ज्ञान-विज्ञान और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि
राष्ट्र निर्माण में भूमिका महज राजनीतिक नेतृत्व की नहीं होती. हर सक्षम व्यक्ति को इसमें योगदान देना होता है. अगर नयी सरकार के दौर में कोई उथल-पुथल हुई, तो देश का शिक्षा तंत्र पिछड़ जायेगा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पहले नालंदा विश्वविद्यालय के नये परिसर का उद्घाटन करते हुए कहा कि हम सभी जानते हैं कि नालंदा कभी भारत की परंपरा और पहचान का जीवंत केंद्र हुआ करता था. शिक्षा को लेकर यही भारत की सोच रही है. जवाहरलाल नेहरू ने 1937 में इंडियन साइंस कांग्रेस के उद्घाटन में कहा था कि भारत की गरीबी को दूर करने का माध्यम शिक्षा ही है. बहरहाल, बरसों तक भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पश्चिम आयातित ज्ञान-विज्ञान पर टिकी रही. इसीलिए अंग्रेजी भाषा को माध्यम बनाया गया. विदेशी पुस्तकों में विदेशी ज्ञान भारत के ज्ञान-विज्ञान की पहचान बन गयी. सामाजिक विज्ञान भी इसी में समाहित हो गया.
राष्ट्र की परिभाषा से लेकर राजनीतिक विचार-विमर्श का आधार भी पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान बना. प्रधानमंत्री मोदी ने दस वर्ष पूर्व कार्यभार संभालने के साथ इस गिरह को खोलने की सोच को बढ़ावा दिया. इस प्रक्रिया में समय लगा और उनके दूसरे कार्यकाल में नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू किया गया. पठन-पाठन में क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी पर बल दिया गया. मृतप्राय संस्कृत को जीवित किया जाने लगा. यह समझ विकसित होने लगी कि दुनिया के सामने उपस्थित समस्याओं का हल भारतीय दृष्टिकोण में है. भारत की सोच में एक शांतिपूर्ण जगत की विहंगम दृष्टि है.
लेकिन समस्या दुनिया के सामने भारत की ज्ञान व्यवस्था को सुनियोजित ढंग से स्थापित और संचालित करने की थी. वह कैसे हो, यह सबसे बड़ी चुनौती थी. अपने तीसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी इस दिशा में ठोस पहल करने जा रहे थे, पर कुछ राजनीतिक समीकरण ने उथल-पुथल मचाया और कुछ शिक्षा जगत में सक्रिय अपराधियों ने भारत की बेहतरीन सोच पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया. अहम सवाल यह है कि भारत की अंतरराष्ट्रीय पहचान का मजबूत आधार कैसे तैयार होगा और उसका सूत्रधार कौन होगा. क्या प्रधानमंत्री की सोच का भारत केवल अंतरराष्ट्रीय योग दिवस तक ही थम जायेगा? ये सारे प्रश्न हम सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं. अगर भारत के पुरातन इतिहास की चर्चा की जाए, तो हड़प्पा सभ्यता के दौर में भारत के व्यापारिक संबंध मेसोपोटामिया से लेकर अफ्रीकी देशों तक थे.
हड़प्पा संस्कृति के केंद्र बलूचिस्तान, पंजाब, सिंध और गुजरात में थे. पूरा मध्य एशिया भारत के साथ जुड़ा हुआ था. ईरान में भारतीय संस्कृति के अवशेष मिले हैं. दक्षिण भारत के जरिये समूचा पूर्वी एशिया भारत के संपर्क में था. यह व्यापार केवल वस्तुओं का नहीं होता था, बल्कि विचारों का भी होता था. इसी तरह भारत से नेपाल और पुनः चीन व पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म और हिंदू संस्कृति का विस्तार हुआ. चीन के दो महत्वपूर्ण यात्री फाहियान और ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर आये और अध्ययन-अध्यापन किया तथा भारत को गुरु भूमि के रूप में स्वीकार किया.
बीसवीं सदी में अमेरिका ने बड़े पैमाने पर विचार संस्थानों (थिंक टैंक) की शुरुआत की. इसका उद्देश्य दुनिया को अपने अनुसार समझने और उसी के अनुरूप नीतियों को बनाना था. अमूमन ये संस्थाएं गैर-सरकारी थीं, लेकिन उनको आर्थिक मदद के साथ-साथ संसाधनों को सरकार द्वारा ही मुहैया कराया जाता था. इन संस्थाओं के माध्यम से अमेरिका ने ज्ञान शक्ति का एक ऐसा मजबूत तंत्र बना लिया कि दुनिया में किसी भी समस्या का हल उसी के विशेषज्ञों से पूछा जाने लगा. यहां तक कि जब भारत में संसद पर आतंकी हमला हुआ, तो उसके बारे में समझ बनाने के लिए भी अमेरिकी संस्थाओं से राय ली गयी. इस तरह महाशक्ति की परिभाषा में ज्ञान की शक्ति भी एक आधार बन गया. आर्थिक और सैनिक शक्ति के साथ-साथ ज्ञान की पहचान भी जरूरी है, जिसे अमेरिकी विद्वान जोसफ नाई ने ‘सॉफ्ट पावर’ की संज्ञा दी. चीन 21वीं सदी में ‘सॉफ्ट पावर’ पर खूब काम कर रहा है, लेकिन उसकी कुछ सीमाएं हैं- एक, साम्यवादी शासन और दूसरा, मंदारिन भाषा, जो दुनिया में सभी जगह नहीं बोली नहीं जाती. भारत के पास एक स्थापित लोकतंत्र भी है और दुनिया में दूसरे स्थान पर सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोलने वाले लोग हैं.
लेकिन समस्या का हल इतने भर से नहीं हो सकता. बात भारतीय चिंतन और संस्कृति की है, उसके रूपांतरण की है. यही बार प्रधानमंत्री की सोच के केंद्र में भी है. उच्च शिक्षा में भारत का कुल नामांकन 26 प्रतिशत है, जिसे हम 2035 तक 50 प्रतिशत पर ले जाना चाहते हैं. क्या गुणवत्ता के साथ भारत को विश्व में प्रतिष्ठित करने का लक्ष्य ऐसी व्यवस्था से संभव होगा. राष्ट्र निर्माण में भूमिका महज राजनीतिक नेतृत्व की नहीं होती. हर सक्षम व्यक्ति को इसमें योगदान देना होता है. अगर नयी सरकार के दौर में कोई उथल-पुथल हुई, तो देश का शिक्षा तंत्र पिछड़ जायेगा और भारत की पहचान अधर में लटक जायेगी. इसलिए नयी शिक्षा नीति के जरिये भारत केंद्रित अंतरराष्ट्रीय पहचान की आवश्यकता है. प्रधानमंत्री मोदी ने जो नालंदा में कहा, उसे कैसे पूरे देश में लागू किया जाए, यह गंभीर चुनौती होगी. उन्होंने कहा है, ‘नालंदा केवल एक नाम नहीं है. नालंदा एक पहचान है, एक सम्मान है. नालंदा एक मूल्य है, मंत्र है, गौरव है, गाथा है.’(ये लेखक के निजी विचार हैं.)