशज मॉडल के रूप में गढ़ने का प्रयास कर रहे थे. उन्होंने समाजवादी जन परिषद नामक संगठन बनाया और देशभर में घूम-घूम कर नयी पीढ़ी के कार्यकर्ताओं को इसके अनुरूप तैयार करने में जुटे रहे.
भारतीय समाजवादी आंदोलन की लंबी नेतृत्व शृंखला में किशन पटनायक एक अनूठे नायक थे. उनका जीवन समाजवाद की संभावनाओं की तलाश का पर्याय था. इस लक्ष्य के लिए वह आजीवन सत्ता के राजपथ के बजाय सिद्धांत के जनपथ पर चले. उन्होंने डॉ. लोहिया द्वारा प्रतिपादित निराशा के कर्तव्य को अपना जीवन दर्शन बनाया. किशन पटनायक एक ऐसे मार्गदर्शक थे, जो संतति और संपत्ति के मोह की आंधी में भी अडिग रहे. किशनजी ने ही 1966 में देश के संसदीय इतिहास में पहली बार भूख से मौत के सवाल पर एक ही महीने में दो बार 30 मार्च व 29 अप्रैल, 1966 को आधी-अधूरी बहस चलायी और सदन से निष्कासित किये गये. उनके प्रयास का सरकार की तरफ से प्रबल विरोध किया गया. तत्कालीन खाद्य और कृषि मंत्री सी सुब्रह्मण्यम ने यह तो माना कि ओडिशा सूखे की चपेट में था, और बलांगीर, कोरापुट, कालाहांडी और सुंदरगढ़ जिलों में असर हुआ है. संबलपुर, कटक और ढेंकानाल भी सूखे से प्रभावित हैं. लेकिन यह नहीं स्वीकार किया कि भूख से मौत हुई है. इस पर डॉ लोहिया, मधु लिमये, मनराम बागड़ी और प्रो एनजी रंगा ने किशनजी के स्वर में स्वर मिलाया. एक महीने बाद किशन पटनायक ने कालाहांडी और कई अन्य जिलों की जमीनी हालत बताने के लिए महुए के फूल, इमली के बीज और ब्रजमूली के दानों को सदन के पटल पर रख कर सरकार को शर्मिंदा किया.
किशन पटनायक ने आजादी के बाद विलासिता और व्यक्तिगत खर्च बढ़ने की प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज उठायी. उन्होंने डॉ लोहिया की सलाह पर सीधे प्रधानमंत्री नेहरू को 14 अगस्त, 1962 को एक पत्र लिख कर प्रधानमंत्री के रखरखाव पर सरकारी खजाने से रोजाना 25 हजार रुपये के खर्च की जानकारी मांगी. नेहरू की तरफ से 15 अगस्त को जवाब आया. किशनजी ने भी इसका तुरंत जवाब लिख कर भेजा. नेहरू ने इसका जवाब भी 24 घंटे के अंदर भेज दिया. किशनजी को नेहरू जी की इस तत्परता पर सुखद आश्चर्य हुआ. तब एक सांसद के पत्र का बहुत महत्व था, और किसी सांसद के पत्र का मंत्री द्वारा जवाब देने की संसदीय प्रथा थी. किशनजी ने इस प्रसंग को याद करते हुए बताया है कि ‘मैंने नेहरू को चार पत्र लिखे. अंतिम पत्र में मैंने लिखा कि वह पत्रों का जवाब ठीक से नहीं दे रहे हैं, और यह भी कह रहे हैं कि उनके पास मेरे साथ, लंबे पत्र-व्यवहार का समय और धैर्य नहीं है. ऐसी स्थिति में मैं उनके साथ हुए पत्र-व्यवहार को प्रकाशित करने जा रहा हूं. लोहिया ने एक प्रेस सम्मेलन बुलाया जिसमें वे स्वयं उपस्थित थे, लेकिन संवाददाताओं के प्रश्नों का मुझे जवाब देना पड़ा. मैंने जवाब देने के साथ पत्रों की कॉपी संवाददाताओं को दे दी. सारे अखबारों ने इसे बड़ी खबर के रूप में छापा.’
किशन पटनायक संकोची और विनम्र व्यक्ति थे. किशन जी से मेरी पहली मुलाकात 1989 में सीतामढ़ी के किसान सम्मेलन में हुई थी. जब मैं मैट्रिक का छात्र था. वह शिष्टाचार निभाते थे और व्यक्तिगत कटुता और आलोचना से परहेज रखते थे. अपने समाजवादी अग्रजों के प्रति आदर भाव रखते थे. किशन पटनायक ने समाजवादी विचार प्रवाह बनाये रखने के लिए साधन विहीनता के बावजूद हिंदी और ओड़िया में पत्रिकाओं और पुस्तिकाओं के प्रकाशन का क्रम बनाये रखा. इससे नयी पीढ़ी के साथ उनका जुड़ाव सघन हुआ.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)