कुमार शहानी : एक अवांगार्द फिल्मकार का जाना
अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनियाभर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे.
अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनियाभर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे. उनकी बहुचर्चित फिल्म माया दर्पण (1972) के पचास साल पूरे होने पर जब मैंने उनसे बातचीत की थी, तब भी वे फिल्म बनाने के लिए उत्सुक थे. उन्होंने कहा था कि फिल्म के पचास वर्ष पूरे होने पर उनकी फिल्मों के प्रति रूचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है. अब उनकी फिल्में, लेखन, व्याख्यान और मुलाकातें ही हमारी स्मृतियों में रहेंगी. वे सहज और सौम्य व्यक्ति थे. कुछ वर्ष पहले जब मैंने उन्हें फोन किया और परिचय देते हुए कहा कि मिलना चाहता हूं. उन्होंने दोपहर के समय दिल्ली के आईआईसी में बुलाया. मैंने कहा कि मैं दिन में नौकरी करता हूं, क्या फोन पर बात हो सकती है. उन्होंने शाम का समय दिया. फिर मैंने पूछा कि छह बजे के बाद उन्हें दिक्कत तो नहीं होगी.
उन्होंने बेहद शालीनता से कहा, नहीं. फिर जोड़ा- नौकरी करना जरूरी है. ‘माया दर्पण’ (1972), ‘तरंग’ (1984), ‘ख्याल गाथा’ (1989), ‘कस्बा’ (1990), ‘चार अध्याय’ (1997) आदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. वे सिनेमा के विचारक और एक कुशल शिक्षक भी थे. मुझे याद है कि करीब बीस साल पहले उन्होंने जेएनयू में कार्ल थियोडोर ड्रेयर की चर्चित फिल्म ‘द पैशन ऑफ जॉन आर्क’ (1928) पर एक व्याख्यान दिया था. साठ के दशक में समातंर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल के संग उन्होंने पुणे स्थित फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) से फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लिया था. फिल्म संस्थान में उन्हें ऋत्विक घटक जैसे गुरु मिले और ‘एपिक फार्म’ से उनका परिचय करवाया. वे जब छात्रवृत्ति लेकर पेरिस गये, तब महान फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां के संग ‘उन फाम डूस’ (ए जेंटल वुमन, 1969) फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े. उनकी फिल्मों पर दोनों निर्देशकों का असर है, लेकिन फिल्म निर्माण की शैली उनकी निजी है.
बिंब और ध्वनि का कुशल संयोजन और फॉर्म के प्रति एकनिष्ठता उनकी फिल्मों में जैसा दिखता है, सिनेमा के इतिहास में दुर्लभ है. उन्होंने कहा था, ‘मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया.’ जहां ‘माया दर्पण’ फिल्म में तरन के ऊपर ब्रेसां की चर्चित फिल्म ‘मूशेत’ (1967) के केंद्रीय चरित्र की छाप दिखती है, वही ‘मिनिमलिज्म’ का प्रभाव भी. ब्रेसां की फिल्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा है, उससे भी वे प्रभावित रहे. रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चार अध्याय’ पर आधारित फिल्म पर ऋत्विक घटक का असर है. उनकी सभी फिल्मों में ‘फॉर्म’ के प्रति एक अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखती है. ‘माया दर्पण’ फिल्म में हवेली को जिस तरह फिल्माया गया है, वह सामंती परिवेश, केंद्रीय पात्र ‘तरन’ के मनोभावों, एकाकीपन को दर्शाने में कामयाब है. रंगों का कुशल संयोजन इस फिल्म की विशेषता है. यह दुर्भाग्य ही है कि इस ‘अवांगार्द’ फिल्मकार को हमेशा संसाधन की कमी से जूझना पड़ा, लेकिन उपभोक्तावादी दौर में अपनी कला से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया.
शहानी अक्सर अपने जन्म स्थान लरकाना (सिंध, पाकिस्तान) की चर्चा करते थे. साथ ही, रंगों के मेल और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में इसकी केंद्रीयता को रेखांकित करते रहे. वे खुद को घटक की तरह ही विभाजन की संतान कहते थे. शहानी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित थे, फिल्म में सामंतवाद का विरोध है. इसमें उनकी वर्ग-चेतन दृष्टि स्पष्ट दिखती है. जब मैंने फिल्म में कहानी से अलग ‘ट्रीटमेंट’ के बाबत पूछा था, तब उन्होंने कहा था, ‘मैंने ‘माया दर्पण’ में सामंतवादी उत्पीड़न दिखाने की कोशिश की है. फिल्म के अंत में डांस सीक्वेंस है, उसके माध्यम से मैंने इस उत्पीड़न को तोड़ने की कोशिश की है. उस डांस में जो ऊर्जा है, वह सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है. यह काली के रंग में भी है.’ कुमार शहानी कहते थे कि जब आप फिल्म बनाते हैं, तब आप एक विशिष्ट काम करने की इच्छा रखते हैं, खास कर जब आप स्वतंत्रता की बात करते हैं. एक तरह से वैयक्तिक स्वतंत्रता इस फिल्म की मूल भावना है.
कला में यह स्वतंत्रता किस रूप में आए, यह फिल्म इस बात की खोजबीन करती है. उनकी फिल्मों में बिंब (इमेज) सायास रूप से भारतीय चित्रकला से प्रेरित दिखते हैं. अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह जैसे समकालीन फिल्मकारों पर उनका स्पष्ट प्रभाव है. ‘माया दर्पण’ के बाद की उनकी फिल्मों का अध्ययन संगीत से उनके जुड़ाव के आधार पर ही किया जा सकता है. उनकी फिल्मों पर हिंदी में गंभीर विवेचना की जरूरत है. ये फिल्में भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगी हैं, राजनीतिक विचारधारा का यहां समावेश है. शहानी दोनों के बीच कुशलता से आवाजाही करते रहे.