मनुष्य समाज के लिए परस्पर मिल-जुलकर रहना और सद्भावों को बनाये रखना बहुत आवश्यक है. जिस व्यक्ति के जितने अधिक स्नेही, मित्र, स्वजन और सहयोगी होते हैं, वह उतना अधिक प्रसन्न रहता है और उतनी ही प्रगति भी करता है. जो व्यक्ति शत्रुओं से घिरा रहता है, जिसे चारों ओर से निंदा, उपेक्षा एवं तिरस्कार प्राप्त होता है, उसके लिए कोई महत्वपूर्ण प्रगति कर सकना संभव ही नहीं. तभी तो कहते हैं, आपने जीवन में कितना धन कमाया यह महत्वपूर्ण नहीं है, परंतु आपने कितने लंबे समय तक टिकने वाले संबंध बनाये वह महत्वपूर्ण है.
यदि हम धन और अन्य विनाशी चीजों के पीछे भागने की बजाय अच्छे और सच्चे संबंधों में अपना समय निवेश करें, तो हमारा जीवन काफी खुशहाल बन सकता है. हमारे बड़े-बुजुर्गो ने हमें यही सिखाया है कि सामाजिक समरसता के लिये संबंधो का दृढ़ता से निर्वाह करना आवश्यक है. इसलिए सुख हो या दुख, दोनों ही स्थितियों में संबंधों का प्रभाव देखा जाता है. सुख यदि अपने स्नेहियों के साथ मिलकर बांट लिया जाता है, तो उसका आनंद दोगुना हो जाता है और दुख के समय यदि स्नेहियों का साथ मिल जाता है, तो दुख आधा हो जाता है, परंतु बदलाव के इस दौर में संबंधों में शिथिलता आ गयी है.
संयुक्त परिवार की ‘हम’ की भावना, एकल परिवार में ‘मैं’ में बदल चुकी है. अत: आज माता-पिता एवं शिक्षकों का यह दायित्व बनता है कि वे बच्चों को उच्च शिक्षित करने से पहले संस्कारों का पाठ पढ़ाएं और उनके जीवन में नैतिकता का बीजारोपण करें. भविष्य प्रतिकूलताओं से भरा होगा, ऐसे में बहुत जरूरी हो जाता है कि युवाओं को दृढ़ता से खड़े होने, मुसीबतों से मुकाबला करने, परिस्थितियों पर विजय पाने के लिये हिम्मत का पाठ पढ़ाया जाए और उनके जीवन में अध्यात्म के महत्व को बढ़ाया जाए.
यदि समाज से संबंधों की मिठास खत्म कर दी गयी, तो संपूर्ण समाज विषैला बन जायेगा. अतः समझदारी इसी में है कि हम भावी पीढ़ी को परस्पर स्नेह, संबंध बनाये रखना सिखाएं, ताकि वे सुखमय और शांतिमय जीवन जी सकें.
– ब्रह्माकुमार निकुंज जी