Languages Dying : बीसवीं सदी के भाषा दार्शनिकों में लुडविग विट्गेंश्टाइन का नाम गंभीरता से लिया जाता है. लुडविग ने भाषा को लेकर अनोखी बात कही है, ‘मेरी भाषा की सीमा का अर्थ है, मेरी दुनिया की चौहद्दी.’ इसका साफ अर्थ यह है कि हर व्यक्ति की अपनी भाषा दरअसल उसकी दुनिया होती है. ऐसी दुनिया, जिसमें सिर्फ भूगोल ही शामिल नहीं है, इतिहास भी है और संस्कृति भी, जिसमें परंपरा भी शामिल है और सदियों का अपना विशिष्ट ज्ञान भी. जिस तरह नदियां अपने उद्गम और अपने प्रवाह वाले क्षेत्रों की पूरी संस्कृति और पर्यावरण के अथाह गुणों को स्वयं में समाये रखती हैं, भाषाएं भी नदी की ही भांति अपनी परंपरा, सोच, अपने दर्शन, भूगोल और इतिहास के साथ ही समूची संस्कृति को लेकर प्रवाहित होती रही हैं.
यहां प्रश्न उठ सकता है कि भाषाओं को लेकर ऐसी बातों का संदर्भ क्या है? दरअसल, संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्को ने भाषाओं को लेकर जो ताजा रिपोर्ट जारी की है, उसमें कहा गया है कि हर दो सप्ताह बाद दुनिया की एक भाषा मर रही है. पहले जहां हर तीन महीने के अंतराल पर एक भाषा की मौत की खबर आती थी, वहीं 2019 के बाद इस गति में तेजी आयी है. इस दर से हर वर्ष दुनिया से करीब नौ भाषाओं का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है. स्पष्ट है कि यदि एक भाषा मर रही है, तो वास्तव में उस भाषा की अपनी विशिष्ट संस्कृति, उसकी अपनी सोच और उसका अपना परिवेश बोध मर रहा है. इन अर्थों में देखें, तो भाषाओं का इस तरह मरते जाना संस्कृतियों के बहुलवादी स्वरूप का संकुचित होते जाना है.
यूनेस्को के अनुसार, एक हजार ईस्वी तक दुनियाभर में नौ हजार से कुछ ज्यादा भाषाएं अस्तित्व में थीं. जिनकी संख्या घटते-घटते आज सात हजार के आसपास सिमट गयी हैं. यूनेस्को को आशंका है कि भाषाओं के मरने की यदि यही दर बनी रही, तो 21वीं सदी के अंत तक दुनियाभर की करीब तीन हजार भाषाओं का अस्तित्व समाप्त हो चुका होगा. भाषाओं के जानकारों के अनुसार, यूनेस्को का यह आकलन उम्मीदों से भरा है. जबकि पश्चिम के कई भाषा और मानवशास्त्री मानते हैं कि यदि भाषाओं के मरने की गति ऐसी ही रही, तो 2200 तक दुनियाभर में महज 100 भाषाएं ही जीवित रह पायेंगी.
भाषाओं के लुप्त होने को लेकर भारत में एक अवधारणा यह है कि जो भाषा क्लिष्ट या कठिन होती जाती है, वह लोक व्यवहार में समाप्त होती जाती है. संस्कृत भाषा के बारे में नहीं कह सकते कि वह समाप्त हो चुकी है, पर उसका चलन घट गया है. एक खास धारा की वैचारिकी और भाषा दार्शनिक संस्कृत के चलन से बाहर होने के लिए उसके गंभीर होते जाने का उदाहरण देते हुए भाषाओं के लुप्त होने का सिद्धांत गढ़ते रहे हैं. परंतु क्या सचमुच भाषाएं केवल इसी वजह से समाप्त हो रही हैं कि वे क्लिष्ट या कठिन होती जा रही हैं? आधुनिक संदर्भों में देखें, तो यह तर्क सही नहीं लगता. अंग्रेजी को ही लीजिए. कठिन अंग्रेजी बोलना शान का प्रतीक माना जाता है. इस लिहाज से तो उसे भी चलन से दूर होना चाहिए था, पर उल्टे वह बढ़ रही है.
