किशन पटनायक होने का मतलब
पुण्यतिथि पर बता रहे हैं योगेंद्र यादव
चुनाव परिणाम वाले दिन ‘लल्लनटॉप’ पर चल रही चर्चा को रोक कर अचानक सौरभ द्विवेदी ने मुझसे पूछा, ‘ आप अक्सर अपने गुरु किशन पटनायक की बात करते हैं. हमारे दर्शकों को उनके बारे में कुछ बताइए.’ मैं इस सवाल के लिए तैयार नहीं था. उस समय जो बन सका, कह दिया. लेकिन तब से यह सवाल लगातार मेरे भीतर चल रहा है- किशनजी का परिचय कैसे दूं? कोई साफ जवाब नहीं आता. लेकिन आज 27 सितंबर को उनकी बीसवीं बरसी पर एक कोशिश करना तो बनता है. किशन पटनायक (1930-2004) का सबसे आसान परिचय यह होगा कि वे एक राजनेता थे, समाजवादी नेता थे, पूर्व सांसद थे और वैकल्पिक राजनीति के सूत्रधार थे. वे युवावस्था में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़े और महज 32 वर्ष की आयु में ओडिशा के संबलपुर से लोकसभा सदस्य चुने गये. समाजवादी आंदोलन के बिखराव के बाद उन्होंने लोहिया विचार मंच की स्थापना की, फिर 1980 में गैर-दलीय राजनीतिक औजार के रूप में समता संगठन बनाया और फिर 1995 में वैकल्पिक राजनीति के वाहन एक राजनीतिक दल ‘समाजवादी जन परिषद’ की स्थापना की.
जवानी में ही सांसद बनने के बाद भी उन्होंने जीवनभर कोई संपत्ति अर्जन नहीं किया, आर्थिक तंगी के बावजूद 60 साल की आयु तक पूर्व सांसद की पेंशन भी नहीं ली, दिल्ली में दूसरे सांसदों के सर्वेंट क्वार्टर में रहे, अपनी जीवनसंगिनी और स्कूल अध्यापिका वाणी मंजरी दास के वेतन में गुजारा किया, न परिवार का विस्तार किया, न ही बैंक बैलेंस रखा. राजनीति की दुनिया ने उन्हें ऐसे आदर्शवादी संत के रूप में देखा,जो मुख्यधारा की राजनीति में असफल हुआ. राजनीति की दुनिया अगर किशनजी की किसी सफलता को याद करेगी, तो एक गुरु के रूप में. बिहार में जेपी आंदोलन के समय से किशनजी के नेतृत्व में नीतीश कुमार, शिवानंद तिवारी और रघुपति जैसे अनेक युवजन राजनीति में आये और कालांतर में मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े. समता संगठन के जरिये राकेश सिन्हा, सुनील, स्वाति, सोमनाथ त्रिपाठी, जसबीर सिंह और विजय प्रताप जैसे आदर्शवादी राजनीतिक कार्यकर्ता उनके अभियान में जुड़े. देशभर में न जाने कितने राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकर्मी, बुद्धिजीवी, पत्रकार और लोक सेवक मिलते हैं, जिनके जीवन की दिशा किशनजी के संपर्क में आकर बदल गयी. उनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है.
आज शायद देश उन्हें एक राजनीतिक चिंतक के रूप में याद करना चाहेगा. किशन पटनायक आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन परंपरा की शायद अंतिम कड़ी थे. उनके चिंतन का प्रस्थान बिंदु बेशक लोहिया हैं, लेकिन उन्हें केवल लोहियावादी या समाजवादी चिंतक कहना सही नहीं होगा. बीसवीं सदी के भारत में राजनीतिक दर्शन की दो अलग-अलग धाराएं रही हैं- समतामूलक धारा और देशज विचार की धारा. किशन पटनायक इस दोनों धाराओं के बीच सेतु थे, जिन्होंने इन विचार परंपराओं को इक्कीसवीं सदी के लिए प्रासंगिक बनाया. राममनोहर लोहिया की पत्रिका ‘मैनकाइंड’ के संपादन से शुरू कर किशनजी ने पहले ‘चौरंगी वार्ता’ और बाद में ‘सामयिक वार्ता’ पत्रिका का संपादन किया. उनके लेख अनेक पुस्तकों के रूप में संग्रहित हैं- ‘विकल्प नहीं है दुनिया’, ‘भारत शूद्रों का होगा’, ‘किसान आंदोलन: दशा और दिशा’ और ‘बदलाव की चुनौती’. किशनजी ने समतामूलक वैचारिक परंपरा में पर्यावरण के सवाल और विस्थापन की चिंता के लिए जगह बनायी, हाशिये के इलाकों के मूलनिवासी की चिंता को समझा, जाति और आरक्षण के सवाल पर समाजवादी आग्रह को पैना किया, राष्ट्रवाद की सकारात्मक ऊर्जा को रेखांकित किया तथा लोहिया की वैचारिक परंपरा का गांधी और आंबेडकर की विरासत से संवाद स्थापित किया.
उन्हें जानने वाले किशनजी को एक असाधारण इंसान के रूप में याद रखेंगे, जो ‘गीता’ वाली स्थितप्रज्ञ की अवधारणा पर खरा उतरता था. सुख-दुख, सफलता-असफलता से निरपेक्ष. आत्मश्लाघा से कोसों दूर. अपनी आलोचना सुनने और उससे सीखने का माद्दा. अपने लिए कम से कम जगह घेरने का आग्रह. सच्चाई उनके जीवन के हर पक्ष को परिभाषित करती थी. उनका संग सही मायने में एक सत्संग था- सत्य का संग. नये लोगों को यकीन नहीं होता कि ऐसा व्यक्ति भारत की राजनीति में बीस साल पहले तक मौजूद था. ये सब परिचय जरूरी हैं, लेकिन अधूरे हैं. चूंकि ये परिचय कुछ खांचों में बंधे हैं- नेता बनाम साधु, कार्यकर्ता बनाम चिंतक, सत्ता बनाम समाज. किशन पटनायक उस युग की याद दिलाते हैं, जिसमें एक राजनेता और चिंतक में फांक नहीं थी. राजनीति विचार से दिशा लेती थी और विचार राजनीति से गति पाते थे. किशनजी को याद करना हमारी सभ्यता में साधु की भूमिका को याद करना है, जिसका काम राजा को सच का आईना दिखाना था. किशनजी हमें उस मर्यादा की कील की याद दिलाते हैं, जो हमारी नजर से ओझल रहती है, पर उसने सदियों से हमारी सभ्यता की चौखट को खड़ा रखा है. किशन पटनायक को याद करना उस भविष्य को जीवित रखना है, जहां राजनीति शुभ को सच में बदलने का कर्मयोग है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)