भाषा का संबंध हमारे जीवन से है

भाषा का अपने सामाजिक यथार्थ से गहरा रिश्ता होता है. कोई भी भाषा अपने व्यापक सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े सच को व्यक्त करके ही शक्ति अर्जित करती है. कोई लेखक हिंदी में लिखने मात्र से महान लेखक नहीं बन जाता.

By सुधा सिंह | November 17, 2022 7:57 AM
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हिंदी की व्यापकता, विस्तार, शक्ति, व्यवहार आदि के आकलन से सितंबर के महीने का मीडिया रंगा रहता है. पत्रकारिता और अनुवाद का बहुत बड़ा क्षेत्र है, जहां संयोग से हिंदी का बड़ा बाजार भी है. हाल में गीतांजलिश्री के हिंदी उपन्यास रेतसमाधि के अंग्रेजी अनुवाद को अनुवाद का बुकर पुरस्कार मिला है. इसे हिंदी की ताकत की तरह आंका जा रहा है. मीडिया के लोग सोचते हैं कि हिंदी का उनके लिए दाम ज्यादा है क्योंकि वह पचास करोड़ से ज्यादा लोगों की भाषा है.

मीडिया में किसी भी भाषा की महत्ता उसके बोलने वालों से जब आंकी जाती है, तो अचानक यह तथ्य भी संप्रेषित होता है कि भाषा से बड़ा तत्व जनसंख्या का है. भाषा को जनसंख्या बल के आधार पर देखने का तरीका मार्केटिंग का तरीका है. मार्केट को जनसंख्या से मतलब है, इसके बाद वे लोग कैसे हैं, उनकी दुनिया कैसी है, उनकी परंपरा क्या हैं, उनके सुख-दुख क्या हैं इत्यादि सवालों से मीडिया सर्जकों का बहुत कम लेना-देना होता है. भाषा माल उत्पादकों और क्रेताओं के बीच संपर्क, संवाद और संचार की धुरी है. इस धुरी के जरिये क्या दिया जा रहा है? कैसे दिया जा रहा है?

इन सब सवालों की ओर से हिंदी मीडिया ने अब आंखें बंद कर ली हैं. मीडिया को अपने ऑडिएंस की भाषा में संप्रेषण करना चाहिए लेकिन यदि एकमात्र भाषा बोलनेवालों की संख्या ही महत्वपूर्ण कारक है, ऑडिएंस की संस्कृति-सचेतनता से मीडिया का कोई सरोकार नहीं है, तो इसे मीडिया की कमजोरी ही कहा जायेगा. मीडिया में भाषा संचार का एक रूप है, किंतु इसकी शक्ति संबंधित भाषा-भाषी लोगों के जीवन यथार्थ के चित्रण से आती है. भाषा का अपने सामाजिक यथार्थ से गहरा रिश्ता होता है.

कोई भी भाषा अपने व्यापक सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े सच को व्यक्त करके ही शक्ति अर्जित करती है. कोई लेखक हिंदी में लिखने मात्र से महान लेखक नहीं बन जाता. उसी तरह कोई भी अखबार, रेडियो, टीवी चैनल सिर्फ हिंदी में आने से ही हिंदी का भला नहीं करने लगता, बल्कि यह कहना ज्यादा सच होगा कि हिंदी तो एक ऊपरी आभूषण है, असल है हिंदीभाषी जनता का यथार्थ.

यह सच है कि हिंदी चैनलों और अखबारों की बाढ़ आयी हुई है, किंतु इससे भी बड़ा सच यह है कि विगत कई वर्षों से हिंदी में कोई भी ऐसी खोजी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है, जो पूरे देश का ध्यान खींच सके. इससे भी बड़ा सच यह है कि भूमंडलीकरण का जो रेला हिंदी मीडिया में चल रहा है, उसमें सांस्कृतिक गुलामी के बीज बोये जा रहे हैं. लगातार हमारे पास ऐसी खबरें आ रही हैं, जिन्हें सारवान खबरें नहीं कह सकते हैं.

खबरों के ऐसे धुरंधर संवाददाता आ गये हैं, जिन्हें सही हिंदी बोलनी नहीं आती. इससे भी बड़ी बात यह है कि आज भी विज्ञापन में हिंदी सृजन की भाषा का दर्जा हासिल नहीं कर पायी है. ज्यादातर विज्ञापन अंग्रेजी में तैयार होते हैं, उनकी मूल सामग्री अंग्रेजी में तैयार होती है. कई हजार करोड़ का व्यापार करने वाला विज्ञापन उद्योग आजादी के पचहत्तर साल बाद भी हिंदी में सोच नहीं पाता,

हिंदी में जब तक विज्ञापन नहीं सोचेगा, हिंदी के अपने विज्ञापन सर्जक तैयार नहीं होंगे, तब तक हिंदी के स्तर में सुधार नहीं आने वाला. टीवी चैनलों में हिंदी को लेकर हीनताबोध इस कदर हावी है कि ज्यादा चैनलों के कार्यक्रमों के नाम अंग्रेजी में हैं. मजेदार बात यह है कि वे अंग्रेजी में नाम लिखकर भी दिखाते हैं, नाम बोलते भी अंग्रेजी में हैं.

दुखद बात यह है कि सांस्कृतिक गुलामी के लिए बच्चों को सीधे निशाना बनाया जा रहा है. बच्चों के डब कार्यक्रमों के पात्र जब हिंदी बोलते हैं, तो बेतुके लगते हैं क्योंकि उन कार्यक्रमों के बच्चों की दुनिया हिन्दीभाषी बच्चों की दुनिया से मेल ही नहीं खाती. भाषा प्रामाणिक यथार्थ से समृद्ध होती है. मीडिया नेटवर्क की पहुंच के आधार पर भाषा की समृद्धि का अंदाजा नहीं लगाया जाना चाहिए. भाषा बोलने से नहीं लिखने से समृद्ध होती है.

हिंदी के प्रिंट मीडिया ने लंबे समय तक भाषा शिक्षण का काम किया. लेकिन आज के हिंदी मीडिया ने हिंदी का बाजार तो हासिल कर लिया है, किंतु हिंदी का वह ठाट, साख और प्राणतत्व अभी हासिल नहीं कर पाया है. हिंदी बाजार की भाषा जरूर है, किंतु इसकी प्राणवायु बाजार मात्र के संप्रेषण में नहीं है.

सचाई यह है कि हिंदी आज बाजार के मैनीपुलेशन और फुसलाने का माध्यम बन गयी है. भाषा जब फुसलाने लगे, तो यह समझ लेना चाहिए कि खतरा मंडरा रहा है. हिंदी को मीडिया ने फुसलाने की भाषा बनाया है. भाषा का संबंध हमारे जीवन से है, जीवन के ठोस यथार्थ से है. उसके अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति से है.

हिंदी जब हिंदीभाषी समाज के संघर्षों और अंतर्विरोधों की भाषा बनेगी, तो उसकी साख बढ़ेगी, लेकिन यदि हिंदी सिर्फ माल के संप्रेषण की भाषा बनेगी, तो उसकी साख घटेगी. इन सभी बिंदुओं पर हिंदीभाषी समाज, मीडिया तथा बौद्धिक जगत को गंभीरता से विचार और व्यवहार करना चाहिए, तभी वर्तमान परिदृश्य में सुधार हो सकेगा.

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