आधुनिक विश्व में सबसे बेहतरीन व्यवस्था लोकतंत्र को माना जा रहा है. पर यह लोकतंत्र केवल राजनीतिक संदर्भों तक ही सिमटता जा रहा है. विश्व ग्राम में बदली दुनिया में हर देश में एकरूपता बढ़ती जा रही है. संस्कृतियां और उनकी अपनी विशिष्ट परंपराएं रोजाना के व्यवहार का विषय नहीं रहीं. उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया तकरीबन एक तरह के खानपान, पहनावे और एक तरह की भाषा की ओर आकर्षित होती जा रही है. पश्चिमी सभ्यता और उसका सलीका ही मानक बनते जा रहे हैं. इस लिहाज से दुनियाभर की बोलियों में भी एकरूपता कभी सायासिक, तो कभी अनायास ही होती जा रही है. चूंकि रोजी और रोजगार के लिए छोटे समुदायों की भाषाएं सहयोगी नहीं रह पायी हैं, तो उनका चलन रोजाना की जिंदगी से कम होता जा रहा है और भाषाएं मर रही हैं. इसमें हर देश की अपनी केंद्रीय भाषा जहां केंद्रीय भूमिका में हैं, वहीं उसके देशज रूप लगातार या तो कमजोर हुए हैं या फिर लुप्त हो रहे हैं. कथित आधुनिक सोच इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा दे रही है. भारत में अंग्रेजी इस आधुनिकता की वाहक है. इसी तरह कुछ प्रमुख भाषाएं अपने-अपने क्षेत्रों में आधुनिकता का केंद्रीय तत्व बन चुकी हैं.
इस पूरी प्रक्रिया में बहुत सी ऐसी भाषाएं हैं, जो इतने कम लोगों द्वारा बोली जाती हैं कि निकट भविष्य में उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा. यूनेस्को की रिपोर्ट ‘एटलस-लुप्तप्राय भाषाएं’ के अनुसार, भारत में तीन ऐसी भाषाएं हैं, जिनके अस्तित्व पर संकट आ खड़ा हुआ है. इसमें पहले स्थान पर कर्नाटक की कोरगा है, जिसे बोलने वालों की संख्या महज सोलह हजार ही है. हिमाचल प्रदेश की सिरमौरी को महज 31 हजार लोग ही बोलते हैं. इस सूची में तीसरे स्थान पर छत्तीसगढ़ की पारजी भाषा है, जिसे केवल पचास हजार लोग बोल रहे हैं. एकीकरण के दौर में रोहिंग्या लोगों की भाषा हनीफी भी मरने के कगार पर है.
यूरोप में ऐसे ही अस्तित्व के संकट से आयरिश, सिसिली और यिडिश भाषाएं भी जूझ रही हैं. हमें याद रखना चाहिए कि भाषाओं की गहन विविधता सांस्कृतिक विविधता को न केवल सुनिश्चित करती है, बल्कि अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को आकार देती हैं. यदि आज के दौर में किसी भाषा को पीछे धकेला जा रहा है या किनारे किया जा रहा है, तो इसका अर्थ यह भी है कि इसके जरिये एक तरह से उस भाषा विशेष के क्षेत्र की संस्कृति का हिस्सा भी गायब हो रहा है. हर संस्कृति में सब कुछ लिखने की क्षमता नहीं होती, उसके कई तत्व श्रुति, स्मृति और चलन के सहारे जीवित रहते हैं. भाषा के मरने के बाद संस्कृति का यह अलिखा हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है. इसलिए जरूरी है कि हम अपनी भाषाओं को जीवित रखें.
भाषाओं को जीवित रखने के लिए स्थानीय स्तर पर कोशिशें भी हो रही हैं. चीन ने अपनी पुरानी मंदारिन को संरक्षित करने के लिए अभियान चला रखा है. नाइजीरिया अपनी भाषाओं को वाचिक रूप में बचाये रखने के लिए रिकॉर्ड करने का सहारा ले रहा है. भारत में भी कई लोग अपनी बोलियों के लिए ऐसी कोशिशें कर रहे हैं. मरती हुई भाषाओं के लिए व्यक्तिगत की बजाय सामूहिक कोशिशें होनी चाहिए. भाषाएं क्यों जरूरी हैं, इसे हम अमेरिकी नारीवादी रीटा मे ब्राउन के शब्दों में समझ सकते हैं. रीटा कहती हैं, ‘भाषा किसी भी संस्कृति का रोडमैप होती है. वह आपको बताती है कि इसे बोलने वाले लोग कहां से आते हैं और कहां जा रहे हैं.’
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)