लोकसभा चुनाव में मजदूरों का मुद्दा
चुनाव का माहौल देखकर लगता ही नहीं कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब केंद्र सरकार द्वारा ‘मजदूरों का सुनहरा भविष्य सुनिश्चित करने के उद्देश्य से’ संसद से पारित चार श्रम संहिताओं को लागू करने का मुद्दा गर्म था.
इस लोकसभा चुनाव में मजदूरों के मुद्दे कहां हैं? मतदान के दो चरण पूरा होने के बाद भी यह सवाल इस अर्थ में जवाब मांग रहा है कि न वे नेताओं के भाषणों में सुनाई दे रहे हैं, न कार्यकर्ताओं के नारों में और न ही प्रचार या चर्चाओं में. ऐसे में पार्टियों के घोषणापत्रों में उनका जो थोड़ा जिक्र है, वह भी औपचारिक होकर रह गया है. इसलिए सामान्य मजदूर इस जानकारी से भी वंचित हैं कि उनके हालात बेहतर करने के लिए किस पार्टी या गठबंधन द्वारा क्या वादे किये गये हैं या नहीं किये गये और नहीं किये गये, तो क्यों नहीं.
उन मजदूरों को भी यह सब नहीं पता, जिनकी मेहनत से खड़े पंडालों में स्टार प्रचारकों की सभाएं हो रहीं हैं. यह स्थिति इसलिए बहुत अचंभित व चिंतित करती है कि चीन के बाद दुनिया का सबसे बड़ी श्रमशक्ति वाला देश भारत है. कई लोग तो भारत को किसानों और मजदूरों का ही देश कहते हैं. किसान इस मायने में थोड़े खुशकिस्मत हैं कि हाल के वर्षों में उन्होंने कई प्रदेशों में आंदोलनों के रास्ते अपनी ऐसी वर्गीय उपस्थिति दर्ज करा दी है, जो इन चुनाव में भी बनी हुई है. लेकिन मजदूरों की वर्गीय उपस्थिति इतनी भी नहीं है कि किसानों के आंदोलन चलें, तो उनमें खेतिहर मजदूरों की समस्याओं की भी कुछ चिंता कर ली जाए. यह चिंता तब भी नहीं की गयी, जब किसानों द्वारा विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर धरने के दौर में मजदूर संगठनों ने उनके आंदोलन को पूरा समर्थन दिया था.
मजदूरों की दुर्दशा से ज्यादा चर्चा में तो वे कॉरपोरेट कंपनियां हैं, जिन्होंने इलेक्टोरल बांड की मार्फत विभिन्न दलों को बड़े-बड़े चंदे दिये और अपनी व्यवसाय वृद्धि की. मजदूरों के संदर्भ में तो इस पर भी बात नहीं हो रही है कि वे कितनी बुरी स्थितियों में और कितने जोखिमों के बीच काम करते हैं. यह समस्या सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के साथ है. ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत मजदूरों में 94 प्रतिशत की आय दस हजार रुपये या उससे कम है और इनमें 74 प्रतिशत से ज्यादा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़े वर्ग से आते हैं. दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या की दर किसानों की आत्महत्या की दर जितनी ही चिंताजनक है और उनके लिए बढ़ती विकास दर का अर्थ अपनी बढ़ती हुई बदहाली हो गया है. ‘एक देश एक राशनकार्ड’ के शोर के बीच अलग-अलग राज्यों में मजदूरी में भारी अंतर है क्योंकि हर राज्य यह अपने हिसाब से तय करता है.
चुनाव का माहौल देखकर लगता ही नहीं कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब केंद्र सरकार द्वारा ‘मजदूरों का सुनहरा भविष्य सुनिश्चित करने के उद्देश्य से’ संसद से पारित चार श्रम संहिताओं को लागू करने का मुद्दा गर्म था. तब 2019-20 में पारित और 29 ‘जटिल’ केंद्रीय श्रम कानूनों को संशोधित कर और मिलाकर बनीं इन चार संहिताओं (वेतन संहिता 2019, औद्योगिक संबंध संहिता 2020, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थिति संहिता 2020 और सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020) की प्रशंसा व आलोचना में विभिन्न पक्षों द्वारा ढेरों शब्द खर्च किये जा रहे थे. सत्तापक्ष जहां इन्हें बेहद जरूरी आर्थिक सुधार बता रहा था, वहीं विपक्ष और कई श्रम संगठन इनको ‘मजदूरों पर लटकती तलवार’ और उनके ‘भविष्य के लिए खतरे की घंटी’ के रूप में देख रहे थे.
मजदूरों को इन संहिताओं से फिलहाल इतनी ही राहत हासिल है कि इन्हें 2021 में एक अप्रैल से लागू करने जा रही सरकार ने अपना यह निश्चय कोरोना के बहाने टाल दिया है. लेकिन उनके पास ऐसा कोई आश्वासन नहीं है कि नयी सरकार आते ही इन संहिताओं को लागू करने की जुगत में नहीं लग जायेगी. ऐसे में यह चुनाव सुअवसर है कि मजदूर संगठन सत्ता में आने की प्रतिद्वंद्विता कर रहे दलों से यह आश्वासन पाने की कोशिश करें कि उनकी सत्ता में आने की मुराद पूरी हुई, तो वे इन संहिताओं को लागू नहीं करेंगे.
लेकिन वे ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे. गत 12 अप्रैल को मैसूर में वामपंथी मजदूर संगठन सेंटर ऑफ इंडिया ट्रेड यूनियंस (सीटू) ने अपने अधिवेशन में यह जरूर कहा कि मजदूरों के लिहाज से यह लोकसभा चुनाव बहुत अहम है क्योंकि कॉरपोरेट परस्त सरकारी नीतियों व कानूनों ने उनके समक्ष विषम स्थिति पैदा कर दी है, लेकिन ऐसी नीतियों की अलमबरदार पार्टियों को नकारने की किसी पहल का कोई संकेत नहीं दिया.
एक अध्ययन के अनुसार देश में 41.19 प्रतिशत मजदूर कृषि क्षेत्र में, 26.18 प्रतिशत उद्योगों में तथा 32.33 प्रतिशत सेवा क्षेत्र में नियोजित हैं. कांग्रेस, भाजपा व वामदलों द्वारा नियंत्रित अथवा स्वतंत्र पांच प्रमुख केंद्रीय मजदूर संगठन हैं- इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस, भारतीय मजदूर संघ, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस और हिंद मजदूर संघ.
इनके 90 प्रतिशत सदस्य संगठित क्षेत्र से आते हैं, जबकि श्रम शक्ति में 90 प्रतिशत की हिस्सेदारी वाले असगंठित क्षेत्र के मजदूरों का प्रतिनिधित्व बेहद अपर्याप्त है. साफ है कि ये संगठन कुल मजदूरों के चौथाई हिस्से का भी प्रतिनिधित्व नहीं करते. तिस पर विडंबना यह कि उनकी पूंछ मजदूरों के बजाय अपने नियंत्रक राजनीतिक दलों के स्वार्थों से बंधी रहती है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)